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मोदी राज में आर्थिक निर्णय में ख़ास क़िस्म की गिरावट आई है

भारतीय रिज़र्व बैंक बोर्ड की बैठक की मिनट्स दर्शाती हैं कि नाममात्र जीडीपी के मुक़ाबले वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को भ्रमित करने के लिए वित्त मंत्रालय ने प्राथमिक त्रुटियाँ की हैं, जो स्टॉक में 85 प्रतिशत मुद्रा पर नोटबंदी के ज़रीए प्रतिबंध का मामला बनाते हैं।
मोदी राज में आर्थिक निर्णय में ख़ास क़िस्म की गिरावट आई है

भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की बोर्ड की उस बैठक की मिनट्स जिसमें 500 रुपये और 1,000 रुपये मूल्यवर्ग के करेंसी नोटों नोटबंदी की घोषणा की गई थी, अब आरटीआई के ज़रिये वे सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध हैं। और वे जो खुलासा करती हैं, वह आर्थिक नीति पर निर्णय लेने की अपमानजनक स्थिति को दर्शाती है जिसे नरेंद्र मोदी सरकार के अधीन किया गया है।
निश्चित रूप से, आर्थिक निर्णय लेने को हमेशा एक वर्ग के प्रति पूर्वाग्रह से संबंधित रहा है; लेकिन यह वह नहीं है जिसे मैं यहां बता रहा हूं। यहां तक कि जब भी कोई निर्णय शासक वर्गों के हितों के आधार पर लिया जाता है, तो उस निर्णय के लिए तर्क, उस निर्णय का औचित्य, आम तौर पर कुछ आर्थिक प्रस्तावों पर निर्भर करता है, जो एक गहरे स्तर पर संदिग्ध हो सकते है, लेकिन जो अपने स्वरुप में बेतुके नहीं होते हैं।
वर्तमान सरकार के अधीन मामला यह भी है कि निर्णय किसी एक व्यक्ति द्वारा, यानि मोदी और आर्थिक नौकरशाही द्वारा लिए जाते हैं, जिसके आधार पर ऐसे निर्णय तैयार किए जाने चाहिए, जो मोदी द्वारा लिए निर्णय का औचित्य प्रदान कर सके। हालांकि, यह औचित्य, संदिग्ध हो सकता है, लेकिन बेतुका नहीं माना जा सकता है।
लेकिन आरबीआई बोर्ड की बैठक की मिनटस से पता चलता है कि आजकल हम वास्तव में गहराई में उतर रहे हैं; आधिकारिक नोटों में इतनी स्पष्टता के साथ मुहर लगाई जाती है कि कोई भी हैरान रह जाता है।
वित्त मंत्रालय ने जाहिर तौर पर नवंबर 2016 में आरबीआई को एक पत्र लिखा था, जिसे सार्वजनिक रूप से दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों द्वारा समर्थन दिया गया था, जैसे कि एस गुरुमूर्ति और जिसने निम्नलिखित लाइनों के साथ विमुद्रीकरण के लिए एक तर्क दिया था (द वायर, 11 मार्च)। 2011-12 और 2015-16 के बीच, देश के सकल घरेलू उत्पाद (सकल घरेलू उत्पाद) में 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, जबकि इसी अवधि में क्रमशः 500 रुपये और 1,000 रुपये मूल्यवर्ग के नोटों में वृद्धि दर 36 प्रतिशत और 109 प्रतिशत थी। ; यह विसंगति काले धन में वृद्धि के कारण थी, जिसके बाद यह कहा गया कि इस तरह के नोटों के विमुद्रीकरण (नोटबंदी) से काली अर्थव्यवस्था को झटका लगेगा।
वित्त मंत्रालय का यह दस्तावेज यह देखने में असफल रहा कि जीडीपी में वृद्धि वास्तविक संदर्भों में हुई थी, नाममात्र के लिए नहीं, और इसके लिए कोई कारण मौजुद नहीं कि वास्तविक जीडीपी और नाममात्र पैसे की आपूर्ति के बीच के अनुपात में कोई निरंतरता क्यों होनी चाहिए थी। 

यदि वित्त मंत्रालय के नोट में नाममात्र जीडीपी की तुलना नाममात्र पैसे की आपूर्ति के साथ की गई थी, यानी की इस तरह की तुलना में, तो मुद्रा-जीडीपी अनुपात में कोई वृद्धि नहीं मिली होगी। वास्तव में, 2011-12 और 2015-16 के बीच नाममात्र जीडीपी में लगभग 54 प्रतिशत की वृद्धि हुई (और 30 प्रतिशत नहीं जो वास्तविक जीडीपी के लिए आंकड़ा था); और जनता के पास मुद्रा, यानी कुल मुद्रा से अलग जो बैंकों द्वारा आयोजित की जाती है, उसी अवधि में 56 प्रतिशत की वृद्धि हुई। दो परिमाण कम या ज्यादा एक दुसरे के गठजोड़ के साथ बढ़ गए थे।
लेकिन तब यह पूछा जा सकता है: यदि वास्तविक जीडीपी की तुलना में नाममात्र पैसे का स्टॉक तेजी से बढ़ता है तो निश्चित रूप से यह अर्थव्यवस्था के लिए बुरा है, क्योंकि यह मुद्रास्फीति का कारण हो सकता है। इस प्रश्न का उत्तर चार अलग-अलग स्तरों पर दिया जा सकता है: पहला, मुद्रास्फीति, माल की आपूर्ति की मांग और आपूर्ति के बीच एक बेमेल के कारण हो सकता है, और न कि पैसे की आपूर्ति में वृद्धि जो सभी आवश्यक रूप से सामान खरीदने पर खर्च की जाती है, तो वह वास्तविक जीडीपी और नाममात्र पैसे की आपूर्ति के बीच गैर-समकालिक वृद्धि आवश्यक रूप से मुद्रास्फीति नहीं है।
दूसरा, यदि प्रयह आशंका है कि धन की आपूर्ति और जीडीपी के बीच इस तरह की गैर-समकालिक वृद्धि में मुद्रास्फीति की क्षमता है, तो ऐसे मामले में उपाय एक प्रतिबंधात्मक मौद्रिक नीति की खोज में निहित है, जो पैसे की आपूर्ति की वृद्धि को नीचे लाता है ।
और तीसरा, अगर मुद्रास्फ़ीति को रोकने के लिए इस पर जोर देती है, तो यह पूरी तरह से वास्तविक जीडीपी और पैसे की आपूर्ति के बीच सम्मिलन से होना चाहिए, न कि पैसे की आपूर्ति के विशिष्ट घटकों के बीच, जैसे कि 500 रुपये और 1,000 रुपये के नोट और जीडीपी के बीच। और चौथा, इस सबका मुद्रास्फीति के साथ लेना देना है; इसका काले धन या विमुद्रीकरण से कोई लेना-देना नहीं है (जिसे शायद ही महंगाई को नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है)।

दूसरे शब्दों में कोई भी व्याख्या संभवतः वित्त मंत्रालय के नोट की नहीं की जा सकती है। बजाय इसके कि यह एक प्राथमिक त्रुटि के आधार पर बेतुका, सादा और सरल फेंसला था, ऐसा फेंसला जिसे करने के लिए विश्वविद्यालय में एक स्नातक छात्र भी कई बार सोचेगा। यह नाममात्र जीडीपी के लिए वास्तविक जीडीपी को भ्रमित करता है और इस तरह की गलतफहमी के आधार पर देश के 85 प्रतिशत मुद्रा स्टॉक को प्रतिबंध करने का मामला सामने आया है! और इस तरह की गलती करने वाली इकाई कोई ओर नही बल्कि देश का वित्त मंत्रालय था!
इसके अलावा, जब ऐसा कोई नोट RBI को जमा करने के लिए तैयार किया जाता है, तो यह मंत्रालय में कई डेस्क से होकर गुजरता है, और मंत्रालय की नौकरशाही के कई स्तरों द्वारा जांचा जाता है; तथ्य यह है कि उनमें से कोई भी इस तरह की प्राथमिक त्रुटि को नहीं देख पाता है, यह मंत्रालय की क्षमता के स्तर की तरफ इशारा करता है। या, हो सकता है, शायद, क्योंकि मोदी विमुद्रीकरण चाहते थे, अधिकांश नौकरशाहों ने इसे एक फितरत के रूप में लिया और यह भी पढ़ने की जहमत नहीं उठाई कि क्या इसके लिए सटीक तर्क का इस्तेमाल किया जा रहा है या नहीं, उम्मीद है कि RBI ने भी इसे पढ़ने की ज़हमत नही उठाई होगी और बस रबरस्टैंप  की तरह - इस पर मुहर लगा दी। लेकिन दोनों ही मामलों में मोदी सरकार के कामकाज के बारे में जो खुलासा हुआ है वह काफी चौंका देने वाला है।
उन आर.बी.आई  बोर्ड के सदस्यों को दाद देनी होगी जिन्होने ने इस पर सवाल उठाए। उन्हौने उस सोच पर भी सवाल उठाए जो नोटबंदी के पक्ष में “वाहिट पेपर ओन ब्लेक मनी” नामक पेपर में दी गयी थी। इस पेपर में विश्व बैंक के आँकड़ों के आधार पर काले धन में हुई बढ़ोतरी को रेखांकित किया गया, और यह भी बताया गया कि नकली करेंसी नोट बाज़ार में बढ़ रहे हैं, और इस अंदाज़ के अनुसार इनकी नकली नोटों की संख्या 400 करोड़ रूपए के समान है।

यह बहस भी अपने आप में बेतुकी है क्योंकि इसमें जिन भी तथ्यों का इस्तेमाल हुआ वे खुद सरकार की नाकामी के बारे में बोलती हैं, जिसमें सरकार की मुद्दे के प्रति अज्ञानता और स्वार्थीपन को ही दर्शाती है। बोर्ड के सदस्यों ने यह उम्द सवाल उठाया कि 400 करोड़ नकली धन की कवायद देश के  बाज़ार में मौजुद मुद्रा के मुकाबले काफे छोटी राशी है, और कुल 400 करोड़ क़ो पकड़ने के लिए देश की 16 लाख करेंसी का विमुद्रिकरण करना निहायत ही गलत होगा। उन्हौने यह भीं कहा कि नोट बंदी के जरीए काले धन को नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता है क्योंकि यह नोट की शक्ल में नहीं बल्कि निवेश के जरीए हर तरह की परिसंपत्तियों में लगा हुआ है। 

खासतौर पर बैठक में चर्चा के अंत में आर.बी.आई. बोर्ड ने नोटबंदी करने का फेंसला ले लिया! यह शायद ही चौंकाने वाली बात है: कि 10 निदेशकों में से केवल तीन “स्वतंत्र निदेशक” थे और इनमें से केवल दो बैठक में मौजुद थे। और इन दो में साए एक गुजरात से सेवा निर्वित थे और दुसरे कोर्पोरेट से थे। इसलिए सरकार को इस फेंसले पर बोर्ड की मुहर लगाने में कोई परेशानी नहीं हुई। हालांकि जिस आर.बी.आई. के फेंसले से लाखों कामकाजी लोगों को तकलीफ हुई (निस्चित तौर पर नोट बंदी से) उसमें कामकाजी लोगों का कोई प्रतिनिधी नहीं था। 
यह पुरा का पुरा मामला दर्शाता है देश में फेंसले लेने की गुणवत्ता में किस कदर गिरावट आई है। अज्ब इस तरह के तथ्य बाहर आते हैं वह आर.बी.आई. की “स्वायत्तता” की दावेदारी पर सवाल उठाती है। लेकिन “स्वायत्तता” का यहां जो मतलब है कि आर,बी. आई. की निति पर बजाय वित्त मंत्रालय के कुछ अफसरो द्वारा तय करने के, बल्कि ये फेंसले विश्व बेंक और आई.एम.एफ. द्वारा लिए जा रहे हैं जिनसे कर्ज़ लिया जाता है। “स्वायत्तता” की मांग जिसे मीडिया या अन्य जगहों पर उठाया जा रहा है वह इस बात को नहीं दर्शाती है कि जबकि आर.बी.आई. को सरकार से स्वायत्त होना चाहिए लेकिन साथ ही इसे लोगों के और संसद के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। और ईसाई निस्चित करने का एक रास्ता यह होगा कि इसमें शुरुवात के लिए मज़दुरो, किसानों और खेत मज़दूरों के प्रतिनिधी आर.बी.आई. बोर्ड में चाहिए।

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