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MP चुनाव : आदिवासी इलाक़ों में 'स्वच्छ भारत मिशन' के शौचालय इस्तेमाल के लायक नहीं!

अधिकांश शौचालयों में न तो दरवाज़े हैं और न ही सेप्टिक टैंक हैं और बाक़ी शौचालय साफ़ पानी की कमी के कारण इस्तेमाल के लायक नहीं हैं।
Mangi Lal
मंदसौर के पंच खैरा गांव के दलित निवासी मांगी लाल, लगभग छह साल पहले बने शौचालय के बाहर खड़े हैं। शौचालय में सेप्टिक टैंक नहीं है।

भोपाल: मध्य प्रदेश की आदिवासी बस्तियों में शौचालयों के नाम पर खंडहर हैं, जो पिछले आठ सालों में सरकार के महत्वाकांक्षी स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण कार्यक्रम की कहानी बताते नज़र आते हैं।

इन व्यक्तिगत घरेलू शौचालयों का निर्माण खुले में शौच को खत्म करने और स्वच्छता को बढ़ावा देने के लिए 2 अक्टूबर 2014 को एक देशव्यापी योजना के तहत शुरू किया गया था।

हालाँकि, मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाकों में अधिकांश शौचालयों में न तो दरवाजे हैं और उस पर सेप्टिक टैंक की कमी है। बाकी शौचालय साफ पानी के अभाव में इस्तेमाल नहीं किए जा सकते हैं। 

शौचालयों का इस्तेमाल अनाज या तेंदू पत्ते रखने या जानवरों को आश्रय देने के लिए किया जाता है। सुबह के समय पुरुषों को प्लास्टिक की बोतल या लोटा लिए और महिलाओं को छोटे समूहों में ज्यादातर शाम के बाद या सुबह होने से पहले शौच के लिए जाते देखा जा सकता है।

चौंकाने वाली बात यह है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 2018 में घोषणा की थी कि राज्य को उस वर्ष की 2 अक्टूबर तक खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) प्लस घोषित किया जाएगा। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2022 तक 50,279 गांवों में 72 लाख से अधिक शौचालयों का निर्माण किया गया, जिनमें से 49,994 को ओडीएफ प्लस घोषित किया गया है।

राज्य की आबादी में आदिवासियों की हिस्सेदारी 22 प्रतिशत है और 89 आदिवासी ब्लॉकों में शौचालयों की स्थिति भी इससे अलग नहीं है।

केंद्र ने पिछले आठ सालों में 83,937.72 करोड़ रुपये की लागत से 10.9 करोड़ शौचालय बनाने के लिए अपनी पीठ थपथपाई है। हालाँकि, योजना की प्रगति पर विश्व बैंक और येल विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के एक फ़ेकल्टी द्वारा तैयार किए गए एक शोध पत्र में 2018-19 के बाद अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति द्वारा शौचालय के इस्तेमाल में भारी गिरावट पाई गई है। 

“यदि सभी समूहों पर नज़र डालें तो शौचालयों के नियमित इस्तेमाल में सभी समुदायों में गिरावट आई है, लेकिन अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के मामले में यह गिरावट सबसे बड़ी है। शोध पत्र में कहा गया है कि अनुसूचित जाति के लिए शौचालयों के नियमित इस्तेमाल में 20 प्रतिशत अंक की गिरावट और अनुसूचित जनजातियों में 24 प्रतिशत अंक की गिरावट हुई है, जबकि अन्य पिछड़ी जाति और सामान्य श्रेणियों में 9 और 5 प्रतिशत अंक की गिरावट हुई है। 

शोध ने मध्यप्रदेश को उन सात राज्यों में शामिल किया है, जहां 2018 के बाद से शौचालय के इस्तेमाल में असमान गिरावट देखी गई है।

कुछ आदिवासी बस्तियों में जहां साफ पानी उपलब्ध है, शौचालयों में रंगीन हस्तनिर्मित पेंटिंग हैं, लेकिन वे केवल महिलाओं और लड़कियों के लिए आरक्षित हैं जबकि पुरुष खुले में शौच करने जाते हैं।

जिला मुख्यालय से 10 किमी दूर झाबुआ के ढेकल बड़ी गांव में, जहां साफ पानी की कमी है, पूजा भूरिया कहती हैं कि शौचालय यहां बुजुर्गों के लिए आरक्षित हैं जबकि अन्य लोग खुले में शौच करते हैं। सड़क के उस पार दो बॉक्स-आकार के शौचालय हैं, लेकिन निकटतम जल स्रोत उनसे एक किलोमीटर दूर है, जिससे उन्हें उनके अपने इस्तेमाल को केवल बुजुर्ग परिवार के सदस्यों तक सीमित रखने पर मजबूर होना पड़ता है।

100 से अधिक परिवारों वाला यह गांव एक हैंडपंप और एक मौसमी नाले पर निर्भर रहता है। भूरिया की 14 वर्षीय बेटी कहती है, “हम सुबह के समय दो बाल्टी पानी भरने के लिए हैंडपंप के सामने घंटों कतार में खड़े रहते हैं।” ग्रामीण नहाने और कपड़े धोने के लिए नाले का इस्तेमाल करते हैं।

ढेकल बड़ी गांव के सुपुर सिंह भूरिया कहते हैं कि ठेकेदार ने केवल एक बॉक्स के आकार का शौचालय बना दिया है, एक दरवाजा लगा दिया लेकिन कोई सेप्टिक टैंक बनाने की जहमत नहीं उठाई। "हम इसका इस्तेमाल केवल नहाने के लिए करते हैं और खुले में शौच के लिए जाते हैं।"

झाबुआ से 50 किलोमीटर दूर धार सरदारपुर इलाके में भी शौचालयों का यही हाल है। एनएच-47 पर स्थित सरदारपुरा गोविंदपुरा गांव में भ्रष्टाचार और पानी की कमी ने योजना को विफल कर दिया है। 

गोविंदपुरा की कमला बाई ने शिकायत की कि ठेकेदार ने केवल बॉक्स आकार का कमरा बना दिया है और टॉयलेट सीट लगा दी है, लेकिन सेप्टिक टैंक नहीं खोदा है। “हमने खोदने की कोशिश की, लेकिन एक महीने के भीतर ही उसमें से रिसाव शुरू हो गया। इसलिए, हम इसका इस्तेमाल केवल नहाने के लिए करते हैं।” 

सरदारपुर के गोविंदपुरा गांव की कमला बाई और अन्य निवासी रोजाना नाले के पास शौच करते हैं।

गोविंदपुरा के निवासी भी खुले में शौच करते हैं। “हम राजमार्ग के दूसरी ओर शौच करते थे। लेकिन शौच के लिए जा रही एक महिला की राजमार्ग पार करते समय दुर्घटना में मृत्यु हो जाने के बाद, हम एक किलोमीटर दूर एक नाले के पास शौच करते हैं,” वह यह सब बताते हुए दो बाल्टी पानी लेकर आगे बढ़ जाती हैं।

एक साल पहले स्वच्छ पानी उपलब्ध कराने के लिए जल जीवन मिशन के तहत उनके घर के बाहर दो सीमेंट वाटर टैब बनाए गए थे, लेकिन पाइप नहीं बिछाए गए हैं।

यही स्थिति दलित बहुल बस्तियों में भी है, जिनकी आबादी राज्य की 17 प्रतिशत है, जो आदिवासियों से 5 प्रतिशत कम है।

झाबुआ से लगभग 200 किलोमीटर दूर, मंदसौर के आदिवासी बहुल ककराई और पंच खैरा गांवों में, जो 500 मीटर की दूरी पर स्थित हैं, वहां भी शौचालय जर्जर हालत में हैं।

“कई शौचालयों में दरवाजे नहीं हैं और उनके सेप्टिक टैंक लीक होते रहते हैं जबकि कुछ इतने छोटे हैं कि केवल बच्चे ही उनका इस्तेमाल कर सकते हैं। मनीष कहते हैं कि, निकटतम जल स्रोत 500 मीटर दूर एक तालाब है।” “गांव में 100 से अधिक परिवार हैं जो खुले में शौच करते हैं। केवल वे निवासी जिन्होंने शौचालय बनाए हैं और जिनके पास साफ पानी तक पहुंच है, उनका इस्तेमाल करते हैं। 

शौचालयों की खस्ता हालत भ्रष्टाचार और खराब इंजीनियरिंग के कारण भी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य में 2018 तक योजना के तहत बनाए गए 62 लाख शौचालयों में से 540 करोड़ रुपये की लागत से बने 4.5 लाख शौचालय गायब थे। यह मामला तब सामने आया जब बैतूल की आदिवासी लक्कड़जाम पंचायत के ग्रामीणों ने हंगामा किया और प्रशासन को जांच शुरू करने के लिए मजबूर होना पड़ा।

जांच से पता चला कि परियोजना के लिए आवंटित धन को उन अधिकारियों द्वारा निकाल लिया गया था जिन्होंने सबूत के तौर पर कहीं और बने हुए शौचालयों की तस्वीरें जमा की हुई थीं।

झाबुआ के ढेकल बड़ी गांव के पूर्व सरपंच और 800 से अधिक शौचालय बनाने वाले ठेकेदार दिलीप भूरिया ने आरोप लगाया कि अधिकारियों ने काम पूरा होने के बाद भी उनके बकाया 13 लाख रुपये के बिल का भुगतान नहीं किया है। “मैंने निर्माण की लागत उठाने के लिए अपनी ज़मीन बेच दी और अपनी संपत्ति गिरवी रख दी है। अधिकारियों ने मेरा बकाया नहीं चुकाया, जिससे मुझे शौचालय का निर्माण बीच में ही रोकने पर मजबूर होना पड़ा है,'' उन्हे इसका दुख और बहुत अफसोस है। वरिष्ठ अधिकारियों से बार-बार शिकायत करने के बावजूद किसी ने ध्यान नहीं दिया है।

जमीनी हकीकत के विपरीत, पेयजल और स्वच्छता विभाग ने योजना की जांच करने के लिए विश्व बैंक की मदद से एक स्वतंत्र सत्यापन एजेंसी के माध्यम से 2017-18 से 2019-20 तक राष्ट्रीय वार्षिक ग्रामीण स्वच्छता सर्वेक्षण के तीन दौर किए थे। सर्वेक्षण के प्रमुख संकेतकों में से एक शौचालय के इस्तेमाल के लिए पानी की उपलब्धता थी। सर्वेक्षण के अनुसार, शौचालय तक पहुंच वाले 99.6 प्रतिशत घरों में पानी की उपलब्धता थी और 95.2 प्रतिशत ग्रामीण आबादी जिनके पास शौचालय है, वे इसका इस्तेमाल कर रहे थे।

जन अभियान परिषद से जुड़े एसआर आजाद कहते हैं कि, ''साफ पानी तक पहुंच आदिवासियों की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है, लेकिन वे इसे अपनी नियति मानकर कभी शिकायत नहीं करते हैं।'' अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति बहुल इलाकों में पानी की कमी के कारण शौचालयों का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर कम हो गया है।" 

पानी की कमी और भ्रष्टाचार के बावजूद, केंद्र ने ओडीएफ स्थिति की स्थिरता पर ध्यान केंद्रित करने और ठोस और तरल अपशिष्ट प्रबंधन वाले गांवों को कवर करने के लिए फरवरी 2020 में 1,40,881 करोड़ रुपये के परिव्यय के साथ योजना के दूसरे चरण को मंजूरी दी थी, जो उन्हें 2024-25 तक ओडीएफ से ओडीएफ प्लस बना देगा। 

17 नवंबर को होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर, आदिवासियों ने साफ पानी की मांग की है और उम्मीदवारों से अपने इलाकाओं के अविकसित होने के बारे में सवाल किया है।

अंग्रेजी में प्रकाशित इस रिपोर्ट को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

MP Elections: Swachh Bharat Mission in Tribals Areas Goes Down Drain    

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