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सियासत: पांच राज्यों के चुनाव को सेमीफाइनल कहने का कोई मतलब नहीं

ऐसा नहीं है कि इन चुनाव नतीजों का असर अगले साल के लोकसभा चुनाव पर नहीं होगा। निश्चित रूप से असर होगा। लेकिन अभी इसमें काफ़ी किंतु-परंतु लगे हैं। वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन का विश्लेषण।
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पांच राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया अब अंतिम दौर में है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में मतदान हो चुका है, जबकि राजस्थान में 25 नवंबर को और तेलंगाना में 30 नवंबर को मतदान होना है। इन चुनावों को आगामी लोकसभा चुनाव के लिए सेमीफाइनल कहा जा रहा है। हालांकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में सेमीफाइनल जैसी कोई चीज नहीं होती है क्योंकि खेलों के सेमीफाइनल में हारने वाला फाइनल नहीं खेलता है जबकि राजनीति में सेमीफाइनल हारने वाला न सिर्फ फाइनल खेलता है, बल्कि कई बार जीत भी जाता है। ठीक पांच साल पहले इन्हीं पांच राज्यों में ऐसा ही हुआ था।

इन पांचों राज्यों में 2018 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी हारी थी। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो उसने 15 साल की अपनी निर्बाध सत्ता गंवाई थी। दोनों राज्यों में भाजपा 2003 से सत्ता में थी और 2018 में हार कर सत्ता से बाहर हुई थी। राजस्थान में हर पांच साल पर सत्ता बदलने का रिवाज कायम रहा था। इस प्रकार तीनों हिंदी भाषी राज्यों में कांग्रेस ने सरकार बनाई थी। भले ही मध्य प्रदेश में बाद में जोड़-तोड़ से सत्ता बदल हो गया। उधर तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव की पार्टी लगातार दूसरी बार जीत कर सत्ता पर काबिज रही थी। वहां कांग्रेस दूसरे और भाजपा पांचवें नंबर की पार्टी रही थी। तीसरे नंबर पर असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम चौथे नंबर पर तेलुगू देशम पार्टी रही थी। मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट की जीत हुई थी, जबकि कांग्रेस को पांच और भाजपा को एक सीट पर ही जीत हासिल हो पाई थी।

इस प्रकार कुल मिला कर 2018 में इन राज्यों के चुनाव में भाजपा बुरी तरह से हारी थी और कांग्रेस विजेता रही थी। लेकिन सिर्फ छह महीने बाद हुए 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा पूरे देश में बड़े बहुमत से जीती थी। इन पांच राज्यों में भी उसने शानदार जीत दर्ज की थी। राजस्थान में लोकसभा की सभी 25 सीटें उसने जीती थीं। मध्य प्रदेश में भी वह 29 में से सिर्फ एक सीट हारी थी और उस छत्तीसगढ़ में भी 11 में से नौ सीटें उसने जीती थीं, जहां विधानसभा में उसे 90 में से महज 15 सीटें हासिल हुई थीं। तेलंगाना में वह लोकसभा की चार सीटों पर जीती थी, जबकि विधानसभा में उसे महज एक सीट हासिल हुई थी। इसलिए पांच राज्यों में अभी हो रहे चुनाव नतीजों का आकलन सेमीफाइनल या फाइनल के नजरिए से करना उचित नहीं होगा।

हालांकि ऐसा नहीं है कि इन चुनाव नतीजों का असर अगले साल के लोकसभा चुनाव पर नहीं होगा। निश्चित रूप से असर होगा। लेकिन अभी 3 दिसंबर को चुनाव नतीजे आने के बाद राजनीतिक विश्लेषण करते हुए किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता।

बहरहाल, इन पांच राज्यों के चुनाव नतीजों का पहला असर धारणा पर होगा। अभी यह धारणा बनी हुई है कि 10 साल से केंद्र में सरकार चला रही भाजपा के लिए अगला चुनाव मुश्किल होने वाला है। यह धारणा 10 साल की एंटी इन्कम्बैसी की वजह से तो है ही, साथ ही इस वजह से भी है कि विपक्षी पार्टियों ने 'इंडिया’ नाम से अपना गठबंधन बनाया है और यह तय किया है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ हर सीट पर विपक्ष का भी एक ही उम्मीदवार होगा। इसीलिए भाजपा ने भी प्रतिक्रियास्वरूप आगे बढ़ कर अपने पुराने सहयोगियों को इकट्ठा करना शुरू किया और छोटे-छोटे नए सहयोगी भी तलाशे। उसने विपक्षी गठबंधन 'इंडिया’ के मुकाबले 38 पार्टियों को अपने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए के बैनर तले बुला कर बैठक की। सभी छोटे-बड़े दलों के नेताओं से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद मिले।

अगर इन पांच राज्यों के चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहता है तो यह धारणा और मजबूत होगी कि 'इंडिया’ के मुकाबले एनडीए कमजोर है और लोकसभा चुनाव में भाजपा को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा। अगर भाजपा प्रदर्शन अच्छा रहता है तो कांग्रेस की कमजोरी जाहिर होगी, जिसका असर विपक्षी गठबंधन 'इंडिया’ पर पड़ेगा। विपक्षी पार्टियां कांग्रेस पर दबाव बनाएंगी और ज्यादा सीटों के लिए मोलभाव करेंगी। ऐसा होने पर लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी गठबंधन में फूट पड़ सकती है। अगर इन चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहता है तब भी विपक्षी गठबंधन में समस्याएं पैदा होंगी, क्योंकि कांग्रेस अपनी ताकत बढ़ने की वजह से ज्यादा से ज्यादा सीटों पर लड़ना चाहेगी। कहा जा सकता है कि ऐसी स्थिति में तय होगा कि गठबंधन की राजनीति को कांग्रेस स्वीकार करती है या नहीं और करती है तो किस हद तक।

इसलिए कह सकते हैं कि इन पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के असर का आकलन दो तरह से होगा। पहला, केंद्र की मोदी सरकार के प्रति एंटी इन्कम्बैसी को लेकर और दूसरा, दोनों गठबंधनों की ताकत व भविष्य की संभावनाओं को लेकर।

गठबंधन की चर्चा करते हुए यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि अभी इन पांचों राज्यों में 'इंडिया’ या एनडीए गठबंधन चुनाव नहीं लड़ रहा है। तीन राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मुकाबला मुख्य रूप से भाजपा और कांग्रेस के बीच है। तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति का मुकाबला कांग्रेस से है, जबकि भाजपा मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश कर रही है। मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट को भाजपा की तरफ से कोई चुनौती नहीं है। एक नई पार्टी ZPM ज़रूर चुनाव को कांग्रेस के साथ त्रिकोणीय बना रही है।

चुनाव की घोषणा के बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का आम आदमी पार्टी या समाजवादी पार्टी से कोई तालमेल बनता है या नहीं, यह देखने वाली बात होगी। अभी आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी दोनों अलग-अलग चुनाव लड़ रही हैं। बहरहाल, गठबंधन बने या न बने लेकिन पांच राज्यों का यह चुनाव धारणा के स्तर पर 'इंडिया’ बनाम एनडीए माना जाएगा और इसके नतीजों का आकलन इसी आधार पर होगा।

इन चुनावों में नरेंद्र मोदी के करिश्मे की परीक्षा भी होनी है। पिछले 20 साल में यह पहली बार हो रहा है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा मुख्यमंत्री के तौर पर बिना कोई चेहरा पेश किए लड़ रही है। 2003 से 2018 तक राजस्थान में हर चुनाव भाजपा ने वसुंधरा राजे के चेहरे पर और छत्तीसगढ़ मे रमन सिंह के चेहरे पर लड़ा है। मध्य प्रदेश में 2003 का चुनाव वह उमा भारती के चेहरे पर लडी थी और 2008 से 2018 तक तीनों चुनाव उसने शिवराज सिंह चौहान के चेहरे पर लड़े। लेकिन इस बार तीनों राज्यों में भाजपा घोषित रूप से प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर मैदान में उतरी है। तीनों राज्यों में मोदी ने धुआंधार प्रचार किया है और अपनी पार्टी के चुनावी वायदों को 'मोदी की गारंटी’ के तौर पर पेश किया है। गौरतलब है कि इसी साल कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव भी भाजपा मोदी के चेहरे पर ही लड़ी थी और दोनों जगह उसे हार का सामना करना पड़ा। बहरहाल भाजपा लोकसभा की तरह मोदी के चेहरे और अमित शाह के प्रबंधन पर चुनाव लड़ रही है। सो, मोदी के करिश्मे और शाह के प्रबंधन दोनों की परीक्षा भी इन चुनावों में होगी।

भाजपा से उलट कांग्रेस इस बार चार राज्यों में प्रादेशिक क्षत्रपों के चेहरे पर लड़ रही है। मध्य प्रदेश में कमलनाथ, राजस्थान में अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और तेलंगाना में रेवंत रेड्डी के कांग्रेस के चेहरे हैं। सो, इन प्रादेशिक क्षत्रपों को अपने आप को प्रमाणित करना है। ठीक वैसे ही जैसे कर्नाटक में सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार ने अपने को प्रमाणित किया है।

अगर मुद्दों की बात करें तो पहला मुद्दा मुफ्त की रेवड़ी का है, जो सभी सरकारों ने बांटी हैं, जो विपक्षी में है उसने बांटने का वादा किया है। इसके अलावा भाजपा के डबल इंजन की सरकार, विश्वगुरु भारत, हिंदुत्व, राम मंदिर, सनातन धर्म की रक्षा और मजबूत नेतृत्व के बरक्स कांग्रेस की ओर से पुरानी पेंशन योजना की बहाली, बेरोजगार नौजवानों को नौकरी, जाति जनगणना, सामाजिक न्याय और आरक्षण के मुद्दे हैं। कांग्रेस और राहुल गांधी ने जाति गणना को बड़ा मुद्दा बनाया है। चुनाव की घोषणा से दो दिन पहले राजस्थान में जाति गणना की अधिसूचना जारी हुई। सभी राज्यों में कांग्रेस ने वादा किया है कि सरकार में आने पर वह जाति गणना कराएगी। इससे वह पिछड़ी जातियों में एक मैसेज भेजना चाहती है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उसके मुख्यमंत्री भी पिछड़ी जाति से आते हैं। सो, इस मुद्दे की परीक्षा इन चुनावों में होनी है।

राहुल गांधी अपनी भारत जोड़ो यात्रा के क्रम में पिछले साल मध्य प्रदेश, राजस्थान और तेलंगाना में काफी समय रहे थे। इसलिए कांग्रेस को उम्मीद है कि उस यात्रा का कुछ फायदा पार्टी को होगा। कुल मिला कर पांच राज्यों के चुनाव में नेतृत्व के साथ-साथ रणनीति और लोकसभा चुनाव के लिहाज से अहम मुद्दों की परीक्षा होगी। तभी नतीजों से निश्चित रूप से धुंध छंटेगी और लोकसभा चुनाव के मुकाबले की तस्वीर साफ होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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