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‘मॉडल’ गुजरात , श्रम कानूनों को कमज़ोर कर गुजरात में श्रमिकों की आवाज़ दबा रहा है

मज़दूरों को बर्खास्त करना, काम को आउटसोर्सिंग करना, अदालतों के बाहर विवादों का निपटारा करना और निगरानी को बेअसर करना ताकि आसानी से श्रम का लाभ उठाया जाए और निवेश "सुरक्षित" हो.
श्रम कानून

फरवरी 2015 में, गुजरात विधानसभा ने सरकार प्रायोजित एक विधेयक पारित किया जिसके ज़रिए कई श्रम कानूनों में संशोधन किये गए. जनवरी 2016 से राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद श्रम कानूनों में किये गए परिवर्तन लागू हो गए. उद्योग जगत के बड़े धुरंधरों ने इसे बहुत ही उपयोगी और सकारात्मक बताया और उसका स्वागत किया. सांसद रहे ये संशोधन उस समय गुजरात के श्रम मंत्री विजय रूपाणी ने प्रस्तावित किये थे जो बाद में राज्य के मुख्यमंत्री बने.

ये बदलाव संक्षेप में दिखाते हैं कि गुजरात मॉडल की सच्चाई क्या है? वे श्रमिकों के अधिकारों को प्रतिबंधित करते हैं, उनकी  नौकरियों को अधिक असुरक्षित बनाते हैं, मजदूरी बढ़ाने के रास्ते को मुश्किल बनाते हैं, आउटसोर्सिंग को आसान बनाते हैं, श्रम कानूनों को लागू करने के लिए उद्योगपतियों पर दबाव कम करते हैं और विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एस.ई.जेड) में काम कर रहे श्रम के सभी अधिकारों को ख़तम करते हैं (ऐसे एस.ई.जेड. जैसे कि मोदी के करीबी अदानी के पास है).

परिवर्तनों को पारित होने के बाद रुपानी ने बेशर्मी से ख़ुशी में झूमते हुए कहा, "मैं 11 से 13 जनवरी तक होने वाले वाइब्रेंट ग्लोबल गुजरात इंडस्ट्रियल इनवेस्टमेंट शिखर सम्मेलन के 8 वें संस्करण में गुजरात को एक शून्य औद्योगिक दुर्घटना वाला और पूर्ण श्रम शांति वाले एक सुरक्षित निवेश स्थान के रूप में पेश करूंगा"

संक्षेप में, श्रम कानूनों में परिवर्तन करने से मजदूरों का शोषण तेज़ करने के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ और उद्योगपतियों के लिए बिना किसी भय के अपने मुनाफे को अधिकतम करने के लिए मौका मिला. महान गुजरात मॉडल का कुल निचोड़ यही है कि पूंजीपतियों के लिए अंधा मुनाफा और मजदूरों का शोषण.

2015 में जब विधानसभा में मतदान के लिए गुजरात श्रम कानून (गुजरात संशोधन) विधेयक को प्रस्तुत किया गया तो पूरे विपक्ष ने गुस्से में तमतमाते हुए विरोध करते हुए सदन का बहिष्कार कर दिया था. बीजेपी विधायकों द्वारा पारित करने के बाद, इसे भारत के राष्ट्रपति को सहमति के लिए भेजा जाना था क्योंकि इसमें केंद्रीय श्रम कानूनों में बदलाव लाना भी शामिल था, जैसे कि औद्योगिक विवाद अधिनियम, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, आदि. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इस पर सितंबर 2015 में अपनी सहमति दे दी थी.

सरकार ने कहा कि श्रम कानूनों में बदलाव वाले कानून का उद्देश्य "राज्य में औद्योगिकीकरण को प्रोत्साहन देना है"

गुजरात सरकार जिन कुछ मुख्य बदलावों को लायी है वे इस प्रकार हैं:-

  • मजदूर विवादों को "सामंजस्यपूर्ण" अपराध के रूप में परिभाषित किया जाता है - जिसका मतलब है कि पार्टियां न्यायालय के बाहर विवाद को सुलझा सकती हैं और सरकार को एक निश्चित राशी का भुगतान कर सकती हैं. ये यह सुनिश्चित करता है कि श्रमिकों को अपनी नौकरी को वापस लेने के लिए लड़ने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि उसे इस कानून के तहत निपटारे के लिए मजबूर किया जा सकता है और साथ ही उसे नौकरी से बाहर किया जा सकता है. यहां तक कि समान पारिश्रमिक कानूनों, अन्य कानूनों के भीतर विवाद से जुड़े कानूनों को भी इसमें जोड़ लिया गया जिसमें अनुबंध श्रम कानून, ग्रेच्युटी, और महिलाओं की बराबरी  के कानून  इसमें शामिल हैं.
  • कर्मचारी द्वारा मामला दर्ज करने की समय सीमा 3 साल से बदलकर 1 वर्ष कर दी गई. श्रमिकों के पास अक्सर मामला दर्ज कराने के लिए जानकारी नहीं होती है और इसलिए उनकी कानूनी लड़ाई में देरी हो जाती है. यह परिवर्तन सुनिश्चित करेगा कि मजदूर न्याय के लिए मामले दर्ज करने में असमर्थ रहेंगे . 
  • कारखाने अधिनियम के तहत औद्योगिक इकाई द्वारा 'Voulntary Audit' (स्वैच्छिक ऑडिट) या आत्म-प्रमाणन पत्र, को पहली बार केंद्र में एनडीए सरकार द्वारा 2003 में में पेश किया गया था जिसका न्रेतत्व अटल बिहारी वाजपेयी कर रहे थे, जिसमें कारखानों को खुद ही घोषित करना था  कि वे मजदूरी, सुरक्षा, अन्य सेवा परिस्थितियों आदि से संबंधित श्रम कानूनों का पालन कर रहे हैं. यह सरकार द्वारा श्रम कानून के कार्यान्वयन की निगरानी से दूर करने का एक रास्ता है. और इन कानूनों के उल्लंघन के लिए पूरी आजादी भी
  • 'औद्योगिक विवाद अधिनियम में संशोधन इसलिए किया गया ताकि हड़तालों को दो साल तक तथाकथित' सार्वजनिक उपयोगिता 'इकाइयों का दर्ज़ा दे (सरकार द्वारा घोषित किया गया) अवैध घोषित किया जा सके.
  • न्यूनतम मजदूरी अधिनियम में परिवर्तन करना और 'आउटसोर्सिंग एजेंसी' को ठेकेदार के रूप में शामिल करना सीधे-सीधे पूंजीपतियों/मालिकों को श्रम कानूनों से बचने के लिए रास्ता देना है और साथ ही उन्हें काम से बाहर होने वाले समझौते की नफरत भरी प्रणाली को संस्थागत बनाना है.
  • औद्योगिक विवाद अधिनियम में परिवर्तन विशेष निवेश क्षेत्रों, राष्ट्रीय निवेश और विनिर्माण क्षेत्र और अन्य विशेष आर्थिक क्षेत्रों में मालिकों को मजदूरों को किसी भी समय रखने और काम से निकलाने की आजादी देने के लिए है. यह कानून अदानी जैसे पूंजीपति को सहायता प्रदान करेगा जो मुंद्रा एसईजेड चलाता है.

2014 में केंद्र में मोदी की अगुवाई वाली भाजपा के सत्ता में आने के बाद यह सब फास्ट ट्रैक पर डाल दिया गया. केंद्रीय सरकार खुद श्रम कानूनों को बदलने की कोशिश कर रही हैं और मजदूरी पर एक संहिता संसद में प्रस्तुत की गई है. भाजपा द्वारा संचालित कुछ राज्य सरकारें, खासकर राजस्थान सरकार श्रमिक कानूनों को बदलते हुए उद्योगपतियों को लाभान्वित करने और श्रमिकों के अधिकारों को छिनने में काफी आगे बढ़ गयी है.

नवंबर में, 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों और कई स्वतंत्र महासंघों ने दिल्ली में तीन दिवसीय 'महा-पडाव’ आयोजित किया था जिसमें अन्य मांगों के बीच श्रम कानूनों में इस तरह के बदलाव की मांग की गई थी.

लेकिन गुजरात सरकार इस तरह की नव-उदारवादी  नीति के कार्यान्वयन में अग्रणी रही है. गुजरात जैसे उच्च औद्योगिक राज्य में कॉर्पोरेट के लिए लाभ में बढ़ोतरी हो रही है और  मजदूरों की मजदूरी घट रही है, जिसकी वजह से असमानता में बड़े पैमाने पर बढ़ोतरी दिखायी दे रही है, और सभी स्वास्थ्य और शिक्षा के मानकों में भी भारी गिरावट दर्ज हो रही हैं - नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था की एक विशिष्ट विशेषता गुजरात में हाल ही में हुए चुनाव अभियान में देखने को मिली है कि सरकार के मजदूर विरोधी रवैये के विरुद्ध कामकाजी आबादी में काफी विरोध है और सरकारी रवैया अलोकप्रिय है इसका नतीजा 18 दिसंबर को होने वाले चुनावों के परिणाम से पता चलेगा जब भाजपा को जनता से फटकार लगेगी.

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