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MSME को प्रोत्साहन का गहरा दलदल

सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के लिए जिस तीन लाख करोड़ के प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा की गई है, वह अपने आप में अस्पष्ट, विरोधाभासी है। उसे व्यहारिक तौर पर लागू करना बेहद मुश्किल है। इस योजना से जितनी चीजों का समाधान होगा, उससे कहीं ज़्यादा मुसीबतें यह योजना खड़ी करेगी।
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12 मई को देश के नाम अपने टीवी संदेश में प्रधानमंत्री मोदी ने आत्म निर्भर भारत अभियान की घोषणा की थी, जिसमें 20 लाख करोड़ रुपये का ''राहत पैकेज'' दिए जाने का दावा किया गया था। ताकि केरोना महामारी के चलते लगाए गए लॉकडाउन से पैदा हुई मंदी से भारतीय अर्थव्यवस्था को उबारा जा सके।

एक दिन बाद 13 मई को एक मीडिया कॉन्फ्रेंस में केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSMEs) के लिए 3 लाख करोड़ की ''आपात क्रेडिट लाइन गारंटी स्कीम'' की घोषणा की। इस योजना की घोषणा के एक महीने बाद यह साफ हो चुका है कि योजना में पारदर्शिता की कमी है, इसमें कई खामियां और विरोधाभास हैं।

बैंकर्स अब परेशानी में हैं। सरकार चाहती है कि बैंक MSMEs को ज्यादा मात्रा में कर्ज दें, प्रायोजक आपात कर्ज़ सुविधा देने के लिए लाइन लगा चुके हैं, लेकिन बैंकों के लिए इस योजना को लागू करना बेहद मुश्किल साबित हो रहा है। इस लेख में इसकी वज़ह बताई गई है।

इस नई कर्ज नीति को बैंकों के बोर्ड ऑफ डॉयरेक्टर्स द्वारा पारित किया जाना है। लेकिन अब तक योजना की विस्तृत और सूक्ष्म जानकारियां उपलब्ध नहीं कराई गई हैं। 1 जून को वित्तमंत्रालय में स्थित डिपार्टमेंट ऑफ फॉ़यनेंशियल सर्विस  ने ट्वीट कर जानकारी दी कि मेंबर लेंडिंग इंस्टीट्यूशन (MLIs- बैंक और दूसरे वित्तीय संस्थान) को विभाग के ट्विटर अकाउंट पर आकर अपनी समस्या बतानी चाहिए, ताकि उनके बारे में स्पष्टीकरण देकर स्थिति साफ की जा सके।

13 मई को जिस योजना की घोषणा हुई, उसे 26 मई को नोटिफाई किया गया। इसमें 23 मई 2020 से 31 अक्टूबर 2020 के बीच तक या जब तक तीन लाख करोड़ का आवंटन ना हो जाए, तब तक के लिए इसमें आपात क्रे़डिट वितरण की सुविधा उपलब्ध है। सुनने में आया है कि सरकार इस पांच महीने तक दी जाने वाली सुविधा पर विचार कर रही है। वित्तमंत्रालय से आशा लगाई जा रही है कि यह तीन लाख करोड़ वितरण का लक्ष्य जून के आखिर तक पूरा कर लिया जाए। बैंकर्स पर इस लक्ष्य को पूरा करने का दबाव है।

अंतर्निहित विरोधाभास

रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया देश का केंद्रीय बैंक और सर्वोच्च मौद्रिक संस्था है। यह सूचीबद्ध व्यावसायिक बैंक और गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों (NBFCs) की नियामक संस्था भी है। आरबीआई ने उधार देनदारी के लिए एक व्यवस्था बनाई हुई है। मेरे हिसाब से यह पहली बार है जब क्रेडिट स्कीन को वित्तमंत्रालय के डिपार्टमेंट ऑफ फॉयनेंशियल सर्विस (DFS) द्वारा बनाया गया है।

योजना के अंतर्गत नेशनल क्रेडिट गारंटी ट्रस्ट कंपनी लिमिटेड (NCGTC), जो एक छोटी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी है, जिसे 2014 में स्थापित किया गया था, उसे इस योजना को चलाने के लिए प्राथमिक एजेंसी बनाया गया है। ऐसा इसलिए है कि क्योंकि इस योजना में अंतर्निहित तौर पर देश के क्रेडिट डिलीवरी सिस्टम की समझ नहीं है।

इसे देखिए: इस योजना में MSMEs जिनका कर्ज़ 25 करोड़ रुपये तक का है, उन्हें 20 फ़ीसदी कर्ज अलग से दिया जा सकता है। इस अतिरिक्त कर्ज़ को ''वर्किंग कैपिटल टर्म लोन'' का नाम दिया गया है। यह ढांचा आरबीआई के मौजूदा क्रेडिट डिस्ट्रिब्यूशिंग स्ट्रक्चर के उलट है, जिसके तहत फिलहाल पूंजीगत कर्ज़ को कंपनियों को दिया जाता है।

पिछली बार आरबीआई ने 2001 में ''वर्किंग कैपिटल डिमांड लोन (WCDL)'' ढांचे की बात की थी। जिसके बाद बैंको द्वारा कंपनियों को ''नग़द कर्ज़'' देने की व्यवस्था चलन में लाई गई। इस योजना के तहत जिस पूंजी को निकाला जाता है, उसकी निगरानी में होती है, यह ''एसेस्ड लिमिट'' के पार नहीं जा सकती, जिसे ''मैक्सिमम पर्सिमिसिबल बैंक फॉयनेंस (MPBF) लिमिट'' कहते हैं। यह लिमिट लेनदार के पिछले साल की बैलेंस सीट, मौजूदा साल की बैलेंस सीट और आने वाले साल की बैलेंस सीट के ऑडिट पर निर्भर करती है। MPBF में जितनी पूंजी की सीमा तय की गई होती है, लेनदार उस रकम का अपने स्त्रोतों से 25 फ़ीसदी हिस्सा लाए बिना पूरी रकम नहीं निकाल सकता है।

लेकिन NCGTC द्वारा जो वर्किंग कैपिटल टर्म लोन (WCTL) सिस्टम चलाया जा रहा है, वह कर्ज देने के लिए पूर्वस्थापित सिस्टम के साथ तालमेल नहीं बिठाता, जो नग़द कर्ज़ प्रक्रिया से उधार देता है। जैसे अगर किसी कंपनी को कैश क्रेडिट के साथ इस योजना के तहत अलग WCTL खोलना है, तो यह साफ नहीं है कि लोन अकाउंट में किस तरह के लेन-देन की अनुमति होगी और कौन से प्रतिबंधित होंगे। उधार दी गई पूंजी का आखिरी सिरा पकड़ना जरूरी होता है, ताकि यह तय किया जा सके कि उस पूंजी को गैरकानूनी तरीके से यहां-वहां तो नहीं किया गया।

एक तरफ़ NCGTC ने कहा है कि नई योजना के तहत मिलने वाला कर्ज़, पूंजी प्रवाह-प्रतिभूतियों और कर्ज़ आवंटन के ''मौजूदा व्यवस्था के हिसाब'' से ही मिलेगा। जिस संपत्ति पर वित्त लिया गया है, उस पर तीन महीने बाद ही शुल्क लगेगा। लेकिन दूसरी तरफ NCGTC यह भी कहती है कि ''MLIs (मेंबर लैंडिंग इंस्टीट्यूशन- जैसे बैंक) योजना के तहत अतिरिक्त कर्ज आवंटन के लिए किसी चीज को गिरवी रखने के लिए नहीं मांग सकते।'' यह घालमेल इस चीज से भी बढ़ जाता है कि योजना के तहत मौजूदा ढांचे को बदलने या इसके क्रियान्वयन निर्देशों को बदलने के लिए वित्तमंत्रालय में DFS द्वारा बनाई गई कमेटी ही अनुशंसा कर सकती है।

साफ़ है कि एक ऐसी योजना, जो अपने आप में और मौजूदा नियमों के साथ विरोधाभासी है, उसे लागू करने वाले बैंक योजना को लेकर चिंतित हैं। परिणामस्वरूप इस राहत पैकेज से MSMEs को जिन सुविधाओं को दिया जाना था, उनका अबतक कुछ अता-पता नहीं है।

स्पष्टता की कमी और व्यवहारिक समस्याएं

इस योजना को जिस तरीके से बनाया गया है, उसमें कई जगह स्पष्टता की कमी है। योजना के मुताबिक़, 20 फ़ीसदी ''बाहरी (Outstanding)'' लेनदारियों को आपात कर्ज गारंटी योजना में शामिल किया जा सकता है। लेकिन यह प्रावधान इन लेनदारियों के दर्ज़े पर स्थिति साफ़ नहीं करता। क्या वे स्ट्रेस्ड (तनाव) संपत्तियां हैं, या वे नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स (NPAs) बन चुकी हैं।

बैंकों के लिए NPA और SMA (स्पेशल मेंशन अकाउंट) अहम होते हैं। SMA-0 और SMA-1 से किसी कर्ज़ लेनदार के अकाउंट की माली हालत का पता चलता है। NPA वह कर्ज़ या अग्रिम होता है, जहां मूलधन की ब्याज़ या किस्त 90 दिनों से ज्यादा वक़्त से लंबित पड़ी हो। इस अकाउंट को ऑउट ऑफ ऑर्डर माना जाता है।

SMA-0 वह कैटेगरी है, जिसमें मूलधन और ब्याज़ का पैसा अंतिम तारीख से 30 दिन तक लंबित पड़ा होता है। यह ख़तरे की स्थिति मानी जाती है। यह इशारा होता है कि कर्ज़ पर ख़तरा पैदा होने वाला है। SMA-1 वह अकाउंट होते हैं, जहां ब्याज़ या किस्त 30 से 60 दिनों तक लंबित पड़ी होती है। इन्हें SMA-0 कैटेगरी में आने वाले खातों से ज़्यादा ख़तरे वाला माना जाता है।

तर्क के हिसाब से ज़्यादा ख़तरे वाले लेनदारों को आपात कर्ज़ की कम मात्रा उपलब्ध होनी थी। वहीं कम ख़तरे वाले लेनदारों को ज़्यादा कर्ज़ दिया जाना था। लेकिन सरकार की नीति मौजूदा क्षमता या एसेस्ड लिमिट के बजाए बाहरी पूंजी को केंद्र में रखकर तर्क के उल्ट काम कर रही है। वह कर्ज लेने के इच्छुक का ''आउटस्टेंडिंग बैलेंस'' देख रही है, जबिक उसे ''निकासी शक्ति या विश्लेषित सीमा'' को ध्यान में रखना था। नीचे दिए गए उदाहरण से आप बेहतर तरीके से समझ पाएंगे।

मान लीजिए C-1 और C-2 दो लेनदार हैं। पहला लेनदार C-1, SMA-0 खाताधारक है, उसकी लेनदारी का स्तर सूची-1 में दिखाया गया है। वहीं C-2, SMA-1 खाताधारक है, उसकी लेनदारी का स्तर सूची-2 में दिखाया गया है।

आदर्श तौर पर दोनों लेनदारों में से C-1 की ''एसेस्ड लिमिट'' 250 लाख होने के चलते, उसकी निकासी क्षमता 200 लाख है। उसका कर्ज़ चुकाने का बेहतर इतिहास रहा है, इसलिए वह SMA-0 स्तर का लेनदार है। लेकिन उसे 28 फरवरी, 2020 को 50 लाख रुपये मिले थे, इसलिए उसका आउटस्टेडिंग बैलेंस 150 लाख रुपये होगा। नई योजना के हिसाब से C-1 को NCGTC के मुताबिक़ WCLT के तहत 30 लाख रुपये की क्रेडिट गारंटी मिलेगी (150 लाख रुपये का बीस फ़ीसदी)।

अगर सरकार वाकई पूंजी की कमी से जूझ रही MSMEs की मदद करना चाहती है, तो उसे बैंकों को 250 लाख रुपये का 20 फ़ीसदी कर्ज़ देने की अनुमति देना था। या फिर 200 लाख रुपये की कैश क्रेडिट लिमिट का समानुपातिक हिस्सा, जो लगभग इतना ही बैठता। लेकिन नई योजना में एक बेहतर लेनदार (C-1) को सजा दी जा रही है। C-2 एक SMA-1 स्तर का लेनदार है, जो C-1 से ज्यादा पूंजीगत तनाव में है। लेकिन कर्ज चुकाने की इसकी प्रवृत्ति के चलते इसकी बैलेंस सीट ज्यादा रहती है और इसे ज़्यादा आपात क्रेडिट लाइन की सुविधा मिल जाती है। जो इस मामले में 50 लाख रुपये है। इस तरह एक खराब लेनदार को अच्छे लेनदार की तुलना में पुरस्कार दिया जा रहा है।

आय के नुकसान का भार बैंकों पर

बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट, 1949 के सेक्शन 6 के मुताबिक़, ''बैंकिंग'' को एक ऐसा मौद्रिक लेनदेन बताया गया है, जिसमें उधार दिया जाता है और जनता से जमा के तौर पर उनका पैसा लिया जाता है। बैंको के लिए फायदे का सबसे बड़ा पैमाना ''रिटर्न ऑन एसेट्स'' और ''रिटर्न ऑन इक्विटी'' के साथ-साथ ''नेट इंटरेस्ट मार्जिन-NIM'' है।

MSMEs के लिए तीन लाख करोड़ की आपात कर्ज़ गारंटी निधि में बैंकों को 80 फ़ीसदी का योगदान करना होगा, GECL (गारंटीड इमरजेंसी क्रेडिट लाइन) के तहत बैंक 9.25 फ़ीसदी सलाना से ज़्यादा ब्याज़ भी नहीं लगा सकते। यहां यह भी साफ़ नहीं है कि यह ब्याज़, साधारण होगा या चक्रवृद्धि दर के हिसाब से बढ़ेगा।

GECL के अंतर्गत कम ब्याज़ दरों को बरकरार रखने के लिए बैंकों को अपनी ज़मा दर में काफ़ी कटौती करनी पड़ी। इससे ज़माकर्ताओं के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। ख़ासकर बुजुर्ग लोगों पर। इस कम ब्याज़ दर के अलावा 31 अगस्त, 2020 तक मासिक ब्याज़ के भुगतान पर प्रतिबंध भी लगा है।

एक याचिकाकर्ता ने ''जीवन जीने के अधिकार'' के तहत सुप्रीम कोर्ट में ब्याज़ भुगतान के प्रतिबंध काल में कर्ज़ पर भी ब्याज़ को लंबित करने की अपील की है। सर्वोच्च न्यायालय में एक शानदार उदाहरण देते हुए आरबीआई ने शपथ पत्र पर कहा कि अगर बैंकों को 6 महीने के लिए कर्ज़ पर ब्याज़ को लंबित करना पड़ा तो इस दौरान ब्याज़ से होने वाली 2 लाख करोड़ रुपये की आय के बारे में भूल जाना चाहिए।

आरबीआई ने अपने शपथ पत्र में यह कहा था,''बैंकों के लिए औसत कर्ज़ दर 31 दिसंबर, 2019 को 10.40 फ़ीसदी थी। करीब 59 लाख करोड़ रुपये का टर्म लोन है। अगर इसमें से 65 फ़ीसदी कर्ज पर ब्याज़ देने के लिए प्रतिबंध लगा दिया जाता है तो बैंकों इस अवधि में 33,500 करोड़ रुपये का ब्याज़ छोड़ चुके होंगे।''

आरबीआई ने कहा, ''चूंकि कर्ज़ पर ब्याज़ की छूट 6 महीनों के लिए होगी, तो बैंकों द्वारा अपनी छोड़ दी गई कुल आय करीब दो लाख करोड़ पहुंच जाएगी। यह जी़डीपी के करीब़ एक फ़ीसदी के बराबर है। यह भी सिर्फ़ बैंकों की ही बात है, इसमें NBFCs और दूसरे वित्तीय संस्थान शामिल नही हैं।'' आरबीआई के मुताबिक़ अगर बैंकों ने अपनी इस आय को छोड़ दिया तो इसके बैंकिंग व्यवस्था के स्थायित्व पर बहुत बुरे प्रभाव पड़ेंगे।

आरबीआई ने कहा कि उसका मैंडेट जमाकर्ताओं के ब्याज़ की सुरक्षा, वित्तीय स्थायित्व का प्रबंधन और बैंकों की वित्तीय हालत अच्छी होने की बात सुनिश्चित करने और मुनाफ़े के बारे में बात करता है।

कबूतरों के बीच बिल्ली

कथित राहत पैकेज बैंकिंग समुदाय के लोगों के लिए वैसा ही है, जैसे कबूतरों के बीच में बिल्ली बैठा दी गई हो। चूंकि जिस भी लेनदार के लिए आपात क्रेडिट लाइन योजना में अतिरिक्त क्रेडिट का प्रावधान हुआ है, उसके लिए प्रक्रियागत् तौर पर अलग लोन अकाउंट खोलना होगा। इससे बैंकों में अपने कोटे को पूरा करने की भागदौड़ मचेगी और जिन कंपनियों को कर्ज़ की जरूरत है, उनके बजाए दूसरी कंपनियों को लाभ मिलेगा।

इस नई योजना में एक और दिक्क़त है। इसमें SMA-0 और SMA-1 खातों को तो आपात कर्ज़ की सुविधा दे दी गई है। लेकिन SMA-2 (जिनका भुगतान 60 से 90 दिनों की बीच लंबित पड़ा है) और NPA खाते इसके लिए अक्षम हैं। खातों की स्थिति दर्ज करने के लिए अंतिम तारीख़ 29 फरवरी, 2020 रखी गई है। इसका मतलब यह हुआ कि 29 फरवरी, 2020 को जिन लेनदारों का खाता SMA-0 और SMA-1 में वर्गीकृत था, वे इमरजेंसी क्रेडिट लेने के लिए सक्षम हैं।

कहा जा सकता है कि चूंकि योजना की घोषणा 13 मई को हुई थी, इसे 26 मई को नोटिफाई किया गया, तो 31 मार्च को खातों का दर्जा तय करने की अंतिम तारीख़ रखी जा सकती थी। क्योंकि कोई भी 29 फरवरी का SMA-0 खाता, 31 मार्च तक SMA-2 बन सकता है और 29 फरवरी का SMA-1 खाता, 31 मार्त तक NPA भी बन सकता है। बैंकों को NPA खातों को नया कर्ज़ नहीं देना चाहिए। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अब यह बैंक झंझावात में हैं, क्योंकि नई योजना के प्रावधानों के चलते उन्हें पुराने कानूनों को नजरंदाज करना पड़ेगा।

हिंदुस्तान टाइम्स में 10 जून को छपी एक रिपोर्ट के मुताबिकसार्वजनिक क्षेत्र के बैंक 10 जून तक 12 राज्यों में 1,109 करोड़ रुपये के लोन ही MSMEs को दे पाए थे। DFS के आंकडों के मुताबिक़, इसमें से 599 करोड़ रुपये 17,904 खातों में पहुंचा दिए गए हैं। रिपोर्ट में बताया गया कि मांग में कमी होने के चलते आवंटन और भुगतान कम रहे हैं।

नए सुधार को चिंता का बड़ा कारण

एक ऐसे वक़्त में जब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक वैसे ही तनाव में हैं, उन पर इस तरह की विरोधाभासी और शंकाओं से भरी आपात क्रेडिट योजना का भार थोप दिया गया है। बढ़ती अनिश्चित्ता के दौर में बैंकों ने उद्योग मंत्रालय का रुख किया है। बैंकों ने मंत्रालय से 40 बढ़े दिवालिया मामलों में कार्रवाई तेज करवाने को कहा है। इन मामलो में बैंकरप्टसी कोर्ट द्वारा इंसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्टसी कोड के तहत मामले लंबित पड़े हैं।

भारत में बैंकिग क्षेत्र की परेशानियां हाल के सालों में बढ़ती जा रही हैं। NPAs लगातार बढ़ते जा रहे हैं, यस बैंक, पंजाब बैंक और महाराष्ट्र कोऑपरेटिव बैंकों जैसे कई बैंकिंग घोटाले सामने आ रहे हैं। इन मुश्किलों की वजह भारतीय अर्थव्यवस्था की ढांचागत दिक्क़तें हैं, लेकिन जिस तरह की लक्षित कर्ज को MSMEs तक पहुंचाने को बैंको को कहा गया है, उससे स्थितियां और खराब ही होंगी। यह पहले से ही तनाव में चल रहे सार्वजनिक बैंकों पर अतिरिक्त भार है। MSME सेक्टर में NPA का भार 12.5 फ़ीसदी है, यह निश्चित ही भविष्य में और ऊपर जाएगा।

23 मई को बैंकर्स के साथ एक मीटिंग में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने बैंकों से अहर्ता प्राप्त लेनदारों को CBI, CVC या CAG के बिना डर के कर्ज देने को कहा।

बैंकिंग नियमों के हिसाब से इसका क्या मतलब होगा, यह तो भविष्य ही बताएगा। क्या वित्तमंत्रालय आरबीआई के अधिकारों को हड़प लेगा? क्या बैंकर्स को CBI, CVC और CAG का कोई डर नहीं होगा? जब चीजें गलत होंगी तो अनुशासनात्मक और सजा देने वाली संस्था कौन होगी? शायद वक़्त ही इन सवालों के जवाब दे पाएगा।

लेखक CAIIB (सर्टिफाइड एसोसिएट ऑफ द इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ बैंकिंग एंड फायनेंस) हैं, उनके पास निजी क्षेत्र और एक सार्वजनिक बैंक में 37 साल तक काम करने का अनुभव है। वे ऑल इंडिया बैंक ऑफिर्स कंफेडरेशन के अखिल भारतीय डेप्यूटी जनरल सेक्रेटरी हैं।

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

The Great MSME Stimulus Muddle

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