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भयावह महामारी के संकट में एक लापता सरकार

मोदी सरकार के दौरान बड़े पैमाने पर हुए निजीकरण ने व्यवस्थित ढंग से भयानक विफलता को जन्म दिया है, खास तौर पर स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित हुआ है और भारत दुनिया में हंसी का पात्र बन गया है।
मोदी

8 मई को, मुझे दिल्ली में तैनात मेरे प्रदेश (हिमाचल प्रदेश) के कैडर, आईएएस अधिकारी का फोन आया। फोन मुख्यत: वर्तमान महामारी के कारण एक-दूसरे की भलाई जानने के लिए था। बातचीत में उस व्यक्ति ने जो बातें बताई वे देश में व्याप्त अत्यंत अनिश्चित के माहौल की तरफ इशारा करती है। अधिकारी ने कहा कि मेरे इतने ऊंचे पद पर होने के बावजूद, मुझे अपने एक सहयोगी (आईएएस अधिकारी) के माता-पिता के लिए ऑक्सीजन-बेड का इंतजाम करवाने में बड़ी कठिनाई हुई क्योंकि वे कोविड-19 से संक्रमित थे। मैं जानता हूं कि दिल्ली और उसके आसपास इस तरह के हालात होना कोई असामान्य बात नहीं है।

एक अन्य कहानी 

यह कहानी एक दूसरे मित्र को मिले आघात से संबंधित है। वह सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम में वरिष्ठ अधिकारी हैं, लेकिन वह अपने बॉस के शव के अंतिम संस्कार के लिए नोएडा में श्मशान घाट का इंतजाम नहीं करा सका। उन्हे कुल 55,000 रूपए का भुगतान करना पड़ा जिसमें से शव वाहन के लिए 35,000 रुपये अदा किए गए, क्योंकि जिस अस्पताल में उसकी मृत्यु हुई थी वहाँ मोर्चरी नहीं थी – और शवदाह की तथाकथित प्रथा को पूरा करने के लिए 20,000 रुपये का शुल्क दिया गया। यह तब है जबकि अखिलेश यादव की पिछली सरकार ने उत्तर प्रदेश में एक कानून पारित किया था कि दाह संस्कार के लिए किसी भी किस्म का शुल्क नहीं लिया जाएगा।

अगर देश में 'विशेषाधिकार प्राप्त' तबकों की यह दुर्दशा है, तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आम लोगों की स्थिति क्या होगी?

देश भर से भयानक कहानियाँ आ रही हैं, जहाँ ऑक्सीजन, बेड और यहाँ तक कि श्मशान और कब्रिस्तान में बुकिंग के लिए घबराहट भरे फोन किए जा रहे हैं। भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र में सेवाओं का वस्तुकरण लंबे समय से हो रहा है। लेकिन, नरेंद्र मोदी के दौर में, पूंजी के संचय के उद्देश्य से सेवाओं के निजीकरण को उग्र रूप से लागू किया गया। शिक्षा और स्वास्थ्य ऐसे बड़े क्षेत्र हैं जहां लोगों को लूटने से भारी पूंजी उत्पन्न होती है। बड़े और निजी खिलाड़ियों ने स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने के क्षेत्र में प्रवेश किया, और बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की आड़ में, लोगों को पागल बनाया जा रहा है और उनसे भारी मात्रा में मुनाफ़ा कमाया जा रहा है।

भारतीय जनता पार्टी, और इसकी संरक्षक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या आरएसएस, और खुद मोदी सामाजिक विकास के क्षेत्र में ’हुकूमत के हस्तक्षेप’ के प्रति अपने मजबूत विरोध के लिए जाने जाते हैं। 2014 में मोदी को मिले मजबूत राजनीतिक जनादेश ने इसे अधिक आक्रामक तरीके से लागू करने में मदद की है। मुझे याद है कि नवंबर 2014 में 'अर्बन एज़ कॉन्फ्रेंस' में मुझे वित्त मंत्रालय के प्रधान आर्थिक सलाहकार, संजीव सान्याल से मिलने का मौका मिला था। किसी भी किस्म के हुकूमत के हस्तक्षेप पर उनके बेबाक विचार चर्चा में काफी स्पष्ट थे, क्योंकि वे खुले तौर पर मुक्त बाजार के सिद्धांतों का समर्थन बड़ी नंगई के साथ कर रहे थे, स्वास्थ्य सहित अधिकांश सामाजिक क्षेत्र में भी उनके ऐसे ही विचार थे। कोई भी अंदाज़ा लगा सकता है कि यह सरकार किस तरफ जा रही है। इसलिए, यह केवल भाजपा और मोदी की वैचारिक नींव नहीं है, बल्कि पूरी टीम है जिसने पहले से ही पंगु सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र और उसके संस्थानों को व्यवस्थित रूप से नष्ट कर दिया है, न केवल बड़े पैमाने पर निजीकरण के लिए रास्ता तैयार किया है, बल्कि स्वास्थ्य के वस्तुकरण का रास्ता भी साफ किया है। लेकिन वर्तमान हालात में यह कैसे महत्वपूर्ण है?

जारी इस महामारी संकट के में, निजी क्षेत्र चुनौतियों का सामना करने में लगभग गायब हैं,  जबकि महामारी से पहले, लगभग 80 प्रतिशत बाहरी रोगियों और लगभग 60 प्रतिशत इनडोर रोगियों को निजी क्षेत्र की तरफ धकेल दिया जाता था।

निजी क्षेत्र में 1990 के बाद तेजी से वृद्धि हुई है, और उसने स्वास्थ्य से अतिरिक्त लाभ कमाने के उद्देश्य से स्वास्थ्य सेवा को वस्तु बनाकर पेश किया है। यह लेख इस बात का कतई इरादा नहीं रखता है कि कैसे स्वास्थ्य सेवा में सार्वजनिक क्षेत्र को व्यवस्थित ढंग से नष्ट किया गया है, बल्कि इस बात की ओर  इशारा करता है कि कैसे स्वास्थ्य को 'सार्वजनिक भलाई' के तहत लाने और इसका राष्ट्रीयकरण करने की आवाजें उठ रही हैं। यह निजी क्षेत्र की वर्तमान महामारी की चुनौतियों का सामना करने में पूर्ण विफलता को दर्शाता है। लेकिन यह लेख इस पर भी केंद्रित है कि कैसे मोदी और उसकी नौकरशाही ने हमारे सिस्टम को खतरे में डाल दिया है। व्यवस्थित विफलता ने वर्तमान महामारी के सबसे खराब स्वरुपों को प्रदर्शित किया है। एक प्रश्न अक्सर पूछा जाता है: की इस भयानक दौर में हुकूमत कहां है? फिर ऐसी हुकूमत किस काम की अगर वह लोगों के जीवन की रक्षा नहीं कर सकती है?

आइए हम फिर से पिछले साल के चार घंटे के नोटिस पर किए गए लॉकडाउन के परिदृश्य पर  गौर करते हैं, जिसकी घोषणा किसी और ने नहीं बल्कि 'सूप्रीम लीडर', मोदी ने खुद की थी।  प्रवासी मजदूरों को घर वापस लौटने के लिए लंबी यात्रा की कहानियां आज भी हमें सताती हैं। लेकिन जिस बिंदु पर जोर देने की खास जरूरत है वह यह कि कुछ देशों द्वारा अंतरराष्ट्रीय वित्त पूंजी के सामने झुकने के बावजूद, उन्होंने अपने लोगों को नकद हस्तांतरण कर बड़े पैमाने पर राहत प्रदान की, उनके किराए माफ किए गए, और यह भी सुनिश्चित किया कि किरायेदारों  को घर से न निकाला जाए। लेकिन, भारत में, आईएमएफ के सुझाव के बावजूद कि उसे ऐसे वक़्त में राजकोषीय घाटे के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए, मोदी सरकार ने जनता को दुनिया में सबसे कम सहायता प्रदान की। 

भारत में काम कर रहे एक इंटेरनेशनल सिविल सोसाइटी समूह एक्शन एड ने प्रवासी श्रमिकों पर एक शोध किया है, जिसमें बताया गया कि सभी प्रवासी मजदूरों के सर्वेक्षणों में, जिसका  डेटाबेस 10,000 से अधिक श्रमिकों का है, उसमें से 89 प्रतिशत श्रमिकों को सरकार से कोई राहत नहीं मिली है। केवल 10 प्रतिशत से थोड़े अधिक को कुछ लाभ मिला है। शेष को या तो सिविल सोसाइटी समूहों, ट्रेड यूनियनों, व्यक्तियों या अन्य सामाजिक समूहों ने राहत प्रदान की है। दिलचस्प बात यह है कि भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दाखिल किया है, जिसमें कहा गया कि देश में चल रहे कुल राहत शिविरों में से अकेले केरल में 65 प्रतिशत शिविर हैं। 

'हुकूमत', बीजेपी और आरएसएस की शब्दावली में एक बुरा शब्द है और इससे भी बुरा 'हुकूमत का हस्तक्षेप करना' है। वे इसे नेहरूवादी अर्थशास्त्र मानते हैं और सामाजिक क्षेत्र में ऐसी नीतियों के खिलाफ हैं। यही कारण है कि केंद्र में भाजपा के सात साल के शासन में भारत अब गहरी  खाई में गिरता नज़र आ रहा है।

 "न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन," मोदी सरकार का तथाकथित मंत्र था। 2019 में एक समाचार चैनल को दिए एक साक्षात्कार में इस बारे में बताते हुए, मोदी ने कहा था: कि "अब तक, उन्होने केवल एक घंटे में लगभग 12 लाख करोड़ रुपये की परियोजनाओं को मंजूरी दी है..... उन्होने कहा कि वे मानते हैं कि एक होटल चलाने की ज़िम्मेदारी सरकार की नहीं है, आपने देखा होगा कि हम धीरे-धीरे विनिवेश कर रहे हैं।"

मोदी ने होटल नहीं चलाने से लेकर अस्पताल न चलाने और यहां तक कि पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था को निजी हाथों में देने का अपना मंत्र दोहराया। और, इसलिए, उन्होंने सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के सार्वभौमिकरण और सुदृढ़ीकरण के बजाय बीमा-आधारित स्वास्थ्य प्रणालियों पर अधिक भरोसा किया। आज हम जो देख रहे हैं वे कम से कम शासन और सरकार की जिम्मेदारियों का पूर्ण त्याग कर चुके है।

मोदी, किसी भी अन्य निरंकुश और सत्तावादी शासक की तरह, लोगों को राहत प्रदान करने में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करने के बजाय, दिल्ली में सेंट्रल विस्टा के निर्माण के लिए अधिक चिंतित नज़र आते हैं। जब "रोम जल रहा था तो नीरो सारंगी बजा रहा था", शायद मोदी के लिए ये कहावत पुरानी है। उन्होंने इसे इस रूप में आगे बढ़ाया है: जब "भारत जल रहा है और दफन हो रहा है तब मोदी अपने महल और एक नई संसद भवन के लिए, दिल्ली में सेंट्रल विस्टा के निर्माण में व्यस्त है।" महामारी से निपटने में पूरी तरह से नाकाम रहने के मामले में मोदी की लगभग पूरी दुनिया में आलोचना किए जाने के बावजूद, वह एक बेकार परियोजना पर पैसे की बर्बादी के लिए तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। इससे भी अधिक शर्मनाक बात ये है, कि उन्होंने इसे "आपातकालीन परियोजना" घोषित कर दिया है, शायद देश में स्वास्थ्य आपातकाल से भी ज्यादा, जो देश में टीके बनाने और पीड़ित नागरिकों को ऑक्सीजन प्रदान करने से भी ज्यादा आपातकालीन योजना है।

जबकि सभी चालू परियोजनाओं को रोक दिया गया है, लेकिन सेंट्रल-विस्टा का काम जारी है, जो रोजाना काम पर जाने वाले सैकड़ों श्रमिकों के जीवन को जोखिम में डालती है जिन्हे सराए काले खां के मजदूर शिविरों से काम की साइट पर काम करने के लिए मजबूर किया जा रहा है ताकि वे कार्यस्थल से भाग न सकें उनके वेतन भी नहीं दिए जा रहे हैं और सबसे बढ़कर, उन्हें भयंकर महामारी के कारण अत्यधिक जोखिम में डाला जा रहा है। 

मेरे नौकरशाह मित्रों के फोन पर वापस आते हुए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जिस युग में हम रह रहे हैं वह असाधारण मंथन और ताकतों के पुनर्गठन की मांग करता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि लोग स्वतंत्रता, बंधुत्व और आज़ादी से जीवन जी सके,  न कि 'हुक्मरान' की दादागिरी के रूप में। हुकूमत जो किसी भी समय में ढह सकती है, जैसा कि कार्ल मार्क्स ने कहा हैं, जब समाज में उच्च जागरूकता आती है तो वह केवल बड़े कॉरपोरेट्स के हितों की सेवा और आम लोगों को शोषण की अनुमति नहीं दे सकती है।

लेखक, हिमाचल प्रदेश के शिमला के पूर्व डिप्टी मेयर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।  

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