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आज के समय में क्या युद्ध को लेकर नैतिक प्रतिक्रिया संभव है ?

युद्ध का नहीं होने का मतलब यह नहीं कि शांति है।अगर ऐसा होता,तो पैक्स रोमाना या पैक्स ब्रिटानिया जैसे साम्राज्य के क़दमों तले पराजित या अपमान पर आधारित किसी विजेता की शांति आदर्श होती।
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रूस-यूक्रेन संघर्ष ने युद्ध को लेकर प्रतिस्पर्धी अवधारणाओं को जन्म दिया है। विडंबना ही है कि युद्ध पैदा करने वाले देश इस संघर्ष को ख़त्म किये जाने की मांग कर रहे हैं, लेकिन फिर भी शांति की बात नहीं हो रही है।

युद्ध मौत और तबाही के ज़रिये अपने लक्ष्यों को हासिल करता है। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि इससे मज़बूत नैतिक प्रतिक्रियायें मिलती हैं। पौराणिक कथाओं में भी अर्जुन कृष्ण से पूछते हैं कि क्या महाभारत युद्ध की पूर्व संध्या पर कोई युद्ध लड़ने लायक बचा भी है। इस समय पूर्वी यूक्रेन के डोनबास इलाक़े में विनाशकारी युद्ध जारी है। यूक्रेनी अधिकारियों की रिपोर्टों के मुताबिक़, भारी रूसी तोपखाने और रॉकेट हमले में प्रतिदिन एक हज़ार यूक्रेनी सैनिक मारे जा रहे हैं और घायल हो रहे हैं। कई सैनिक तो इस हालत को धरती पर नर्क क़रार देते हैं। इस स्थिति में नैतिकता की यह मांग एकदम सही लगती है कि हमलावर की निंदा की जाए और अपने देश की रक्षा करने वालों का समर्थन किया जाए। हालांकि, यह अहम बात नहीं है कि दुनिया भर से किस तरह की प्रतिक्रिया आ रही है। अहम बात यह है कि इस युद्ध की प्रतिक्रिया विरोधाभासों में घिरी हुई है।

दक्षिणी गोलार्ध के देश, लैटिन अमेरिका, अफ़्रीका और एशिया के कई देशों, जहां दुनिया की ज़्यादार आबादी रहती है, उन्होंने रूसी आक्रमण की निंदा करने से परहेज़ किया है। कुल मिलाकर रूस की निंदा जी-7 के उन्नत पूंजीवादी देशों और ज़्यादतर उन यूरोपीय देशों तक ही सीमित रही है, जो नाटो के सदस्य हैं। हथियारों और प्रशिक्षण के साथ यूक्रेन की मदद कर रहे ये देश यूगोस्लाविया, अफ़ग़ानिस्तान, इराक़, लीबिया और सीरिया में पिछले तीस सालों के ज़्यादतर हमलों और बम विस्फोटों में भी शामिल थे। ऐसे में युद्ध की इस नैतिक अस्वीकृति से प्रेरित रूसी हमले की उनकी निंदा को स्वीकार कर पाना मुश्किल है।

नैतिक रूप से युद्ध पर सवाल उठाने के अलावा वास्तविकता तो यही है कि सभ्यता की शुरुआत से ही युद्ध शक्तिशाली राज्यों का नीतिगत साधन रहा है। जो देश जितना ही शक्तिशाली होता है, उतना ही वह युद्ध की तैयारी पर ख़र्च करता है। आज संयुक्त राज्य अमेरिका के आसपास केंद्रित G7 के देशों के साथ-साथ ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया जैसे देश हथियारों और गोला-बारूद पर दुनिया में होने वाले ख़र्च का 56% ख़र्च करते हैं, लेकिन यहां दुनिया की कुल आबादी का महज़ 12% हिस्सा ही रहता है। 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद जब से संयुक्त राज्य अमेरिका ने दुनिया पर एकध्रुवीय प्रभुत्व हासिल कर लिया है, तबसे शायद ही ऐसा समय रहा हो, जब अमेरिका और उसके नाटो दल युद्धरत नहीं हों या एक देश या दूसरे देश के ख़िलाफ़ गुप्त अभियानों में नहीं लगे हों। दरअस्ल ये युद्ध आज के साम्राज्यवाद की राजनीतिक और आर्थिक हितों की रक्षा के लिए छेड़े गये हैं। संप्रभु राष्ट्र-राज्य राजनीतिक-आर्थिक संस्थानों का दूसरा समूह हैं, जिनके बीच युद्ध को वैध माना जाता है। अपने संसाधनों, महत्वाकांक्षाओं और कथित ख़तरों के आधार पर सभी आधुनिक राष्ट्र-राज्यों के पास विस्तृत सुरक्षा तंत्र हैं और ये राष्ट्र-राज्य युद्ध को राज्य की नीति का एक ज़रूरी तत्व मानते हैं।

एक राज्य नीति के साधन के तौर पर युद्ध की हर जगह मौजूदगी का मतलब यही है कि राज्य किसी भी युद्ध पर अपनी प्रतिक्रियायें ज़रूर देते हैं।उन युद्धों में भी वे शामिल हो जाते हैं, जिनमें वे भागीदार तक नहीं होते,लेकिन इसके पीछे लाभ पाने वाले नीति विकल्पों का एक हिसाब-किताब होता है। ऐसे में जैसा कि कुछ उदार टिप्पणीकारों की मांग है कि नैतिक प्रतिक्रिया दी जाये,इस तरह की उम्मीद करना सही मायने में एक इच्छा पाल लेने भर जैसा है। G7 और NATO देशों ने रूसी हमले का ज़ोरदार जवाब इसलिए दिया था, क्योंकि वे युद्ध से पहले यूक्रेन सरकार की रूसी-विरोधी कार्रवाइयों में सीधे तौर पर शामिल थे और सार्वजनिक रूप से यूक्रेन की सुरक्षा के लिए अपनी प्रतिबद्धता पर ज़ोर देते थे। इसके अलावा, वे रूसी हमले को अपने साम्राज्यवादी विश्व वर्चस्व के लिए एक सीधी-सीधी चुनौती के रूप में देखते हैं। कई अन्य देशों की सरकारें वैश्विक कमोडिटी बाज़ारों में रूस की केंद्रीय भूमिका और उनमें से कई के साथ लंबे समय से चले आ रहे रक्षा सम्बन्धों के चलते रूस के ख़िलाफ़ खुला रुख़ अपनाने से परहेज़ कर रही हैं। ये देश आर्थिक और भू-राजनीतिक तौर पर एक नयी शुरुआत की भी तलाश कर रहे हैं, उनकी यह तलाश इस युद्ध से पूरी हो सकती है।

युद्ध और जन-राजनीति

युद्ध को लेकर अगर किसी देश की दी जाने वाली प्रतिक्रिया अनिवार्य रूप से नैतिकता के लिहाज़ से तटस्थ है, तो सवाल उठता है कि ऐसे में आम लोगों की राजनीति और लोकप्रिय विचारधारा को लेकर क्या कहा जाए ? इस तरह की राजनीति और विचारधार युद्ध के प्रति नैतिक प्रतिक्रिया विकसित करने के लिहाज़ से बेहद वाजिब दिखायी देते हैं। सवाल है कि आख़िरकार क्या हम सभी अपने आस-पास घट रही घटनाओं को देखते हुए नैतिक नहीं होना चाहते ? यह जितना कहना आसान है,उतना करना आसान नहीं है। हमारे समय के युद्ध राष्ट्र-राज्यों के बीच और राष्ट्र-राज्यों और साम्राज्यवाद के बीच के संघर्षों की घनीभूत अभिव्यक्ति हैं। ये संघर्ष कई स्तरों पर कई आयामों में होते हैं। ऐसा कोई भी नैतिक रुख़, जो इन संघर्षों की वस्तुनिष्ठ जटिलता को ध्यान में नहीं रखता, उसके अनियंत्रित रूप से एकतरफ़ा हो जाने का जोखिम रहता है।

दो ऐसे कारक हैं,जो युद्ध की ओर ले जाने वाले संघर्षों और प्रवृत्तियों के एक वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन को जटिल बना देते हैं। पहला कारक है-युद्ध करने वाली संस्थायें, यानी कि साम्राज्यवाद और राष्ट्र-राज्य भी युद्ध की उन विचारधाराओं का दुष्प्रचार करते हैं, जो अपने लड़े जा रहे युद्धों को सही ठहराने की कोशिश करते हैं। ये तमाम देश एक ऐसी नैतिक अवधारणा बनाते हैं,जिसमें 'हम' अच्छे हैं और ‘दूसरे’ को बुरा ठहराते हैं। इस तरह के वैचारिक निर्माणों का सामना किए बिना और उन्हें ख़ारिज किये बिना युद्ध के लिए नैतिक रूप से सुसंगत प्रतिक्रिया दे पाना असंभव है। दूसरी कठिनाई ज़्यादा जानी-पहचानी है और वह हमारे सबसे आम नैतिक निर्णयों के बहिष्कार किये जाने वाले तौर-तरीक़ों से पैदा होती है, जो हमारे आसपास की दुनिया के कुछ हिस्सों को अच्छे बनाम बुरे के दोहरे ढांचे में डाल देती है।

कोई भी जटिल वास्तविकता इस तरह की दोहरे ढांचे के निर्माण का विरोध करती है। अर्जुन को एक नैतिक दुविधा का सामना इसलिए करना पड़ता है, क्योंकि वह जानता है कि कुरु राज्य का अपना वाजिब हिस्सा पाने के लिए भी उसे युद्ध लड़ना होगा, जबकि वह यह भी देख सकता है कि वह अपने रिश्तेदारों की मौत और तबाही के ज़रिये ही उस लक्ष्य को हासिल कर सकता है। एक साधारण ‘हां’ या ‘ना’ में फंसे उसकी युद्ध की दुविधा का समाधान नहीं हो सकता। उसे यह महसूस करने की ज़रूरत होती है कि वह जिस आंतरिक युद्ध का सामना करने जा रहा है,उसका स्रोत कबीले-आधारित राजत्व की परंपरा में है। यह परंपरा वही बताती है, जो उसे सही लगती है। उसकी दुविधा तब तक बनी रहेगी, जब तक कि उसे उस परंपरा या संस्था से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं मिल जाता।

साम्राज्यवाद और राष्ट्र राज्यों के युद्धों के बीच का अंतर

हमारे समय में युद्ध की प्रकृति महाभारत में वर्णित दो सेनाओं के बीच सीधे आमने-सामने के मुक़ाबले से कहीं ज़्यादा जटिल है। एक महत्वपूर्ण सचाई यह भी है कि विभिन्न राष्ट्र-राज्यों की युद्ध-क्षमताओं के साथ-साथ उनके और साम्राज्यवादी ब्लॉक के बीच की युद्ध क्षमताओं में बहुत बड़ा फ़ासला है। भारत और पाकिस्तान के बीच की तरह युद्धरत पक्षों के बीच विषमता व्यापक नहीं हो, तो कमज़ोर पक्ष तब भी अपनी कुछ चाल बचाकर रखता है,ताकि समय पर उसका इस्तेमाल कर सके,यह बात मज़बूत पक्ष के लिए उपलब्ध विकल्पों को सीमित कर देती है, जिससे युद्ध की संभावना कम हो जाती है। साम्राज्यवादी हमले के शिकार देशों के पास सैन्य रूप से जवाब देने का कोई व्यावहारिक साधन नहीं है। इसलिए, साम्राज्यवादियों को इस तरह के युद्धों का अभियान चलाने में पूरी आज़ादी हासिल है। उनके लिए तो युद्ध एक कम लागत वाला ऐसा मामला है, जिसकी तलाश में वे अक्सर सक्रिय रहते हैं।

युद्ध की इस प्रकृति में इस अंतर का एक अहम वैचारिक पूरक होता है। युद्ध में राष्ट्र अपनी कार्रवाइयों को इस तरह तैयार करते हैं,जैसे कि मुख्य रूप से दूसरे पक्ष से होने वाले कथित ख़तरों के सिलसिले में या कुछ पहले से मौजूद "ग़लत" को दुरुस्त करने के लिए ऐसा करना ज़रूरी हों। यानी कि इस तरह के युद्ध विशिष्ट हितों के लिहाज़ से मानों वाजिब हों। साम्राज्यवाद के शिकार देशों से साम्राज्यवादी देशों को कोई सैन्य ख़तरा नहीं है।  साम्राज्यवादी देशों की यह आक्रामकता उन सार्वभौमिक मूल्यों के हिसाब से उचित दिखती है, जिसमें कि निस्संदेह व्यापक असर होता है। पिछले तीन दशकों में मानवाधिकारों और लोकतंत्र की हिफ़ाज़त और क्षेत्रीय शांति के लिए ख़तरों को इन साम्राज्यवादी हमलों के औचित्य को सही ठहराने का आधार बनाया गया है।

राष्ट्र-राज्यों के विशिष्ट हितों और साम्राज्यवाद के सार्वभौमिक दावों के बीच का यह अंतर ताइवान पर हाल ही में हुई गहमागहमी में सबसे स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। संयुक्त राज्य अमेरिका ताइवान के अपने सैन्य समर्थन को एक विशाल और सत्तावादी पड़ोसी से एक छोटे लोकतांत्रिक देश की रक्षा के रूप में उचित ठहरा रहा है। चीन ताइवान को फिर से अपने राष्ट्रीय एकीकरण को पूरा करने वाले एक विशिष्ट मुद्दे के रूप में देखता है, प्रतिक्रियावादी चियांग काई-शेक संयुक्त राज्य के सैन्य छतरी के संरक्षण में अपना शासन स्थापित करने के लिए मुख्य भूमि पर कम्युनिस्टों की ओर से हराये जाने के बाद चीन के गृहयुद्ध से बचे हुए इस हिस्से,यानी ताइवान चला गया था।

शांति काल में हाइब्रिड युद्ध

एक अन्य प्रासंगिक कारक, जो आज के युद्ध लड़ने वालों के लिए उपलब्ध है,वह है- युद्ध के साधनों की विविधता। विजय प्रसाद जिसे हाइब्रिड युद्ध कहते हैं,उसमें मीडिया आधारित सूचना युद्ध, आर्थिक ज़ोर-ज़बरदस्ती और प्रतिबंध, तीसरे पक्ष की तरफ़ से लड़ा जा रहा छद्म युद्ध, विद्रोही समूहों का वित्तपोषण और प्रशिक्षण, और सैन्य तख़्तापलट जैसे विविध कारक शामिल हैं। जबकि दूसरे रूपों में यह स्पष्ट शत्रुतापूर्ण मंशा और कार्रवाई होती है, आर्थिक प्रतिबंधों को अक्सर आक्रामकता के खुली कार्रवाई के बजाय निवारक उपाय के तौर पर देखा जाता है।

यह हैरत की बात है, क्योंकि पहले विश्व युद्ध में पहली बार मध्य यूरोपीय और मध्य पूर्वी शक्तियों के ख़िलाफ़ एक हथियार के रूप में आर्थिक प्रतिबंधों या अवरोधों का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया गया था। इस युद्ध की भयावहता किस तरह की  थी,इसकी कहानी भूख और बीमारी से सैकड़ों हज़ारों नागरिकों की हुई मौत बताती है। जैसा कि निकोलस मुल्डर ने अपनी क्लासिक किताब, ‘द इकोनॉमिक वेपन: द राइज़ ऑफ़ सेंक्शन्स ए टूल ऑफ़ मॉडर्न वॉर’ में बताया है कि पहले विश्व युद्ध के बाद आर्थिक प्रतिबंधों को लेकर अपनाये जा रहे नज़रिये में गुणात्मक बदलाव आया। इसके बाद लीग ऑफ़ नेशंस के शपथ पत्र के अनुच्छेद 16 के ज़रिये विजेताओं ने इन प्रतिबंधों को शांतिकाल के लिए ज़ोर-ज़बरदस्ती के उपाय में बदल दिया। मूल्डर इस बदलाव को 20वीं सदी के उदार अंतर्राष्ट्रीयवाद की सबसे स्थायी विरासत मानते हैं।

अब ये आर्थिक प्रतिबंध संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 41 के ज़रिये अंतर्राष्ट्रीय क़ानून का हिस्सा बन गये हैं, जिससे सुरक्षा परिषद से उन्हें युद्धरत पक्षों, समूहों या देशों पर चरम मामलों में लागू करने की अनुमति मिल जाती है। हालांकि, संयुक्त राष्ट्र ने इस क़ानूनी उपाय का बहुत कम इस्तेमाल किया है,वहीं संयुक्त राज्य अमेरिका की अगुवाई में साम्राज्यवादी ब्लॉक एकतरफ़ा प्रतिबंध लगाने में असाधारण रूप से सक्रिय रहा है। जो देश इन प्रतिबंधों के निशाने पर होते हैं,उन्हें गौण प्रतिबंधों के ज़रिये इन साम्राज्यवादी ब्लॉक के साथ व्यापार करने की अनुमति तो नहीं ही होती , वहीं अन्य देशों को भी निशाने पर लिए गये देशों के साथ व्यापार करने से रोका जाता है। इस तरह क्यूबा, ईरान और वेनेज़ुएला को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से रोक दिया गया है। सैकड़ों अरबों डॉलर की चल रही वेनेज़ुएला, ईरान, अफ़ग़ानिस्तान और रूस की विदेशी संपत्ति को एकतरफ़ा जब्त कर लिया गया है।

अन्य देशों को निशाने पर लिए गये किसी देश के साथ व्यापार नहीं करने के लिए मजबूर करके विदेशी संपत्ति को ज़ब्त करना और शांतिकाल में गतिरोध पैदा करना सही मायने में युद्ध के लिए उकसाने जैसा ही कार्य हैं। 21वीं सदी में इस तरह के तौर-तरीक़ों में होती बढ़ोत्तरी हमारे समय में युद्ध और शांति के बीच के जटिल सम्बन्धों को दर्शाती है।

युद्ध को लेकर 'नैतिक' प्रतिक्रिया के ख़तरे

मौजूदा युद्ध के संदर्भ और उसकी प्रकृति की जटिलतायें अक्सर उन प्रतिक्रियाओं की ओर ले जाती हैं, जो नैतिक प्रतीत तो होती हैं, लेकिन वास्तव में ये प्रतिक्रियायें उन्हीं प्रवृत्तियों का समर्थन करती हैं, जो युद्ध की ओर ले जाती हैं। युद्ध इसलिए होते हैं, क्योंकि कोई युद्ध में जाने का फ़ैसला करता है। भले ही यूक्रेन पर रूसी हमले की तरह आक्रामकता के साथ युद्ध शुरू करने के फ़ैसले की निंदा की जाए, लेकिन अगर दंडित किये जाने की इच्छा किसी की व्यवस्थागत प्रवृत्तियों की अनदेखी करती है, तो नतीजा शांति के लिए तर्क के बजाय युद्धों का एक भावुक बचाव बन जाता है। मौजूदा सिलसिले में साम्राज्यवादी ब्लॉक के कई प्रगतिशील देशों के साथ ऐसा ही हो रहा है, जो कि इसलिए हैरतअंगेज़ है, क्योंकि कई देशों ने हाल ही में साम्राज्यवादी हमलों के ख़िलाफ़ सैद्धांतिक रुख अपनाया है। संयुक्त राज्य अमेरिका में बर्नी सैंडर्स और प्रगतिशील कॉकस ने यूक्रेन के लिए हथियारों के वित्तपोषण के पक्ष में मतदान किया है। फ़्रांस में वामपंथी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जीन-ल्यूक मेलेनचॉन ने नाटो के साथ सुर में सुर मिला लिया है, और जर्मनी में भले ही डी लिंके (वामपंथी) ने बुंडेस्टाग में यूक्रेन को हथियार भेजने के ख़िलाफ़ मतदान कर दिया हो, लेकिन रोज़ा लक्ज़मबर्ग स्टिफ्टंग जैसे लॉबी समूह के नेता इस रूसी हमले को लेकर मानते हैं कि नाटो को "साम्राज्यवाद विरोधी रक्षात्मक गठबंधन" में बदल दिया है, स्वीडन और फ़िनलैंड रूस से होने वाले कथित ख़तरे की रौशनी में इसमें शामिल होने का फ़ैसला लिया है। वे यह मान सकने में नाकाम हैं कि रूस चाहे जो कुछ करे,लेकिन नाटो एक साम्राज्यवादी भू-राजनीतिक गठबंधन बना हुआ है। ऐसा लगता है कि इन देशों ने उस साम्राज्यवादी वैचारिक निर्माण को उधार ले लिया है,जिसमें रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को शैतान के अवतार के रूप में दिखाया जाता है और चल रहे युद्ध को आगे बढ़ाने की नाटो योजनाओं के साथ खड़े हैं। जेरेमी कॉर्बिन मुख्यधारा के पश्चिमी वामपंथ में एकमात्र ऐसे शख़्स हैं,जो सम्माननीय अपवाद हैं।उन्होंने नाटो की ओर से यूक्रेन को हथियार भेजने के ख़िलाफ़ दलील दी है और युद्धविराम के लिए राजनयिक प्रयासों पर ज़ोर दिया है।

इस युद्ध के वस्तुनिष्ठ संदर्भ को लेकर चयनात्मक रूप से भूलने की बीमारी उन लोगों में दिखायी देती है, जो यह तर्क देकर रूसी हमले की निंदा करते हैं कि नाटो ने रूस को युद्ध के लिए उकसाया था। वे यह ख़्याल रख पाने में नाकाम रहते हैं कि पुतिन के सरकारी पूंजीवाद वाले रूस में सैन्य विकल्पों को प्राथमिकता देने वाले सैन्यीकृत सुरक्षा तंत्र का प्रभुत्व है। यह व्यवस्था रूसियों और उनके पड़ोसियों के लिए ख़तरनाक़ है। इसमे कोई हैरत की बात नहीं कि कई देशों के दक्षिणपंथी लोकप्रिय समूह अपनी सरकारों की रूस विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ सामने आये हैं। बुंडेस्टाग में वामपंथियों के साथ मिलकर नव-फ़ासीवादी AfD ने यूक्रेन को हथियार भेजने के ख़िलाफ़ मतदान किया है। साम्राज्यवाद विरोधी प्रगतिवादी भी रूसी राज्य की सैन्यवादी प्रकृति की अनदेखी करते हैं। वे इस युद्ध को संयुक्त राज्य अमेरिका के आधिपत्य और एक उभरती हुई बहुध्रुवीय दुनिया की रौशनी में देखते हैं।

युद्ध को लेकर एक नैतिक प्रतिक्रिया के रूप में शांति

यह जिस तरह की शांति की वकालत करता है, वह युद्ध को लेकर किसी भी नैतिक प्रतिक्रिया के लिए एक लिटमस टेस्ट है। युद्ध का नहीं होने का मतलब यह नहीं कि शांति है।अगर ऐसा होता,तो पैक्स रोमाना या पैक्स ब्रिटानिया जैसे साम्राज्य के क़दमों तले पराजित या अपमान पर आधारित किसी विजेता की शांति आदर्श होती।

अगर आज युद्ध वैश्विक राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था की वस्तुपरक प्रवृत्तियों के कारण होते हैं, तो क्या स्थायी शांति सिर्फ़ वस्तुपरक कारकों से ही उभर सकती है। 19वीं और 20वीं शताब्दी के कामगारों का अंतर्राष्ट्रीयवाद एक राजनीतिक कार्रवाई कार्यक्रम ही था,जिसने अतिराष्ट्रवाद या अंधराष्ट्रवाद के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्गों की क्रांतिकारी राजनीति को वैश्विक स्तर पर शांति की कल्पना को राह दिखायी थी। पहले विश्व युद्ध के दौरान लेनिन और रोज़ा लक्जम़बर्ग की ओर से प्रस्तुत क्रांतिकारी पराजयवाद के सिद्धांत में कामगार अंतर्राष्ट्रीयता को सबसे स्पष्ट प्रतिनिधित्व दिया गया था। वे युद्ध को दुनिया पर औपनिवेशिक नियंत्रण के लिए लड़ाकू राष्ट्रों के प्रतिक्रियावादी शासक वर्गों की अगुवाई में क़त्लेआम के रूप में देखते थे। लेनिन के शब्दों में, इस तरह के युद्ध के दौरान "एक क्रांतिकारी वर्ग अपनी सरकार की हार के अलावे कुछ और ख़्वाहिश नहीं कर सकता।" इस नारे ने यह विचार देते हुए किसी भी युद्ध (किसी पक्ष की जीत के चलते किसी पक्ष की मिली हार) के लाभ-हानि शून्य हो जाने वाली दलील की धज्जियां उड़ा दी थी कि जब सभी देशों के सर्वहारा वर्ग इस नारे को अपना लेंगे, तो युद्ध हर जगह शासक वर्गों की तबाही बनकर रह जायेगा। इस नारे को रूस में पूरी कामयाबी मिली और जर्मनी और हंगरी में आंशिक सफलता मिली।

इस समय की दुनिया बीसवीं सदी की शुरुआत से काफ़ी कुछ अलग है। साम्राज्यवाद आंतरिक प्रतिद्वंद्विता से ही प्रभावित नहीं है, बल्कि संयुक्त राज्य अमेरिका के आधिपत्य मे एक ब्लॉक के रूप में मौजूद है। बाक़ी दुनिया पर मुख्य रूप से संप्रभु राष्ट्र-राज्यों का शासन है, जो निर्भरता के अलग-अलग सम्बन्धों को दर्शाते हैं और साम्राज्यवाद के लिए यही निर्भरता एक चुनौती है। इसके अलावा, मज़दूर वर्ग की राजनीति और उसका अंतर्राष्ट्रीयवाद हर जगह ध्वस्त हो चुके हैं। इसके बावजूद, चूंकि युद्ध के मुख्य स्रोत अब भी व्यवस्थित हैं, ऐसे में मौजूदा वैश्विक व्यवस्था को चुनौती देता एक मौलिक कार्यक्रम ही वास्तविक शांति की शुरूआत कर सकता है। लेनिन और लक्ज़मबर्ग ने अपने समय में जो कुछ किया था,वही आज के युद्धों को लेकर नैतिक प्रतिक्रिया का मूल होना चाहिए।

लेखक दिल्ली स्थित सेंट स्टीफ़ंस कॉलेज में भौतिकी पढ़ाते हैं। इनके विचार निजी हैं

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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