(ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से 'नोट-बंदी: डीमोनेटाईज़ेशन एंड इंडियाज एलुसिव चेज़ फॉर ब्लैक मनी' पर आने वाली पुस्तक है और उन “भारतीय नागरिकों को समर्पित है जिन्होंने नोटबंदी के दौरान अपनी जान गँवायी). पेश है आर. रामकुमार इस पुस्तक की प्रस्तावना के कुछ अंश.
‘नोटबंदी’- नोटों की कानूनी निविदा की वापसी के तहत 500 और 1000 रुपये के नोट वापस ले लिए गए- इस बाबत की गयी घोषणा जिसे कि भारत के प्रधानमंत्री ने टेलीविज़न के ज़रिए 8 नवम्बर को किया, यह घोषणा आज़ाद देश के इतिहास में एक प्रतिक्रियावादी और तर्कहीन आर्थिक नीति के रूप में लागू कदम माना जाएगा.
इसने एक ऐसी अर्थव्यवस्था को अपंग बना दिया जो नकदी पर चल रही थी और मंदी से ग्रस्त थी; इसने लाखों किसानों, मजदूरों, व्यापारियों, महिलाओं और बुजुर्गों की आजीविका को नष्ट कर दिया; और कानून-पालन करने वाले नागरिकों की गरिमा और स्वतंत्रता पहुँचाई.
यह सच्चाई है कि नोटबंदी ने भारत के जनमत को गहरे ध्रुवीकरण में बाँट दिया. राज्यसत्ता की भाषा में एक भ्रामक अपील थी. घृणित गरीबी और असमानता से ग्रस्त समाज में, जहाँ भ्रष्टाचार के असंख्य तौर-तरीकों से नागरिकों की रोज़मर्रा की जिंदगी प्रभावित होती है, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि वहाँ मोदी के इस अनिष्ट कार्य को एक निर्णायक उपाय के रूप में देखा गया.
मेरे जैसे अर्थशास्त्री 1978 में की गयी नोटबंदी के बारे में जानते हैं. लेकिन हम यह भी जानते हैं कि यह नोटबंदी काले धन के महत्त्वपूर्ण हिस्से का पर्दाफाश करने में नाकामयाब रही थी. हमें यह भी मालूम हैं कि राइट-विंग की विचारधाराओं से जुड़े नकली विचारकों ने अंध लेनदेन एवं टैक्स के साथ-साथ आर्थिक व्यवस्था और आयकर के प्रतिस्थापन जैसे उपायों की माँग की. लेकिन हमने इस फैसले को स्पष्ट रूप से प्रगतिविरोधी करार दे दिया था.
कभी किसी ने सोचा भी नहीं था कि इस तरह के तर्कहीन विचार को देश की अर्थव्यवस्था में कोई जगह मिलेगी. बेशक, नवउदार अर्थशास्त्र के कई पहलुओं का तार्किकता से कोई लेना देना नहीं . लेकिन 2016 की नोटबंदी ने सब तर्कों को पीछे छोड़ दिया.
राष्ट्र को संबोधित अपने भाषण में मोदी ने नोटबंदी के पक्ष में दो बड़े दावे किये: एक तरफ उन्होंने कहा कि यह उस नकली मुद्रा को जड़ से उखाड़ देगी जो आतंकवाद को मदद पहुँचा रही है; दुसरा यह कि सरकार को काले धन का पर्दाफाश करने में मदद पहुँचाएगी. संबोधन के तुरंत बाद से ही टेलीविज़न के वक्ताओं ने नकद रहित अर्थव्यवस्था के गीत गाने शुरु कर दिए.
पहला दावा यह रहा कि आतंकवाद के वित्तपोषण पर इसका प्रत्याशित रूप से असर पड़ेगा और इसे कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया, क्योंकि नकली मुद्रा की कुल संख्या 0.002 प्रतिशत ही चलन में थी. दूसरा, यह कि बहुत ज्यादा काले धन को जुटाने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी, क्योंकि ज्यादातर काले धन को गैर-नकदी संपत्तियों के रूप में, उसका लगभग 94 प्रतिशत गैर-नकदी संपत्ति में निवेश किया हुआ है. तीसरा, यह कि सिर्फ फरमानों के जरिए आप नकदहीन अर्थव्यवस्था नहीं बना सकते, क्योंकि नकदी का अर्थव्यवस्था में मौजूद रहना हमारे देश की अर्थव्यवस्था की संरचनात्मक विशेषता है.
भारत को जरूरत इस बात की है कि वह अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को एक आधुनिक और उत्पादक क्षेत्र में ढांचागत परिवर्तन करे, जो कि नकदी पर निर्भरता को व्यवस्थित रूप से कम कर देगा. 'नकदी पर युद्ध' इस प्रकार अप्रभावी और समय से पहले होगा यह सोच के बहार है. इस सम्बन्ध में चापलूसों को अगर दरकिनार कर दें, उपरोक्त विचारों को वामपंथी-दक्षिणपंथी के सभी अर्थशास्त्रियों ने भी साझा किया था.
भारतीय रिजर्व बैंक (आर.बी.आई.) की 2016-17 की वार्षिक रपट के मुताबिक़, नोटबंदी के बाद 500 व 1000 रूपए के नकदी नोटों का कुल मूल्य जिसे की बैंकों ने पकड़ा है, की कीमत 2015-16 में 27.4 से बढ़कर 2016-17 में 40.8 करोड़ हो गयी: केवल 14 करोड़ की बढ़ोतरी. नवम्बर 2016 में 500 एवं 1000 के के नोटों की मुद्रा जो प्रवाह में थी और जिसे 2016-17 में पकड़ा गया वह केवल कुल मुद्रा का 0.0027 प्रतिशत ही थी. आलोचक सही थे; कि जिस मात्रा में नकली नोट प्रवाह में थे वे नोटबंदी का कोई ठोस कारण नहीं हो सकते थे.
दुसरे, भारतीय रिजर्व बैंक (आर.बी.आई.) ने 10 नवंबर 2016 और 30 जून 2017 के बीच बैंकों में वापस पुराने नोटों के मूल्य का भी अनुमान जारी किया गया. 8 नवंबर 2016 तक जो 15.44 लाख करोड़ रुपये 500 रुपये और 1,000 रुपये के नोटों के रूप में बाज़ार में थे उनमें से करीब 15.28 लाख करोड़ रुपये बैंकों में वापस आ गए थे. दूसरे शब्दों में अगर कहें तो, 98.96 प्रतिशत प्रतिबंधित मुद्रा बैंकों में वापस आ गई और केवल 1.04 प्रतिशत ही बाहर रह गयी थी. इस तरह लगभग 99% नोटबंदी वाले नोटों की वापसी, इस तरह की मुर्खता की विफलता का सबसे महत्वपूर्ण संकेत है.
दिसंबर 2016 में, भारत के अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया था कि सरकार ने बैंकों में 12 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा वापस आने की उम्मीद कभे नहीं की थी. शेष 3 लाख करोड़ रुपये का काला धन, जो बैंकों को वापस नहीं लौट पाएगा उसे रिजर्व बैंक उसे “मृत” घोषित करने के बाद सरकार को लाभांश के रूप में दे देगा.
लेकिन यह उम्मीद भी टूट गयी. सरकार ने फिर दावा किया कि इस मौद्रिकरण का उद्देश्य औपचारिक बैंकिंग प्रणाली में पूरी नकदी को वापस लाने है.
अपने नाकामयाब चेहरे को छुपाने के लिए सरकार ने अब यह कहना शुरू कर दिया कि उसने यह कदम पूरे नकद को औपचारिक बैंकिंग सेक्टर में लाने के लिए उठाया था. लेकिन जनता की नज़रों में, अभी भी उनकी आँखें नहीं खुली थी. अब कोई भी ऐसा काला धन नहीं था जिसका वे पर्दाफाश कर सकें.
सेंट्रल स्टैटिस्टिक्स ऑफिस (सीएसओ) ने सकल मूल्य वर्धित (जीवीए) के त्रैमासिक अनुमानों को जारी किया. इस संस्करण के अनुसार आम तौर पर अनौपचारिक क्षेत्र में बदलाव को कम करके आँका गया है. फिर भी, इन तिकड़मों के बावजूद, सालाना आधार पर, जीवीए की वृद्धि दर 2016-17 की पहली तिमाही (क्यू 1) में 7.6 प्रतिशत से घटकर 2017-18 के Q1 में 5.6 प्रतिशत रह गई. सीएसओ के अनुमानों ने आधिकारिक तौर पर संकेत दिया कि भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी की प्रवृत्ति को तेज करने में नोटबंदी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
भारतीय रिजर्व बैंक और सीएसओ द्वारा जारी अनुमानों के मुताबिक, मोदी सरकार ने अगस्त-सितंबर 2017 में नोटबंदी की ‘सफलता’ का जश्न मनाने के लिए एक अभियान शुरू करने की कोशिश की थी. इस अभियान ने तीन प्रमुख दावे किए. पहला कि नोटबंदी से सबसे बड़ा काला धन बरामद हुआ, और 16,000 करोड़ (जोकि 15.44. लाख करोड़ का 1.04 हिस्सा था) बैंकिंग व्यवस्था में वापस नहीं आया. दूसरा दावा यह कि नोटबंदी के बाद 'टैक्स/कर अनुपालन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई' और करीब 56 लाख नए करदाता इस व्यवस्था से जुड़े, और 2016-17 में रिटर्न दाखिल करने वालों की संख्या में 24.7 प्रतिशत का इजाफा हुआ.
ये सभी दावे अंतत: झूठे निकले. इस अध्याय में मौजूद प्रपत्र इस संबंध में व्यापक जानकारी उपलब्ध कराते है.
सबसे पहले, 16,000 करोड़ रुपये का पता लगाने का दावा वास्तव में सरकार की असफलता का ही सबूत है, क्योंकि नोटबंदी का आधार काले धन के रूप में कम से कम 3 लाख करोड़ रुपये को कब्ज़े में करने का था. दरअसल, नोटबंदी की लागत बेहद ज्यादा रही और कमाई कम.
मान लो अगर हम रुढीवादी अनुमान लगाते हैं कि नवंबर 2016 के बाद भारत की जीवीए 1 फीसदी कम हो गई है, तो भी इसके परिणामस्वरूप आर्थिक नुकसान लगभग 1.5 लाख करोड़ रुपये का बैठता है
दुसरे जुमला यह कि, नोटबंदी के कारण लाखों करोड़ की नई जमाराशि बैंकों में आने से क्रेडिट आउटफ्लो काफी हद तक स्थिर हो जाएगा. नतीजतन, आरबीआई को बाजार स्थिरीकरण योजना (एमएसएस) के तहत बैंकों से 10.1 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त मुद्रा की उगाही करनी पडी. इस पर आरबीआई का कुल ब्याज व्यय 5,700 करोड़ रुपये था.
तीसरे यह कि आरबीआई के नए नोटों के मुद्रण के लिए 2015-16 में किए गए खर्च 3,420 करोड़ रुपये से बढ़कर 2016-17 में 7,965 करोड़ रुपये हो गया: यानी 4,545 करोड़ रुपये की वृद्धि. इन लागतों में वे अमूर्त चीज़ें शामिल नहीं जैसे कि कई महीनों तक बैंक कर्मचारियों ने उपभोक्ता को और उनके गुस्से, तकलीफ को झेला और कागजी कार्रवाई पर काफी समय बिताया.
चौथे, विभिन्न मदों के तहत आरबीआई में आई उच्च लागतों के कारण, सरकार को भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा हस्तांतरित कुल अधिशेष 2015-16 में 65,876 करोड़ रुपये से घटकर 2016-17 में 30,65 9 करोड़ रुपये हो गया है: यानी, इसमें भी 35,217 रुपये की गिरावट.
संक्षेप में, नोटबंदी सरकारी खजाने को असाधारण नुक्सान पहुचाने का प्रस्ताव था। दूसरे, नोटबंदी के बाद टैक्स/कर अनुपालन में करने वाली संख्या में बढ़ोतरी का दावा ख़ास प्रभावित करने वाला नहीं है.
पहले साल की तुलना में 2017-18 में दर्ज टैक्स/कर रिटर्न की संख्या में वृद्धि के बारे में कुछ ख़ास उल्लेखनीय नहीं है. गौर करें तो पाएंगे कि पिछले वर्ष की तुलना 2013-14 में दाखिल टैक्स/कर रिटर्न की संख्या में वृद्धि 51 प्रतिशत थी, जबकि 2014-15 में 12.2 प्रतिशत; 2015-16 में 29.9 प्रतिशत; और 2016-17.3 में 24.3 प्रतिशत थी.
यहां तक कि जो 56 लाख करदाता नए जुड़े हैं उनमें लगभग 38.8 लाख करदाता (या लगभग 69.4 प्रतिशत) ने 5 लाख रुपये से भी कम की वार्षिक आय घोषित की है. इन नए करदाताओं की औसत वार्षिक आय केवल 2.7 लाख है, संक्षेप में, नए करदाताओं से कर राजस्व में वृद्धि नगण्य होगी.
तीन, डिजिटल बैंकिंग के फैलाव के सरकार के दावें मूलभूत सांख्यिकीय तर्क की ही अवहेलना करता है, विश्लेषण से पता चलता है कि डिजिटल बैलेंस की संख्या की प्रतिशत वृद्धि मुख्य रूप से निम्न आधार प्रभावों के कारण होती है. दो, गैर-नकद लेनदेन का कुल मूल्य नवंबर 2016 और अगस्त 2017 के बीच केवल 18.8 प्रतिशत बढ़ा. मोबाइल बैंकिंग को लोकप्रिय बनाने के प्रयासों के बावजूद, मोबाइल आधारित लेनदेन के मूल्य और मात्रा में नवम्बर 2016 से अगस्त 2017 के बीच तक केवल नकारात्मक वृद्धि दर दर्ज की गई.
अगस्त 2017 तक सभी उपलब्ध सबूत बताते हैं कि रोज़मर्रा के लेनदेन में नकद की वापसी हो रही है. इससे स्पष्ट है कि नागरिकों को नकद छोड़ने के लिए मजबूर करने का उद्देश्य पूरी तरह विफल रहा.
(आर. रामकुमार डीन, सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग इकोनॉमीज, स्कूल ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई, उनसे [email protected] पर संपर्क जा सकता है.)