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भारत के निर्णयों को प्रभावित करने वाले नैरेटिव और ज़मीनी हक़ीक़त में इतना अंतर क्यों है? 

भूटान और चीन के बीच लंबे समय से चले आ रहे सीमा विवाद को सुलझाने के लिए गुरुवार को थिम्पू में हस्ताक्षरित 'रोडमैप' ने तो भारत के डोकलाम-नैरेटिव में एक बड़ा सुराख कर दिया है, इतना बड़ा कि उस से होकर अब एक हाथी गुजर सकता है। 
Bhutan
14 अक्टूबर 2021 को भूटान ने थिम्पू में चीन के साथ सीमा समझौते के एक ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने की घोषणा की। 

मैंने हाल ही में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स (एलएसई) के प्रोफेसर पॉल डोलन और उनके शोध-कार्य में सहायक एवं सह-लेखक अमांडा हेडवुड द्वारा लिखा गया एक विचारोत्तेजक निबंध पढ़ा, जो कोविड-19 महामारी की अनिश्चितताओं की पृष्ठभूमि का विश्लेषण करता है कि किस तरह प्रभावशाली आख्यान (नैरेटिव) सरकार के निर्णयों को शक्तिशाली रूप से प्रभावित करते हैं और निर्णय लेने की प्रक्रिया में एक 'कथा जाल' रचते हैं।

डोलन एवं हेडवुड ने लिखा है: "हम दावे से कहते हैं कि पीछे हटने और आख्यानों के प्रभाव पर विचार करने में विफलता, निर्णय लेने वाले को अनिर्दिष्ट और अमान्य पूर्वाग्रह के लिए खुला छोड़ते हुए उन्हें प्रभावी निर्णय लेने में बाधक बनेगी। कोई भी आख्यान अपने आप में अच्छे या बुरे नहीं होते हैं लेकिन किसी आख्यान में कुछ निर्णय लेने की क्षमता दूसरे की तुलना में अधिक आकर्षक लगती है, अक्सर उन तरीकों से जो हमारी जागरूकता के निचले तल पर होते हैं, वे प्रभावी निर्णय लेने के हिसाब से हानिकारक सिद्ध होती हैं।" 

किसी भी भारतीय को यह मालूम होगा कि शक्तिशाली नैरेटिव पाकिस्तान और चीन के साथ भारत के गहरे आंदोलित संबंधों को कवर करते हैं। प्रभावशाली आख्यान वे साधन बन गए हैं जिनके माध्यम से आने वाली सरकारों ने देश के मूल्यों और उसकी पहचानों पर जोर देने का प्रयास किया है। फिर भी, मूल रूप से, ये आख्यान इस बारे में अच्छी कहानियां हैं कि चीजें किन सूरत में होनी चाहिए। वे उन नेतृत्वों के लिए निर्णयों को आसान बनाने में मदद कर सकते हैं जिनमें सूझ-बूझ की कमी है, लेकिन ऐसे निर्णयों के परिणाम हानिकारक हो सकते हैं। 

2017 में डोकलाम में नकली वजह से एक खास तरीके से की गई कार्रवाई आज इसका एक उदाहरण है। भूटान और चीन के बीच लंबे समय से चले आ रहे सीमा विवाद को सुलझाने के लिए गुरुवार को थिम्पू में हस्ताक्षरित 'रोडमैप' ने तो भारत के डोकलाम-आख्यान में एक बड़ा सुराख कर दिया है, इतना बड़ा कि उस से होकर अब एक हाथी गुजर सकता है। इस वाकयात पर दिल्ली की मौन प्रतिक्रिया उसके दबाए हुए रोष के साथ उसकी मिश्रित घबराहट को दर्शाती है। 

संक्षेप में, डोकलाम में, भारतीय सेना ने सिक्किम की सीमा के पार चीनी क्षेत्र को पार कर उसकी सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) द्वारा उस क्षेत्र में बनाई जा रही सड़क निर्माण के प्रयास को विफल कर दिया, जिस पर भूटान अपना दावा जताता रहा था। ​​यह गतिरोध 73 ​दिनों तक चला था। इसके बाद भारतीय और चीनी सैनिक डोकलाम से हट गए लेकिन इसके पश्चात उपग्रह से मिले चित्रों से खुलासा हुआ कि इस क्षेत्र में चीनी सैन्य बुनियादी ढांचे को अब पक्का कर दिया गया है। 

लेकिन दिल्ली ने इसे नजरअंदाज कर दिया। तो, उस पूरे आख्यान के बारे में क्या था कि भूटान ने दिल्ली से अपनी रक्षा के लिए आने का अनुरोध किया और भारत इस अवसर पर बहादुरी से वहां जा खड़ा हुआ? और कि डोकलाम संकट का समापन भारतीय कूटनीति के बेहतरीन पलों में से एक मान लिया गया था, आदि? क्या हम इससे यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यह सारा का सारा आख्यान वास्तव में वाहियात तथ्यों से भरा था? 

अब जरा उस धमाके पर आएं जो भूटान ने चीन के साथ लगी सीमा समस्या को सुलझाने के लिए वार्ता में तेजी लाने के लिए तीन-चरणीय रोडमैप पर समझौता ज्ञापन पर दस्तखत करके किया है। जाहिर है, कि थिम्पू ने यह करने से पहले दिल्ली को विश्वास में लेना भी आवश्यक नहीं समझा। सीधे शब्दों में कहें, तो भूटान खुद को भारत-चीन की भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में घसीटे जाने से तौबा करता है।

और पेइचिंग के लिए यह अवसर बिल्ली के भाग से छींका टूटने जैसा था। वह तो इस ताक में था ही दिल्ली में बैठी ताकतों को इस मसले में अपनी नाक घुसेड़ने का कोई मौका ही नहीं दिया जाए। सीजीटीएन में प्रकाशित एक तीखी टिप्पणी का सार है: "नई दिल्ली के लिए समझौता ज्ञापन का सबसे बड़ा सबक यह होना चाहिए कि क्वाड और चीन विरोधी मेट्रिक्स जैसी भारत की पहल दक्षिण एशिया में उसके बढ़ते अलगाव के परिदृश्य को नहीं पलट सकती।"

दिक्कत 2017 के डोकलाम जैसे काल्पनिक आख्यानों के साथ यह है कि वे स्थिति के प्रति रतौंधी का कारण बन सकते हैं, जिससे आप किसी एक पहलू पर इतने केंद्रित होते हैं कि बड़ी तस्वीर पर मुकम्मल गौर करने में फेल हो जाते हैं। ठीक ऐसा ही, डोकलाम के दो साल बाद भी हुआ था, जब दिल्ली ने जम्मू-कश्मीर को संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत दी गई स्वायत्तता को रद्द कर दिया और उसके बाद भारत का एक नया नक्शा जारी कर दिया था। इसके मुश्किल से छह महीने बाद ही, भारतीय एवं चीनी सैनिक लद्दाख सहित भारत-चीन सीमा से लगे अन्य स्थानों पर एक दूसरे से आक्रामक हाथापाई, आमने-सामने की भिड़ंत और झड़पों में लगे रहे थे।

हाल ही, में भारत-चीन सीमा वार्ता में एक गतिरोध उत्पन्न हो गया है और पूर्वी लद्दाख में सीमा से सैनिकों की तैनाती हटाने की प्रक्रिया रुक गई है। दिलचस्प यह है कि ​भारत-चीन कोर कमांडर स्तर के 13वें दौर की बैठक के चार दिन बाद चीन-भूटान के एमओयू पर हस्ताक्षर की घोषणा की गई है। 

यह सुनिश्चित करने के लिए, दिल्ली में निर्णय लेने वालों के लिए अपने प्रबल आख्यानों के प्रभाव को पुनर्संतुलित करने की अनिवार्य आवश्यकता है, जिसने शुरू में ऐसे निर्णयों के प्रति उनके आकर्षण को बढ़ाया होगा। विलंबित मसलों पर तत्काल प्रभाव से ध्यान केंद्रित करने की प्रवृत्ति ने स्थितिजन्य अंधापन को जन्म दिया है। 

इस मामले की जड़ यह है कि भारतीय आख्यान देश की अनेक घातक कमजोरियों को बस नज़रअंदाज़ कर देते हैं। नतीजतन, हमारे खुद की खुशामद करने वाले, आश्वस्त करने वाले आख्यान हमारे व्यवहार को प्रबलता से प्रभावित करते हैं। लेकिन मन की यह भावनात्मक स्थिति तर्कसंगत सोच को रोकती है। अब इस परिप्रेक्ष्य में निम्नलिखित तथ्यों पर विचार करें: ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत कुल 116 देशों की सूची में बीते साल की 94वीं पोजिशन से लुढ़क कर 101वें स्थान पर पहुंच गया है। इसमें सदमा लगने वाली बात यह है कि भारत अब पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल जैसे पड़ोसी देशों से भी नीचे हो गया है। 

यह खबर कल ही आई थी। फिर भी, एक पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने सोमवार को लिखा है, "लंबी अवधि में, यदि कोई एक देश चीन से अपने आकार, जनसंख्या, आर्थिक क्षमता, वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमताओं के मामले में मेल खा सकता है या उससे भी आगे निकल सकता है, तो वह भारत है।” इस तरह की शेखी बघारने के साथ प्रायः यही दिक्कत हमेशा होती है कि अंततोगत्वा हम सभी मर चुके होते हैं, जैसी कि महान ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन कीन्स की प्रसिद्ध उक्ति है। 

इतना तो सुनिश्चित है कि भारतीय आख्यान, चाहे वह चीन पर हो या पाकिस्तान पर, उसमें एक संतुलन की जरूरत है। हमारे आख्यान बहुत अधिक सुकून देने वाले हैं, लिहाजा उन्हें चुनौती देने के लिए समानांतर वैकल्पिक कहानियों की आवश्यकता है। यह जोखिम उन कहानियों के लिए अपनी वरीयता देने के प्रकार में सन्निहित है, जिसके बारे में हम आश्वस्त महसूस करते हैं- 'परमाणु शक्ति संपन्नता के साए में दो मोर्चों पर युद्ध' की स्थिति; क्वाड ('हिंद-प्रशांत महासागर रणनीति'); चीन के साथ ‘बातचीत’एवं ‘प्रतिस्पर्धा’ इत्यादि।

हमारे उबाल पड़ने वाले आख्यानों और कठोर भारतीय वास्तविकताओं के बीच के अंतर को छिपाना अब संभव नहीं है। फिर भी, इस समय, भारत 15 दिनों का सैन्य अभ्यास अलास्का में कर रहा है, जिसे अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन ने चीन के विरुद्ध अमेरिका के हिंद-प्रशांत अभियानों एवं रूस के विरुद्ध आर्कटिक अभियानों के लिए एक 'रणनीतिक हॉटस्पॉट' करार दिया है!

भारत के निर्णयकर्ताओं को एक जाने-पहचाने आख्यान के प्रबल आकर्षण से खुद को बचाने के लिए इसके समानांतर ही विवेकपूर्ण प्रतिरोधी आख्यान की मांग करनी चाहिए। प्रतिस्पर्धी आख्यानों से उन्हें सबूतों को तौलने और बेहतर-सटीक निर्णयों तक पहुंचने में मदद मिलेगी। अगर ऐसा होता तो भारत आज अफगानिस्तान पर तालिबानी हुकूमत से होने वाली उथल-पुथल की घटनाओं के बाद खुद को लोमड़ी की मांद में नहीं पाता। 

नवंबर में अफगानिस्तान पर एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन की मेजबानी करने की वर्तमान भारतीय पहल की सफलता (या विफलता) का पाकिस्तानी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद युसूफ द्वारा हमारे निमंत्रण की स्वीकृति पर गंभीर रूप से निर्भर होना, सभी विडंबनाओं की जननी है।

मेरे ख्याल से शायद मोईद युसूफ आएंगे, क्योंकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने भारत के साथ बातचीत के प्रबल समर्थक रहे हैं। लेकिन फिर,पाकिस्तान के बारे में हमारे स्वयंभू आख्यान का क्या होगा, यदि हमें उस देश के साथ क्षेत्रीय सुरक्षा और स्थिरता के महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर सहयोग करना है ताकि आतंकवादी समूहों पर लगाम लगाने के लिए अड़ियल तालिबान (सिराजुद्दीन हक्कानी को पढ़ें) को प्रभावित किया जा सके? इसके विपरीत, हाल के वर्षों में पाकिस्तान की उस पहल का जवाब देने से हमें किसने रोका था, जब उसने अशरफ गनी और उसके गुट को काबुल में सत्ता में बैठाया था?

इसलिए, हम वर्तमान में एक नया आख्यान रचने के काम में लगे हैं कि भारत अफगानिस्तान के 'भविष्य का फैसला करने वाली मेज पर बैठने के लिए एक सीट पाने का रास्ता' तलाश रहा है। और यह तब है, जब हमारे निर्णय लेने वाले भी सुनिश्चित नहीं हैं कि नवंबर में प्रस्तावित हमारे सम्मेलन को कोई सार्थक परिणाम होगा भी या नहीं।

एक प्रबल आख्यान का मुकाबला करना इतना आसान भी नहीं है, लेकिन इतिहास बताता है कि चाहे वह हिटलर के बारे में हो या जॉर्ज डब्ल्यू बुश के बारे में, ऐसी अधिकांश कहानियों का सुखद अंत नहीं होता है। दूसरी ओर, जैसा कि लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के विद्वानों ने लिखा है, जब निर्णय लेने वाले स्वयं के गढ़े आख्यानों की उंगली पकड़ कर खुद को आगे बढ़ने देते हैं और 'अनिश्चित और उच्च दांव वाले वातावरण' की तरफ से अपनी आंखें मूंद लेते हैं तो वे संभावित रूप से इसकी बड़ी कीमत चुका सकते हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Narrative Traps in India’s Decision-Making

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