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नई शिक्षा नीति 2020: क्या आप जनजातीय छात्रों को भूल गए!

वंचित तबकों के छात्रों को मुख्यधारा से हटाकर, कौशल विकास के नामक पर मज़दूर बनाना कोई समाधान नहीं है
नई शिक्षा नीति
प्रतीकात्मक तस्वीर

स्वतंत्रता के 74 साल बाद भी भारत में जनजातीय साक्षरता वांछित स्तर तक नहीं पहुंच पाई है। "स्टेटिस्टिक्स ऑन स्कूल एजुकेशन, 2010-11" के मुताबिक़, पहली से लेकर कक्षा दसवीं तक जनजातीय छात्रों के बीच में स्कूल से निकलने की दर (ड्रॉपऑउट रेट) 70.9 फ़ीसदी होती है। यह आंकड़े उस बड़ी चुनौती की तस्वीर सामने रखते हैं, जिसका समाधान किया जाना बाकी है।

भारत में दुनिया की सबसे बड़ी जनजातीय आबादी रहती है। 2011 की जनगणना के मुताबिक यह कुल आबादी का 8.6 फ़ीसदी है। लेकिन यह कोई सजातीय समूह नहीं है। भारत की जनजातीय आबादी में 574 विशेष समूह शामिल हैं। हर जनजातीय समूह के सदस्य कुछ निश्चित पेशे ही अपनाते हैं, लेकिन सभी का सामाजिक और आर्थिक विकास अलग-अलग स्तर पर है। फिर भी समग्र तौर पर देखें तो जनजातीय बच्चों का एक बड़ा हिस्सा स्कूल से बाहर रह जाता है। सवाल यह है कि नई शिक्षा नीति, 2020 जनजातियों और ग़रीबी से जुड़े इन मुद्दों का समाधान कर पाएगी या नहीं?

वैश्वीकरण के दौर में भी कई देश अपने नागरिकों के साथ एक समान व्यवहार करने में कामयाब रहे हैं, लेकिन भारत में जनजातीय समूह मुख्यधारा से बहुत दूर रहा है और उसे विकास के फायदे नहीं मिल पाए हैं। भारत की विविधता ने सामाजिक ताने-बाने को काफ़ी स्तरों में बांटकर, उसका वर्गीकरण किया है। सामाजिक और आर्थिक मौके, अलग-अलग जाति और वर्गीय आधार पर वितरित हैं। पर्यावरण और भूगोल में भी बड़े स्तर पर भिन्नता है, इससे भी जनजातियों द्वारा अपनाए जाने वाले पेशों में अंतर आता है।

बता दें भारतीयों के तीन चौथाई हिस्से का मुख्य पेशा कृषि है और 65 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी गांवों में रहती है। भारत के कुलीन और विभेदकारी सामाजिक व्यवस्था ने जनजातियों और दूसरों के बीच अवसरों की उपलब्धता के साथ-साथ विकास में भागीदारी में अंतर बनाया है। जनजातीय लोग आमतौर पर बहुत दूर-दराज के इलाकों में जंगलों और प्राकृतिक संसाधनों के पास रहते आए हैं। वे सड़कों से जुड़े क्षेत्रों या राजनीतिक-आर्थिक-औद्योगिक-व्यापारिक या उद्यम के हिसाब से अहमियत रखने वाले इलाकों से हमेशा दूर रहे हैं। इसलिए जनजातीय क्षेत्रों में इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी, बड़े स्तर की गरीबी और कर्जदारी है। सामाजिक वंचना का नतीज़ा उनकी शैक्षणिक पिछड़ेपन से झलकता है।

लेकिन कोई भी भौगोलिक या सामाजिक-आर्थिक बंधन आधुनिक और उत्पादन में लगी ताकतों को जनजातीय समुदायों के प्राकृतिक रहवास में बड़े स्तर पर अतिक्रमण करने से नहीं रोक पाया है। इसके चलते आदिवासियों को विस्थापन हुआ है, वे बदतर गरीबी में ढकेले गए और उन्हें बंधुआ मज़दूरी के ज़रिए उनका शोषण किया गया। भारत सरकार बालश्रम पर प्रतिबंध लगा चुकी है, लेकिन सरकार को जनजातियों में मुफ़्त शिक्षा और बालश्रम पर प्रतिबंध को लागू करने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। इसलिए जनजातीयों की सामाजिक-आर्थिक और स्थानिक वंचना को बताने के लिए "दोहरे नुकसान/डबल डिसएडवांटेज़" शब्दावली का उपयोग किया जाता है।

अमर्त्य सेन ने 2003 में लिखा, "आखिर शैक्षणिक अंतर को पाटना जरूरी क्यों है? क्यों जरूरी है कि शैक्षणिक पहुंच, समावेशन और उपलब्धियों की विषमता को खत्म किया जाए? इसकी एक अहम वज़ह दुनिया को ज़्यादा सुरक्षित और न्यायपूर्ण बनाना है। HG वेल्स तब बहुत सटीक थे, जब उन्होंने ऑउटलाइन ऑफ हिस्ट्री में लिखा, "गुजरते वक़्त के साथ मानव इतिहास शिक्षा और प्रलय के बीच दौड़ बनता जा रहा है।" अगर हम दुनिया के बड़े हिस्से शिक्षा से बाहर रखेंगे, तो हम दुनिया को सिर्फ़ कम न्यायपूर्ण ही नहीं, बल्कि असुरक्षित भी बना रहे होंगे।"

यह साबित किया जा चुका तथ्य है कि छात्र तब बेहतर सीखते हैं, जब सीखने की प्रक्रिया में सक्रिय भागीदार बनते हैं। लेकिन ख़राब इंफ्रास्ट्रक्चर और पढ़ाई के निचले स्तर के साथ एक ऐसा पाठ्यक्रम जो जनजातियों की ज़िंदगी की बात ही नहीं करता, न उन्हें उनके इतिहास के बारे में बताता है, उससे कई जनजातीय समुदायों का मौजूदा शिक्षा व्यवस्था से मोह भंग हो गया है। जॉन डेवी जैसे शैक्षणिक सुधारकों का विश्वास है कि इंसान व्यवहारिक-क्रियाशील तरीकों से बेहतर ज्ञान अर्जित करता है। छात्रों का सीखने और अपनाने के लिए अपने पर्यावरण के साथ व्यवहार करना जरूरी है। रूसो ने अपने शिक्षा के सिद्धांत में उन तरीकों को अपनाए जाने की जरूरत बताई है, जिनसे बेहतर-संतुलित और स्वतंत्र सोच वाले बच्चे का विकास हो सके।

समस्याएं और शैक्षणिक संसूचक

ज़्यादातर देशों में बच्चों को कम से कम प्राथमिक शिक्षा हासिल करना अनिवार्य है। प्राथमिक शिक्षा का वृहद उद्देश्य छात्रों में बुनियादी साक्षरता और अंक गणित का विकास करना और विज्ञान, गणित, भूगोल, इतिहास और दूसरे सामाजिक विज्ञान का आधार तैयार करना है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (Millennium Development Goals) में भी 2015 तक प्राथमिक शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने का लक्ष्य था। लेकिन संसाधनों की कमी और राजनीतिक इच्छाशक्ति की दुर्बलता के चलते बड़ा अंतर बना हुआ है। यह चीज ज़्यादा छात्रों पर कम शिक्षकों की तैनाती, इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी और कमज़ोर शिक्षक प्रशिक्षण में दिखाई देती है।

भारत में "शिक्षा के अधिकार अधिनियम (RTE), 2009" के ज़रिए 6 से 14 साल के बीच की उम्र वाले बच्चों के लिए या कक्षा 8वीं तक शिक्षा को पूरी तरह मुफ़्त कर दिया गया है। इसके चलते निजी संचानल वाले स्कूलों की बाढ़ आ गई है। इस पृष्ठभूमि में नीचे दिए गए सेक्शन जनजातीय छात्रों के सामाजिक-आर्थिक पहलू, जनजातीय परिवारों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले स्कूलों का इंफ्रास्ट्रक्चर, सीखने में छात्रों की भागेदारी और स्कूलों में उनके द्वारा सामना किए जाने वाले भेदभाव का विश्लेषण करते हैं। यहां कोशिश की गई है कि उपरोक्त पैमानों पर प्राथमिक स्कूलों की धारणाओं का परीक्षण किया जा सके। उदाहरण के लिए, अब यह पूर्व निश्चित तथ्य है कि जब शिक्षा देने की बात आती है, तो लड़कियों से भेदभाव किया जाता है। ऐसा ग्रामीण इलाकों में विशेष तौर पर होता है। इसके लिए तर्क दिया जाता है: "आखिर लड़कियों के लिए शिक्षा का क्या काम, जब उन्हें घरेलू काम ही करना है?"

(नीचे टेबल-1 देखिए, जो 2012-14 के बीच इस लेख के लेखक के ज़मीनी अध्ययन पर आधारित है।)

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ग्रामीण इलाकों में ज़मीन और घर सामाजिक दर्जे से जुड़ा होता है। जरूरत के वक़्त, संपत्ति का मालिकाना हक़ रखने वाला शख़्स ज़्यादा विश्वास के साथ वित्तीय संस्थानों के पास कर्ज लेने के लिए पहुंच सकता है, क्योंकि उसके पास गिरवी रखने के लिए चीजें होती हैं। इसके उलट, जिन लोगों के पास "कीमती" चीजें नहीं होतीं, वे सूदखोरों का शिकार बन जाते हैं।

नीचे दी गई सूची आंध्रप्रदेश के तीन जिलों- अनंतपुर, हैदराबाद और विशाखापट्टनम की स्थिति दिखाता है। यह सूची 2012 से 2014 के बीच किए गए अध्ययन पर आधारित है।

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जिस तरह के घर में कोई रहता है, वो सिर्फ रहन-सहन के प्रतीक से आगे की बात है। किसी छात्र के लिए यह तय कर सकता है कि उसके घर में पढ़ाई के लिए सही माहौल है या नहीं। पक्का घर रहने के लिए पर्याप्त जगह सुनिश्चित करता है, साथ में बिजली और पानी की सुविधा भी उपलब्ध करवाता है। दूसरी तरफ कोई झोपड़ी या कच्चे घर में यह सुविधाएं नहीं भी हो सकती हैं। पानी की कमी के चलते परिवार की महिला सदस्यों को बाहरी स्रोत से पानी लाना होता है, जो अध्ययन के लिए वक़्त को कम कर सकता है।

किसी समुदाय के जीवन स्तर मापन के लिए बिजली एक अहम पैमाना है। यह उसके विकास का प्रतीक भी है। बिजली की आपूर्ति से सिर्फ़ जीवन आरामदायक नहीं बनता, यह छात्रों को रात में पढ़ने की सुविधा भी उपलब्ध करवाती है। एक अच्छी बात यह है कि अनंतपुर में 92.59 फ़ीसदी और हैदराबाद में 81.48 फ़ीसदी जनजातीय छात्रों ने कहा कि उनके पास बिजली की सुविधा उपलब्ध है। वहीं विशाखापट्टनम में यह आंकड़ा 76.54 फ़ीसदी था।

किसी टॉयलेट का होना या न होना भी संबंधित शख्स के शैक्षणिक स्तर को दिखाता है। कोई टॉयलेट सिर्फ अच्छी स्वच्छ स्थितियों के बारे में नहीं होती, बल्कि इससे महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान भी सुनिश्चित होता है, जिन्हें कीट-पतंगों द्वारा काटे जाने या पुरुषों द्वारा छेड़खानी का खतरा ज्यादा होता है। लेखक के अध्ययन ने पाया कि अनंतपुर में 46.91 फ़ीसदी लोगों, हैदराबाद में 44.44 फ़ीसदी लोगों और विशाखापट्टनम में 50.62 फ़ीसदी लोगों ने बताया कि उनके पास शौचालय उपलब्ध है। लेकिन सावधान करने वाला तथ्य यह रहा कि इनमें से ज्यादातर लोगों ने बताया कि वे खुले में शौच करते हैं। इनमें 56.9 फ़ीसदी ST समुदाय और 62.2 फ़ीसदी अन्य समुदाय के लोग शामिल हैं।

संचार क्रांति ने शिक्षा में भी अपनी जड़े जमाई हैं। यह चीज बड़ी संख्या में मोबाइल फोन के स्वामित्व की बात से भी पुष्ट होती है। सभी सामाजिक समूहों में से आधे से ज़्यादा लोगों ने बताया कि उनके पास मोबाइल फोन हैं। अनंतपुर में 88.88 फ़ीसदी, हैदराबाद में 85.19 फ़ीसदी और विशाखापट्टनम में 88.88 फ़ीसदी जनजातीय परिवारों ने माना कि उनके पास मोबाइल फोन हैं। वहीं गैर-SC/ST लोगों में से अनंतपुर में 59.26 फ़ीसदी, हैदराबाद में 77.78 फ़ीसदी और विशाखापट्टनम में 70.37 फ़ीसदी लोगों ने मोबाइल फोन होने की बात कबूल की। इससे साफ होता है कि यह लोग अपने संबंधी-दोस्तों से फोन के ज़रिए जुड़े होने की अहमियत को समझते हैं। छात्रों के लिए अपने अध्ययन में विमर्श के लिए यह चीज अहम हो सकती है।

प्रवेश मिलने में अनुमति

सार्वभौमिक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा प्रवेश मिलने में आने वाली मुश्किलें हैं। यह संबंधित अधिकारियों के असहयोगात्मक रवैये की वजह से है।

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एक अच्छी प्रोत्साहन देने वाली बात यह है कि सभी वर्गों के लोगों ने एकजुट तरीके से बताया कि उन्हें स्कूल में प्रवेश मिलने में दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ता है। यह बताता है कि आमतौर पर स्कूली प्रशासन प्रवेश देते वक़्त भेदभावकारी रवैया नहीं अपनाता। तब प्रवेश में बड़ी बाधा उन दस्तावेज़ों की मांग हो सकती है, जो प्रवेश लेते वक्त संबंधित छात्र के पास नहीं होते।

शिक्षाशास्त्र और शिक्षा के प्रति रवैया

हमारी शिक्षा व्यवस्था एक बैंकिंग व्यवस्था की तरह काम करती है। यह एकतरफा प्रक्रिया है। जिसमें शिक्षक जमाकर्ता और छात्र जमाधारक हैं। सामान्य तौर पर ज्यादातर शिक्षकों की प्रवृत्ति ज्ञान जमा करने की होती है, जिसे छात्रों को संयम से ग्रहण करना, याद कर, दोहराना होता है। इससे सृजनात्मकता और ज्ञान की कमी बन सकती है। इस अध्ययन में यह पता लगाने की कोशिश की गई कि शिक्षातंत्र, जनजातीय छात्रों की मांग को किस तरह पूरा करता है। और किस तरह यह ज्ञान उनके लिए सामाजिक तौर पर उपयोगी होता है।

जहां तक शिक्षा देने के तरीकों की बात है, तो एक आदर्श शिक्षक छात्रों में सबसे निचले साझा स्तर को खोजता है और कोशिश करता है कि ज्यादातर छात्र पाठ को समझ सकें। आखिर कोई स्कूल शिक्षक के लिए अपने ज्ञान के प्रदर्शन का फोरम तो होता नहीं है। एक अच्छे शिक्षक को अपने छात्रों को सवाल पूछने को प्रेरित करना चाहिए और अगले शीर्षक पर बढ़ने से पहले उनसे स्पष्टीकरण लेना चाहिए। शिक्षक को दोस्त, दार्शनिक और दिशा दिखाने वाले की तरह बर्ताव करना चाहिए। उसे छात्रों में भय पैदा नहीं करना चाहिए।

जिस माध्यम में शिक्षा दी जानी है, वह भी एक मुद्दा होता है। कई बच्चे अंग्रेजी को तो छोड़िए, क्षेत्रीय भाषाओं के साथ भी बहुत सहज नहीं हो सकते हैं। इन भाषाओं को समझना इन छात्रों के लिए बहुत कठिन होता है। आदर्श तौर पर शिक्षक को स्थानीय भाषा में ढलना आना चाहिए, ताकि वो छात्रों के सीखने के क्रम को और दिलचस्प बना सके। आखिर सीखना एक खुशी देने वाला अनुभव होना चाहिए। ना कि थोपी गई कोई चीज होनी चाहिए। मेरे अध्ययन के इलाके में छात्रों के साथ व्यवहार करते हुए मुझे पता लगा कि वे शिक्षकों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के जवाब देने से बहुत डरते हैं। इसकी एक वज़ह यह हो सकती है कि गलत होने की स्थिति में उन्हें कक्षा के सामने नीचा देखने वाली स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। इस तरह का माहौल निश्चित तौर पर प्रभावी शिक्षण के लिए सही नहीं होता।

अध्ययन के दौरान मैंने पाया कि शिक्षक के साथ अच्छे संबंध छात्रों से शर्म और डर हटा सकते हैं। इससे शिक्षकों को छात्रों को बेहतर समझने का मौका मिला है और वे स्कूल छोड़ने की दर को भी कम कर सकते हैं। साथ ही छात्रों की भागीदारी बढ़ाते हुए शिक्षा व्यवस्था को मजबूत कर सकते हैं।

अलग-अलग अध्ययनों ने पाया है कि कुछ शिक्षक पाठ्यक्रम से संबंधित छात्रों की समस्याओं को दूर करने की खुद ही पहल करते हैं। लेकिन कई बार जनजातीय छात्र सवाल होने की स्थिति में भी शिक्षकों के पास जाने में संकोच करते हैं। उनके लिए निजी ट्यूशन विकल्प नहीं होतीं। क्योंकि ज़्यादातर घरवाले इनका वहन नहीं कर सकते।

अंत में

शिक्षा, जनजातीय विकास की कुंजी है। लेकिन जनजातीय बच्चों का भागीदारी में बहुत कम हिस्सा है। भारत में जनजातियों का विकास तो हो रहा है, लेकिन इसकी दर बहुत कम है। अगर सरकार कुछ तेज-तर्रार कदम नहीं उठाती, तो जनजातियों में शिक्षा का स्तर खराब ही बना रहेगा। इसलिए अब वक़्त आ गया है कि हम शिक्षा की “बैंकिंग व्यवस्था” से आगे बढ़ें और जनजातीय छात्रों को शिक्षा के साथ खेलने का ज़्यादा मौका दें।

सरकारी शैक्षणिक संस्थानों को जनजातीय छात्रों को प्रोत्साहन देने और उनकी भागदारी बनाए रखने के लिए जागरुक किया जाना जरूरी है। एक जनजातीय छात्र के लिए उनकी संस्कृति और सम्मान को मान्यता देना और सहेजना अहम होता है। अब जरूरी है कि जनजातीय छात्रों की जरूरत और महत्वकांक्षाओं के हिसाब से शिक्षाशास्त्र और पाठ्यक्रम को दोबारा बदला जाए और इनके साथ समन्वय में लाया जाए। ऐसा करने से शिक्षा सभी छात्रों के लिए ज्यादा दिलचस्प और खुशी देने वाला साधन बन सकती है। तब स्कूल और कॉलेज बदलाव के वाहक बन जाएंगे। नई शिक्षा नीति, 2020 सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़े और वंचित तबकों, खासकर आदिवासी पहचान वाले सामाजिक-सांस्कृतिक समूहों की पुरानी समस्याओं को नजरंदाज करती है। यह कोई समाधान नहीं होता कि वंचित छात्रों को मुख्यधारा से अलग, कौशल विकास के नाम पर उनके भीतर के श्रमिक को बाहर निकाला जाए।

(लेखक हैदराबाद यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान विभाग के सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स के अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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