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शिक्षा और भगवाकरण की राजनीति

मोदी सरकार के आने के बाद ही शिक्षा के भगवाकरण की कवायद शुरू कर दी गई है। दीनानाथ बत्रा की किताबों को गुजरात के स्कूलों पढाया जा ही रहा था और अब उसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने की तैयारी है। संघ के नेता मानव संसाधन मंत्री के साथ मुलाकात कर रहे हैं और भाजपा के नेता रोमिला थापर जैसे इतिहासकार की किताबों को जलाने की अपील। अगर सीधे शब्दों में कहा जाए तो इतिहास बदलने की तैयारी है और सांप्रदायिक तनाव को चरम पर ले जाने के लिए शिक्षा का सहारा लिया जा रहा। प्रधानमंत्री ने इन सभी मुद्दों पर चुप्पी साध रखी है। इस फेरबदल और भगवाकरण की कोशिश के बारे में और जानने के लिए न्यूज़क्लिक ने दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक अपूर्वानंद से बात की।

                                                                                                                             

नकुल - नमस्कार न्यूज़क्लिक में आप का स्वागत है, आज हमारे बीच में हैं अपूर्वानंद साहब जो दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिन्दी  के प्रोफ़ेसर हैं, न्यूज़क्लिक में आपका स्वागत है, सबसे पहले अगर हम बात करें तो एन डी ए वन की जब अटल बिहारी वाजपई वजीरे आज़म थे, तब एक चीज़ जो नजर आई थी, सीधा सीधा आर एस एस का दख़ल अंदाज़ हुआ था एन सी आर टी  के पाठ्यक्रम में , अब भी उसी तरह से दीनानाथ बत्रा की किताबें गुजरात में स्कूली बच्चों को दी जा रही हैं सुभ्रमन्यम स्वामी बोल रहे हैं रोमिला थापड़ जैसे हिस्टोरियन की किताबें जला के फेंक देनी चाहिये, किस दिशा में आपको इनकी शिक्षा नीति खासकर भगवाकरण की हम बात करें, साम्प्रदायीकरण की बात करें, किस दिशा में आपको इनकी शिक्षा नीति जाती नजर आती है इस बार ?

अपूर्वानंद - एन डी ए  की पहली सरकार और इस सरकार में अन्तर है, एक अन्तर तो ये ही है की भारतीय जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत इस प्रकार से है, इसलिए इसे भारतीय जनता पार्टी की सरकार कहना गलत नही होगा, दूसरा की ये सरकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की है घोषित रूप से, भारत के इतिहास में पहली बार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने घोषणा करके चुनाव में हिस्सा लिया, पहली बार ये हुआ है की पूर्ण बहुमत में हैं, इस आत्मविश्वास को भी समझने की आवश्यकता है इसलिए पहले जो असुरक्षा थी इस राष्ट्रवाद में, आने के बाद, सत्ता में भी आने के बाद जो असुरक्षा थी वो अब नही है, अब एक तरह का आश्वासन है की हम सत्ता में पक्के तौर पर कम से कम पाँच साल हैं अगर आप इसे ध्यान में रखें की एन डी ए वन में जो दूसरे दल थे उनका दबाव ज्यादा था और उनपे भारतीय जनता पार्टी निर्भर थी इसलिए भारतीय जनता पार्टी को बहुत सारे समझौते करने थे जो अब बिलकुल नही है, बढ़ा हुए आत्मविश्वास एक ऐसा चेहरा पैदा कर रहा है जो चेहरा उदार है, जो चेहरा हरबड़ी में नही है, जिसमे इन्तमिनान है, आपने शिक्षा की बात की थी जहाँ तक गुजरात का प्रश्न है  दीनानाथ बत्रा की गुजरात में छपी किताबों का सवाल है उसमे भी ये कहा जा सकता है रक्षात्मक तौर पे की ये अनिवार्य पाठ्य पुस्तकें नही हैं, जो पूरय पाठ्य पुस्तकें हैं उनको स्वेक्षित तौर पर पढ़ा जा सकता है, लेकिन ये भी साथ में कहना चाहिये कि वो गुजरात के करदाता के पैसों से छपी किताबें हैं और उन किताबों की कमज़ोरी ये नही है की वो एक विशेष प्रकार राष्ट्रवाद प्रचारित कर रही हैं बल्कि वो बौद्धिक मानठंडो पर ठहरती नही हैं।  तो ये बच्चों  के साथ बहुत भारी अन्याय है, अगर शिक्षा नीति का अनुमान करना हो तो राष्ट्रपति के अभिभाषण को अगर आप दुबारा देखें तो उसमे दो घोषणा हुई थी, एक तो हम नई शिक्षा नीति बनाएंगे  और उसके लिए शिक्षा आयोग बनाएंगे , उस शिक्षा आयोग का काम कहाँ तक पहुँचा इसकी अभी तक कोई ख़बर नही है, इस बीच ध्यान रखना चाहिए की कम से कम उच्च शिक्षा को लेकर यसपाल समिति अपनी रिपोर्ट दे चुकी थी जिसे यूपीए ने खुद लागू करने में काफी कोताही बरती इसलिए वो अब मृतप्राय हो चुकी हैं, प्रासंगिक हैं, लेकिन मृतप्राय हो चुकी हैं, तो वो घोषणा जो शिक्षा आयोग की थी, वो चार घोषणा इन चार महीनों में आगे नही खिसकी एक इंच भी, दूसरी घोषणा जो इन्होने राष्ट्रपति के अभिभाषण में की जो आश्चर्यजनक थी बल्कि हास्यास्पद कह सकते हैं वो ये थी की केन्द्र सरकार मैसिव ऑनलाइन ओपन कोर्स तैयार करे, अब ये राष्ट्र की शिक्षा नीति की घोषणा में आप ये कहे की केन्द्र सरकार मूक्स तैयार करवाएगी, इससे ये पता चलता हैं की हमारी शिक्षा नीति के बारे में ही सोच बहुत खन्डित है और कमजोर समझ हैं क्यूंकि मूक्स एक छोटी सी चीज है, अगर आप ये कह रहे हैं की ऑनलाइन शिक्षा के द्वारा हम भारत की उच्च शिक्षा में जो अपेक्षाऐं हैं आने वाले छात्रों की, उनको पूरा करने की, तो इसका मतलब की आपका उच्च शिक्षा की समस्याओं से परिचय नही है, जो ज्यादातर राज्य के विद्यालय में फैला हुआ है, जो भारी शिक्षाकर्मियों  की कमी से जूझ रहा है, जिसके शिक्षक शोध नही कर पाते क्यूंकि उनके पास पर्याप्त संसाधन नही हैं ना ही उनके पास समय है ना उन्हें छुट्टी मिल पाती है, और शिक्षण का दबाव एक तरह के औसतपन को उत्पादित करने के लिए उनको लगातार बाध्य करता रहता है। जिसमे हम श्रेष्टता के लिए, श्रेष्टता की आकांक्षा नही कर सकते।  हमे ऐसा लगता है की हम औसत के आस पास पहुँच जाएं इसी में सब की तसल्ली है तो अगर आप नीति की बात कर रहे हैं तो कोई नीति मुझे दिखाई नही पड़ रही। 

नकुल -अगर नीति ना भी आई हो अगर हम एक ब्रोडली अनुमान लगाये क्या किसी दिशा में जाते नजर आ रहे हैं ये लोग ?अभी जैसे शिक्षा दिवस के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बोला की वो बच्चों को अड्रेस करना चाहते हैं और शिक्षा दिवस पर शिक्षकों की कोई बात नही हुई, उस पूरे भाषण में और वो खुद शिक्षक बनकर बच्चों  से बात करने लगे और कॉन्ट्राक्टुअल टीचिंग के बारे में कोई मैंशन नही, टीचिंग सुविधाओं  के बारे में कोई मैंशन नही, सिर्फ ऊपरी स्तर पर पर दिल को बहलाने का भाषण दे दिया गया, तो आपको लग रहा है कि किसी भी दिशा में जा रही है ये सरकार ?

अपूर्वानंद-  मैं ये कहना चाहूँगा दरअसल नीति नामक शब्द को अप्रासंगिक बनाने का एक अभियान चल रहा है जिसमे हमे उसकी आवश्यकता महसूस ही ना हो क्यूंकि वो एक व्यक्ति के मन में आने वाले सदविचारों पर फिर ये देश चलेगा।  तो ये हो सकता है की वो विचार बच्चों को क्या करना चाहिए इसका उपदेश देने के लिए, दूसरा की देश स्वच्छ होना चाहिए, इस रूप में व्यक्त हो, तो हम इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं हमें एक अभिभावक एक भले दिल का अभिभावक चाहिए जो हमारे लिए अच्छा ही सोचेगा इसलिए अब हम नीति की संरचना से बाहर जा रहे हैं।  लेकिन इसके पीछे का पूरा मक़सद था यानि शिक्षक की सत्ता को पूरी तरह से अप्रासंगिक कर देना, शिक्षक दिवस के दिन आपने शिक्षक की बात नही की, जैसा आपने कहा है भारत की स्कूली शिक्षा की मुख़्य समस्या है शिक्षकों की कमी, जो भी शिक्षकों की कमी है, योग्य शिक्षकों की कमी, उस पर हमने कोई बात नही की, हमने इसपे बात नही की शिक्षक किन दबाव में काम कर रहे हैं, समाज की आपेक्षा  करता है, शिक्षक के पास अवसर क्या हैं, यानि शिक्षक नाम की जो संस्था हैं उसको पिछले  25  वर्षो में पूरी तरह  तोड़ा गया है, और इस बार तो उसे दफ़ना ही दिया क्यूंकि वो प्रासंगिक रह ही नही गया।  अब बच्चों को शिक्षकों से बातचीत   करने की जरूत नही है, अब राज्य उन से आपने नेता के माध्य्म से बात करेगा बल्कि ये भी कहा गया की हर व्यक्ति को आपने पड़ोस के स्कूल में एक दिन जा के पढ़ाना चाहिए, और मैं अगली इस तरह की माँग की उम्मीद करता हूँ आपने बग़ल के हस्पताल में जाकर एक दिन डॉक्टरी करनी चाहिए या हर व्यक्ति को एक दिन इंजीनियरिग करनी चाहिए, ऐसी माँगे शायाद  हम नही करेंगे लेकिन हम यह माँग जरूर करते हैं की हर व्यक्ति स्कूल में जा के पढ़ा ले, जैसे की  पढ़ाने के लिए किसी तरह की तैयारी किसी तरह के निवेश इसकी आवश्यकता ही नही होती, वो एक पेशेवर चीज़ ही नही है, यह सन्देश था जो शिक्षक दिवस के आयोजन में छिपा हुआ,  दुर्भागय  से ठीक से सुना नही गया और एक काल्पनिक भय से लोगों ने इस तरफ इशारा भी नही किया। 
नकुल -जिस काल्पनिक भय की आप बात कर रहे हैं तो ये किस तरह का माहौल बनता नज़र आ रहा है?  कुछ उदहारण  अगर हम देखें तो शिक्षक दिवस की अगर हम बात करें तो उस दिन प्रधानमंत्री  ने बोला की मैं बच्चों को सम्बोधित करना चाहता हूँ और पूरा प्रशासन,हर जगह का स्थानीय प्रशासन, इस चीज़ में जुट गया की बच्चे स्कूल में रहेंगे और भाषण सुन के ही वापिस जायेंगे। स्कूलों में जहाँ ब्लैक बोर्ड नहीं है वहाँ टी वी और केबल का इंतजाम किया जा रहा है, उसी के साथ साथ जब स्वच्छ भारत अभियान की बात होती हैं अचानक दिल्ली यूनिवर्सिटी के वाइस चान्सर बोलते हैं की अब हम स्वच्छ भारत का एक कोर्स इंटीग्रेट करेंगे, क्या ये मतलब एक वैसा वाला माहौल बन रहा हैं जहाँ इमरजेंसी में बोला जाता था वैन यू आस्क टू  बेंड यू क्रोल ?
अपूर्वानंद-विडंबना ये है की ये वक़्तव्य लाल कृष्ण आडवाणी का था जो अब पूरी तरह से अप्रासंगिक हो चुके हैं, जिन्होंने कहा था की आपको झुकने को कहा जाता हैं और आप रेंग रहे हैं, अभी तो झुकने को कहा नही गया है, शिक्षक दिवस के दिन एक बयान आया आधिकारिक बयान, हमने किसी को नही कहा कि ये अनिवार्य है फिर भी सी बी एस सी और दूसरी संस्थाओं ने इसको लगभग अनिवार्य करते हुए परिपत्र जारी किये और स्कूलों ने, कई स्कूलों ने इसे अनिवार्य किया। इसको कहते हैं भय को आप आपने अन्दर समा लेते हैं और एक आज्ञाकारी जनता में आप तब्दील हो जाते हैं।  यह घटना इतने कम समय में होगी यह घटना उन लोगों के साथ होगी जो सबसे ज्यादा शिक्षित हैं ,इत्तिफ़ाक से ये चीज़ दिखाई पड़ रही है उस वर्ग के बीच जो सबसे अधिक शिक्षित है, और एक तरह से उसके पास शक्ति है, लेकिन यह वर्ग सबसे ज्यादा आज्ञाकारी वर्ग के रूप में काम करने को तत्पर है, तो यह एक बड़ी दुर्घाटना हुई है।  इस देश के साथ या आप ये कह सकते हैं की ये दुर्घाटना हो चुकी थी और हमें संभवतया इस प्रकाश की आवश्यकता थी या इतने गहन अंधेरे की आवश्कयता थी ताकि ये हमें दिखाई पड़ सके की हमारे साथ ये हो चुका है।  दूसरा इसका अर्थ ये भी है की हमारे यहाँ सांस्थानिक संस्कृति बहुत कमज़ोर है या संस्थायें बहुत जर्जर अवस्था में हैं इसलिए वो उत्तर नही दे पाती और वो स्वयं आपना महत्व नही समझ पातीं।मसलन विश्वविद्यालय स्वायत्त हैं , साहित्य अकादमी स्वायत्त हैं, इसलिए अगर सरकार कुछ कह भी रही है वह उसका अनुपालन न करें तो उसे कोई नुकसान नही होगा या वो एक स्टैण्ड ले सकती हैं, ऐसा उसके ख्याल में ही नही आता इसका अर्थ ये है की हर संस्था ने आपने आपको राज्य के संस्था के रूप के रूप में तब्दील कर दिया हैं और सरकारी संस्था में तब्दील कर दिया है जो बहुत चिन्ता का विषय है। 

नकुल - ये डरावना माहौल जरूर है लेकिन जिस तरह से आपने कहा की जब ये दौर गुजर जायेगा अगर ये दौर गुजर   जायेगा, बात ये है की एक निराशा का दौर भी हो सकता है ये, लेकिन कहीं ना कहीं इस के ख़िलाफ़ आप जो कह रहे हैं प्रतिरोध की आवाज़े दब रहीं हैं खत्म सी होती नज़र आ रहीं हैं ख़ासकर ऐसे तबके में जो सबसे ज्यादा शिक्षित हैं, जिससे प्रतिरोध की उम्मीद थी, लेकिन फिर भी आगे का रास्ता खासकर आप जो प्रगतिशील आन्दोलन प्रगतिशील विचारधारा के साथ जुड़े हुए हैं, आप आगे का क्या रास्ता देखते  हैं यहाँ से ? खासकर प्रगतिशील आन्दोलन के लिए, क्यूंकि ऐसा तो नही है की हथियार डाल के हार मानी जा सकती है इस दौर में ?

अपूर्वानंद- नही हथियार डाल के हार मानने का तो प्रश्न ही नही है और मैने जितनी बातें अब कही  हैं उनसे निराशा की झलक आ सकती है लेकिन यह भी सच है की जो भी सक्रिय हैं वो किसी और साधन के बल पे नही वो निजी साहस के बल पर सक्रिय हैं, अगर आप बहुत संकुचित रूप में देखें और सोशल मीडिया को ही देख लें, आप व्यक्तियों को देखे गए जिनकी कोई राजनीतिक सम्बद्धता नही है लेकिन उनकी तरफ से जो प्रतिक्रिया आ रही है वो बहुत समझदारी भरी प्रतिक्रिया है और वे ये खतरा उठाते हुए कर रहे हैं की उनकी पहचान हो सकती है, ऐसे मामले हो चुके हैं जिसमे फेसबुक पे एक पोस्ट लगाने के चलते आप जेल जा चुके हैं, अगर आपके पास कोई सांस्थानिक समर्थन नही है तो आपके जेल जाने का क्या मतलब होता है ये तो आपको पता है।  तो मैं ये कह रहा हूँ की निराश होने की वजह इसलिए नही है कि बहुत सारे लोग इस खतरे को जानबूझ कर उठा रहे हैं, उम्मीद की किरण मुझे छोटे छोटे आन्दोलनों से दिखाई पड़ती है, जिनको अब तक किसी दल ने अपनाया नही है या जो दल के द्वारा चलाये आन्दोलन नही हैं, एक छोटी सी जगह पे भूमि विस्थापन के खिलाफ चल रहा आन्दोलन हो,  परमाणु ऊर्जा के खिलाफ लोगों का चल रहा आन्दोलन हो, जिन पे सात हजार से ज्यादा लोगों पर देशद्रोह  का मुक़दमा किया हो और वो लोग अड़े रहे पीछे नही हटे।  किसी राजनीतिक दल ने उसे अपनाया नही, उन्होंने किसी से अनुरोध नही किया की आप हमें  अपना नेत्तृत्व प्रदान करें।  
नकुल -कुछ मजदूर आन्दोलन भी देखें चाहे मारुति का आन्दोलन था, वज़ीरपुर का आन्दोलन था अभी पीछे, तो उसमे भी कही पे भी किसी भी बड़े राजनैतिक दल को अपनाने नही दिया बल्कि 
अपूर्वानंद- सामूहिक पहल और संघर्ष इनमे आशा है, और आशा व्यक्तियों में भी है, शिक्षा में भी है, मुझे जो सबसे दिलचस्प चीज़ लगती है जिसपर अब तक किसी का ध्यान नही गया है पिछले डेढ़ वर्षों में हास्य की वापसी। मैं इसे रिटर्न ऑफ़ ह्यूमर कहता हूँ, सिर्फ सोशल मीडिया के हवाले से कह रहा हूँ, अगर आप सोशल मीडिया को देख लें तो इतने तरीकों  से लोग मज़ाक उड़ा रहे हैं, व्यंग कर रहे हैं। तस्वीरों का सहारा ले रहे हैं,पोस्टरों का सहारा ले रहे हैं, स्केचेस का  सहारा ले रहे हैं, किसी के शेर का सहारा ले रहे हैं, मुझे इतना हास्य की अभिव्यक्ति पहले नही दिखाई पड़ी।  मुझे लग रहा था की समाज बहुत गंभीर हो गया है लेकिन इतना ज्यादा हास्य और व्यंग है अगर इसको इकठ्ठा  ही कर लिया जाये तो आपने आपमें ही कई किताबें हो जायेंगीं। इनसे पता चलेगा की प्रतिक्रिया करने की, आपने आपको व्यक्त करने की, ये दो चीजें हैं जिनके आधार पर प्रतिरोध कर रहे  हैं, तो मैं ये मानता हूँ की अगर एक देश में हँसने की क्षमता बची है इसका मतलब प्रतिरोध की संभावना ख़त्म  नही हुई है, इसलिए मेरे लिए निराश होने का कोई कारण नही है।  इसके आलावा कोई उपाय नही है की लोग बोलते रहें, आकेले बोलें, समूह में बोलें, विश्लेषण करें, अपनी बात बताएं।  हालाँकि एक शोर है जो सुनने न दे लेकिन आवश्यक ये है की आप दर्ज करें। 

नकुल - न्यूज़क्लिक पर आने के लिए आपका धन्यवाद और आगे भी ऐसे  मुद्दों पर आपसे चर्चा होती रहेगी।  

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