इतवार की कविता : सत्ता, किसान और कवि
सत्ता, किसान और कवि
सत्ता का गिरगिट
बदलता रंग आंख काढ़ कर
मौके मौके पर
खालिस अपने ही
फायदे की खातिर;
मगर
किसान और कवि
प्रकृति में अपने रंग ढाल कर
युगों में बल भर कर
देता बदल
समय को ही
मानवीय
चेतना जगा कर |
दांव
रखती हूँ आखिरी गोट
चौपड़ के बीच
उस कानून के खिलाफ
जो नहीं बदलती हाशिये की नियति
चूंकि ये आँखें महज़
दरिद्रता और स्वप्न में
मरते गुल देखने के लिए
नहीं बनी!
मुखालिफत तो करेंगी ही !
बहार की नरम चोटों में
खिलती खिलखिलाहट की जूही के
पार थीं वे गोटें –चोंटे ...
और मेरी कई चुनौतियाँ
माँ की सीखों के बीच
घर था बड़ी आँख
तीसरे पहर का
मेरी बाई आँख के घाव सा
यह सिमसिमा सन्नाटा
करकराता
सांप की केंचुल सा
व्यर्थ
मेरी दहलीज़ पर,
दीवारों से सटा हुआ
गमलों से लिपट
तो इसे उठाएगा
चढ़ा हुआ सूरज ही
इसमें डाल कर
काली सुराख़...
मेरा बचा घाव
पूरने की प्रतीक्षा में
(?)
हो तो, गनीमत! ख़ुदा न ख़ैर!
शेष मगर
एक प्रश्न :
घर था आँख –विशाल आंख
जिसे चूमती थी कविता
विभोर होकर
जब तब....
सड़क पर
माँ का हाथ थामे
सृष्टि के सबसे सुंदर,
अद्भुतता के अवतार
नन्हे मुन्नों की कतार पर
अघा जाती
ममता से सराबोर
माँ की सुगन्धित अस्मिता ;
तब आखिर है अब भी
क्यों घायल आँखवाला मेरा घर
किस इन्तजार में बेताब?
- प्रेमलता वर्मा
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