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चुनाव 2019 : तमिलनाडु का चुनावी गणित

2016 के विधानसभा चुनाव के आंकड़ों के आधार पर विश्लेषण से पता चलता है कि लोकसभा चुनाव में एआईएडीएमके मोर्चे को मिला 5 फीसदी का एक छोटा सा स्विंग भी एआईएडीएमके के लिए गंभीर नुकसान साबित हो सकता है। इसे सीटों में समझा जाए तो एआईडीएमके मोर्चे को 18 से 19 सीटों का नुकसान  हो सकता है और डीएमके फ्रंट को 21 सीटें मिल सकती हैं
tamilnadu

आम चुनाव 2019 की गाड़ी दूसरे चरण में पहुंच को पार चुकी है। आज तमिलनाडु राज्य के सारे सीटों पर मतदान होना तय किया गया था। लेकिन वेल्लूर लोकसभा सीट पर होने वाले चुनाव को रदद् कर दिया गया। रद्द करने  की वजह यह थी कि वेल्लूर सीट से डीएमके के उम्मीदवार के घर पर इनकम टैक्स डिपाटमेंट ने छापा डाला। और तकरीबन 11 करोड़ की नकदी काले धन के तौर पर पकड़ा।  यह अंदेशा लगया गया कि इस काले धन का इस्तेमाल चुनावों में जमकर किया जाएगा।  इसलिए चुनाव को रद्द कर देना चाहिए। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि डीएमके का गठबंधन कांग्रेस से है और चुनाव आयोग की इस समय की हरकतें ऐसी है, जैसे वह भाजपा की कठपुतली हो। इसलिए प्रक्रिया के तौर पर यह कार्रवाई  काम लगने के बावजूद भी ओर इशारा करती है कि चुनाव करवाने के लिए बनी सबसे प्रभावी समझौता भी मौजूदा सत्ताधारी पार्टी की कठपुतली बन चुकी है।  

इस अजीब माहौल में इस समय की तमिलनाडु की चुनावी माहौल को समझने की कोशिश करते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में तालिनाडु के 39 लोकसभा सीटों में तकरीबन 37 लोकसभा सीटों पर AIADMK ने जीत हासिल की थी। मतलब यह साफ़ तौर पर कहा जा सकता है कि मोदी लहर के बीच AIADMK की सुनामी भी थी। लेकिन इस बार यह सुनामी भी भाजपा में समा चुकी है। AIADMK की सुप्रीमो जयललिता और डीएमके के सुप्रीमो करूणानिधि के मरने के बाद तमिलनाडु की चुनावी राजनीति से वह नाम गयाब थे, जिनके दम पर तमिलनाडु में वोटों की गोलबंदी की जाती थी। उसके बाद हुआ यह है कि तमिलनाडु की राजनीति में कुछ नए और चर्चित चेहरों ने एंट्री की। साथ में तमिलनाडु  के पुराने खिलाड़ियों को भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियां अपनी तरफ लाने की कोशिश करने लगीं। ऐसा क्यों किया जा रहा है, इसे समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि तमिलनाडु की राजनीति में क्षेत्रिय दलों का क्या  दबदबा है? 

जब उत्तर भारत में जातीय राजनीतिक की सुगबुगाहट शुरु नहीं हुई थी तब तमिलनाडु में दलित और पिछड़ी जातियों को लेकर राजनीतिक आंदोलन अपना रंग जमा चुका था। वर्ष 1944 में ईवी रामास्वामी यानी पेरियार ने जस्टिस पार्टी का नाम बदलकर 'द्रविड़ कड़गम' कर दिया।  ये एक ग़ैर राजनीतिक पार्टी थी जिसने पहली बार द्रविड़नाडु (द्रविड़ों का देश) बनाने की मांग रखी थी। साल 1956 में पेरियार और सीएन अन्नादुरई के बीच मतभेद हो गए और पार्टी टूट गई।  अन्नादुरई ने द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) का गठन किया।  डीएमके ने 1956 में राजनीति में प्रवेश करने का मन बनाया। साठ के दशक में हिंदी के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन ने डीएमके को ताक़त दी और 1967 में डीएमके ने राज्य से कांग्रेस का सफ़ाया कर दिया। सीएन अन्नादुरई डीएमके के पहले मुख्यमंत्री बने. लेकिन 1967 में उनकी मृत्यु हो गई और एम करुणानिधि मुख्यमंत्री बने। अभी करुणानिधि को मुख्यमंत्री बने बहुत समय नहीं हुआ था कि वर्ष 1969 में उनके नेतत्व को एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) ने चुनौती दी। 1972 में डीएमके का विभाजन हो गया और एमजीआर ने ऑल इंडिया द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) का गठन किया। एमजीआर के निधन ने एआईएडीएमके में भी बँटवारा कर दिया। एक धड़ा उनकी पत्नी जानकी रामचंद्रन के साथ था और दूसरा जे जयललिता के साथ। लेकिन 1989 में एआईएडीएमके की हार के बाद दोनों धड़े फिर एक हो गए। इसके बाद भी डीएमके और एआईएडीएमके में छोटी-मोटी टूट-फूट होती रही लेकिन यही दोनों दल बारी-बारी से सत्ता संभालते रहे। 

डीएमके और एआईएडीएम के अलावा 1990 के दशक में जातीय राजनीति के उभार के बाद छोटे-छोटे दलों का उभार हुआ। टीएमसी, पीएमके, वीसीके, एमडीएमके और केएमपी जैसे दलों ने तमिलनाडु के अलग-अलग इलाक़ों में अपना वर्चस्व कायम किया और फिर वे डीएमके और एआईएडीएमके साथ गठबंधन बनाते रहे। डीएमके और एआईएडीएमके दोनों बारी-बारी से केंद्र सरकार के गठन में अहम भूमिका निभाते रहे। 

अब जब करुणानिधि और जे जयललिता के मरने के बाद  तमिलनाडु की चुनावी राजनीति  का पूरा मैदान खाली हो चूका है।  तो नया चुनावी राजनीतिक  समीकरण कुछ ऐसा बना है। एआईएडीएमके के साथ बीजेपी,पीएमके,डीएमडीके के विजयकांत और डीएमके के साथ कांग्रेस, डीएमके,वीसीके  और लेफ्ट पार्टियां मिलकर एक दूसरे के खिलाफ लड़ रही हैं।  

जे जयललिता के बाद एआईएडीएमके की अगुवाई कर रहे  पनीरसेल्वम उस तरह से जनता को आकर्षित नहीं करते नहीं दिख रहे, जिस तरह जे जयललिता की अगुवाई वाली एआईएडीएमके करती थी। साथ में जे जयललिता के राजनीतिक जीवन की सबसे भरोसेमंद दोस्त शशिकला के भांजे दिनाकरन की अगुवाई वाली  Amma Makkal Munnetra Kazhagam (AMMK) भी इस चुनाव में एआईएडीएमके के जमे जमाए वोटों को तरफ खींचेगी।  इस तरह एआईएडीएमके के लिए जे जयललिता का न होना, पार्टी का दो फाड़ में बंट जाना, ऐसी स्थितियां हैं जो एआईएडीएमके के खिलाफ पहले से जा रही थी। अब बात करते हैं  एआईएडीएमके के साथ भाजपा के गठबंधन की।  तमिलनाडु में एक ऐसा राज्य हैं जहाँ भाजपा के खिलाफ सबसे मजबूटी हवा बहती है। कुल- मिलाजुलाकर यह कहा जा सकता है कि तमिलनाडु के लोगों के लिए भाजपा जैसी ब्राह्मणवाद और एकरंगी हिंदुस्तान की चाहत रखने वाली पार्टियों का कोई हैसियत नहीं।  यानी तमिलनाडु की चुनावी राजनीति में  कोई भी गंभीर दावेदारी रखने वाला राजनीतिक दल भाजपा से दूरी बनाकर ही चलेगा। तो सवाल उठता है कि एआईएडीएमके जैसी पार्टी ने भाजपा से गठबंधन क्यों किया ? जवाब साफ है इनकम टैक्स डिपार्टमेंट से लेकर सीबीआई जैसी संस्थाओं को एआईएडीएमके के नेताओं के पीछे लगा देने का डर।  इस तरह से  इस चुनाव में  एआईएडीएमके का चमकने वाला सूरज भाजपा के संगत से अस्त होता हुआ दिख रहा है। एआईएडीएमके के लिए देखने वाली बात यही है कि पीएमके,डीएमडीके के विजयकांत किस तरह का कमाल दिखा पाते हैं।इस तरह से अबकी  बार की चुनावी राजनीति  में डीएमके प्रभावी दिख रही है। करूणानिधि के बेटे स्टालिन की अगुवाई में लड़ रही डीएमके कांग्रेस और लेफ्ट वाला मोर्चा तमिलनाडु में सबसे प्रभावी दल के तौर पर उभर कर सामने आ रहा है । 

राज्य में भाजपा और पीएम नरेंद्र मोदी की अलोकप्रियता सहित ये सभी कारक, अन्नाद्रमुक-भाजपा गठबंधन की हार की ओर इशारा करते हैं, जिसमें पट्टली मक्कल काची (पीएमके और अन्य) जैसे कई छोटे दल शामिल हैं। 

2016 के विधानसभा चुनाव के आंकड़ों के आधार पर विश्लेषण से पता चलता है कि लोकसभा चुनाव में  एआईएडीएमके मोर्चे को मिला 5 फीसदी का एक छोटा सा स्विंग भी एआईएडीएमके के लिए गंभीर नुकसान साबित हो सकता है। इसे सीटों में समझा जाए तो एआईडीएमके मोर्चे को 18 से 19 सीटों का नुकसान  हो सकता है और डीएमके फ्रंट को 21 सीटें मिल सकती हैं। इसका मतलब है कि जैसे ही स्विंग में बढ़ोतरी होगी, परिणाम डीएमके के नेतृत्व वाले मोर्चे की ओर अधिक झुकता चला जाएगा। 

सबसे संभावित परिदृश्य क्या हो सकता है?

बेरोजगारी, किसानों के संकट, बुनियादी ढांचा बनाने के नाम पर जमीन हड़पने, थुटुकुड़ी फायरिंग और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की वजह से  भाजपा के खिलाफ लोगों का बढ़ता हुआ गुस्सा हो सकता है कि स्विंग  7 फीसदी तक लेकर चले जाए। ऐसे में डीएमके मोर्चे को 28 और एआइडीएमके को केवल 11  सीटें मिलती दिखती हैं। 

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विशेषज्ञों का मानना ​​है कि AIADMK मोर्चा सभी छोटी पार्टियों के समर्थन के कारण ही इन सीटों को जीतने का प्रबंधन करेगा जो विभिन्न जाति समुदायों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस समर्थन के बिना, उनका प्रदर्शन और भी बिगड़ जाएगा।दूसरी ओर, DMK मोर्चा  दो वामपंथी दलों CPI और CPI (M) से फायदे में होगी, जिनका औद्योगिक श्रमिकों, कर्मचारियों और किसानों के बीच काफी लोकप्रियता है। तमिलनाडु एक औद्योगिक राज्य है और वामपंथी दलों से सम्बंधित ट्रेड यूनियन, विशेष रूप से सीटू औद्योगिक बेल्ट में काफी मजबूत है।

राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव 

तमिलनाडु में एआईएडीएमके-बीजेपी की हार से बीजेपी और एनडीए की संभावनाओं पर बड़ा असर पड़ेगा। केवल 11 सीटें जीतकर और 26 सीट गंवाकर एनडीए की स्थिति यहां बहुत कमजोर लगती है। उत्तर भारत के ज्यादातर राज्यों में भाजपा की हार अनुमान साफ़ तौर पर लगाया जा रहा है।DMK की अगुवाई  वाले गठबंधन (जिसमें कांग्रेस भी शामिल है) के लिए अनुमानित जीत केंद्र में  गैर-भाजपा सरकार की संभावनाओं को बढ़ाएगी। और अब तमिलनाडु से भी यह साफ दिख रहा है दक्षिणी के राज्यों में भी भाजपा की बुरी हालत है। इस तरह से उत्तर भारत में कमजोर स्थिति, दक्षिण भारत में संभावित हार और पूर्वी भारत में वोट पाने में अयोग्य भाजपा  की स्थिति से यह झलक रहा है कि भाजपा दिल्ली से दूर जा रही है। 

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