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पर्यावरण एवं वन विरोधी मंत्रालय?

अपने चुनाव अभियान के दौरान, प्रधानमंत्री मोदी ने बार बार विकास में बाधा डालने और भारत की आर्थिक वृद्धि को नुकसान पहुंचाने के लिए देश में प्रचलित पर्यावरण विनियमन की निंदा की। उस समय भी यह स्पष्ट था कि भविष्य में मोदी के नेतृत्व वाली सरकार विकास परियोजनाओं के लिए पर्यावरण की आपत्तियों से उत्पन्न होने वाली बाधाओं को तेजी से दूर करेगी, जिसकि मांग भारतीय कॉर्पोरेट लॉबी पहले से कर रही है, और जिसके लिए पहले से ही संप्रग द्वितीय सरकार ने अपने कार्यकाल के अंत में इस प्रक्रिया शुरुवात कर दी थी।

नए पर्यावरण मंत्रालय के अधीन, वन और जलवायु परिवर्तन (MoEFCC) को भाजपा के कहने पर इस मंत्रालय के अधीन जोड़ दिया है, उन्होंने इस आशय को जोकि पहले से कृतसंकल्प था को कार्रवाई में बदल दिया है। यहां तक ​​कि इस तरह के बदलाव की जिन लोगो को आशंका थी कुछ हद तक वे भी इस फैसले और जिस तेज़ी से इसे लिया गया से हैरान है। वैसे भी, पर्यावरण विनियमन मुश्किल से अपनी वैधता स्थापित कर पायी है और जबकि वह भारतीय शासन तंत्र में अपना उचित स्थान खोज रही है, लगातार कॉर्पोरेट हलकों और मजबूत राजनीतिक और नौकरशाही निहित स्वार्थों से उसे विरोध का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे समय में जब पर्यावरण विनियमन सबसे विकसित देशों में और कई बड़ी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में मुख्यधारा में शामिल है, कोई भी आशा व्यक्त कर सकता है कि भारत भी शासन प्रणाली को संस्थागत करने की दिशा में कदम उठाएगा जो न ही तो विकास और पर्यावरण को विरोधाभासी मानेगा और न ही विरोधी क्योंकि दोनों ही एकीकृत सतत विकास के लिए आवश्यक हैं।

सौजन्य: envfor.nic.in

यद्दपि इसके विपरीत, मोदी सरकार जो कदम उठा रही है उसके जरीए वह नवजात पर्यावरण नियामक प्रणाली और भारत में संस्थागत संरचना को तबाह कर देना चाहती है। काफी लोग इस बात से सहमत होंगें कि पहले कुछ हद तक तदर्थ, व्यक्तिपरक और नौकरशाही प्रणाली की वजह से देरी और अनिश्चितता के माहौल से पर्यावरण में निवेश से हानि पहुंचती थी, और ऐसी परियोजनाओं को लंबित रखने से की वजह से और कोई रास्ता न निकालने के कारण कई महत्वपूर्ण विकास परियोजनाओं को मंजूरी नहीं मिली। लेकिन वर्तमान व्यवस्था इस मामले में ज्यादा उत्सुक नज़र आ रही है, और इसी का नतीजा है कि पर्यावरण मंजूरी को दिनचर्या बना दिया है और पर्यावरण आकलन एक अपवाद बन कर रह गया है। इस प्रकार प्राकृतिक संसाधनों के समग्र शोषण के लिए विस्तृत दरवाजे खोल दिए गए हैं और जिसकी वजह से राष्ट्र और पर्यावरण की बड़े पैमाने पर क्षति खासकर भावी पीढ़ी को इसकी भारी कीमत चुकानी होगी।

तुरंत मंजूरी

परियोजनाओं को ख़तरनाक गति से MoEFCC द्वारा मंजूरी दी जा रही है। 140 से अधिक लंबित परियोजनाओं के पुर्नोत्थान को मंजूरी दे दी गयी वह भी अपनी मर्जी से बनायी गयी समितियों द्वारा। एक सौ से अधिक परियोजनाओं के लिए बहुत ही जल्दी समय में वन मंजूरी दे दी गयी। नए दिशा निर्देशों के तहत कई कोयला खदानों को भी अनुमति दे दी गयी।

समस्या यह है कि अनुमति प्रक्रिया और मापदंड पहले से भी अधिक तदर्थ है। कोई भी वैज्ञानिक मापदंड निर्धारित नहीं किया गया है और अनुमोदन की प्रक्रिया में कोई भी पारदर्शिता नहीं है। जबकि मंत्रालय अब अधिक से अधिक पारदर्शिता का दावा करते हैं, और इसके लिए वे समय सीमा के साथ नयी शुरू की गयी ऑन लाइन आवेदन पत्र प्रक्रियाओं का हवाला देते हैं, यह तथाकथित पारदर्शिता मंजूरी के लिए अपनाए मानदंडों के साथ मेल नहीं खाती है। जबकि पहले अनुमोदन समिति की बैठकों की विस्तृत मिनट प्रकाशित की जानी थी, और अब मंत्रालय की वेबसाइट निर्णय लेने की प्रक्रिया को स्पष्ट किये बिना केवल दी गयी मंजूरी को सूचीबद्ध करती है। ऐसा लगता है कि  केवल कुछ आपत्तिजनक पारिस्थितिक नुकसान ही पर्यावरण मंजूरी के अंधे रास्ते को रोका सकता है ऐसा प्रतीत होता है! कई औद्योगिक, खनन और ढांचागत विकास परियोजनाओं को या तो सरसरी तौर पर मंजूरी दे दी गई है या आने वाले महीनों में मंजूरी दिए जाने की उम्मीद है, इस बात का पता तब चला जब मंत्रालय के अधिकारियों ने मीडिया को ऑफ़ द रिकार्ड ये बात कही।

लंबे समय से लंबित रेणुका बांध परियोजना जो हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में यमुना की एक सहायक नदी है और जिससे दिल्ली को पानी की उम्मीद है, को वन सलाहकार समिति (एफएसी) ने मंजूरी दे दी है। सूचना के अनुसार आदिवासी और वन निवासी अधिकार का समाधान नहीं किया गया है और न ही अपेक्षित भूमि पूरी तरह से सीमांकन किया गया है, एफएसी संबंधित एजेंसियों से आवश्यक दस्तावेजों की मांग कर रही है वह भी वन अधिनियम अनुसूचित जनजाति अधिनियम के तहत आवश्यक रूप से अनुमति लिए बिना। मोदी सरकार स्पष्ट इस परियोजना के लिए बहुत उत्सुक थी यह इस बात से पता चलता है कि पर्यावरणीय मंजूरी प्राप्त हुए बिना ही केंद्रीय बजट में किए 50 करोड़ रुपये का प्रावधान कर दिया!

रेणुका बांध परियोजना विवादों से घिरी है, सिर्फ इसलिए नहीं कि जंगल की 900 हेक्टेयर से अधिक भूमि को इसमें शामिल कर लिया गया है और कई गांवों का विस्थापन हो गया है। बांध का मुख्य उद्देश्य, दिल्ली को पानी की आपूर्ति करना है, इससे पहले पर्यावरण मंत्रालय ने दिल्ली को पानी वितरण घाटे को कम करने और मांग प्रबंधन को सुधारने के लिए कहा है, मंत्रालय ने कहा कि महंगे और प्रयावरण के आधार पर जिन पर प्रशनचिंह लगा है ऐसी राज्यों से बहार की परियोजनाओं से अतिरिक्त पानी की मांग करने से पहले जल संसाधन को बढाने और पानी के स्रोतों के कुप्रबंधन को सुधारने के लिए कहा है।

मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिले के कालीसिंध की एक बाँध परियोजना, जोकि परबीती-कालीसिंध-चम्बल नदी को जोड़ने की परोयोजना है जिसमें मध्य परदेश और राजस्थान दोनों शामिल है, को भी कम ही समय में तब अनुमति दे दी गयी जब नदी प्रवाह को बनाए रखने को जल-वैज्ञानिक की वजह से महत्व प्रदान किया गया।

नदीयों को जोड़ने और अन्य बड़ी परियोजनाओं से जो भाजपा को इश्क है,चाहे फिर पर्यावरण को जितना भी नुकसान हो, उसका एक और उदाहरण है केन-बेतवा नदी जुड़ाव परीयोजना जिसे कि उमा भारती द्वारा चलाये जाने वाले जल संसोधन मंत्रालय द्वारा अनुमति के लिए दबाव बनाया जा रहा है और इसके तहत मध्य प्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व की 6000 हेक्टेयर भूमि को भी इसमें शामिल करने का प्रस्ताव है, यह परियोजना भी न और वन्य जीव समिति से अनुमति लेने के काफी नज़दीक है। पाठकों को याद होगा कि पन्ना में टाईगर की छोटी सी संख्य को अन्य जगहों से लाकर यहाँ बसाया गया है बड़ी मुश्किल से बाघों अनिश्चित अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जोकि पिछले दशक के दौरान पन्ना रिजर्व में विलुप्त हो गया था के लिए जद्दोजहद करनी पद रही है। 1600 से ज्यादा घर विस्थापित हो जायेगें, जिनमे पन्ना रिजर्व के भीतर ही 800 से ज्यादा घर हैं, उन्हें प्रासंगिक वन्य जीवन से संबंधित प्रावधानों के आधार पर मुआवज़ा दिया जाएगा न कि विकास परियोजनाओं की वजह से विस्थापन या भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत जिसमे ज्यादा पैसा मिलता है।

कई अन्य औद्योगिक और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए सारांश मंजूरी पाइप लाइन में है। अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह जैसे संवेदनशील इलाके में ओएनजीसी के तेल की ड्रिलिंग परियोजना, गुजरात के जामनगर में रिलायंस की पोस्ट फविलितिज परियोजना, दहेज में एसईजेड से जुडी परियोजना, और  गुजरात में भरूच जिला से संबंधित बुनियादी सुविधाओं से जुडी योजना शामिल है।

ये और अन्य मंजूरियां, जांच और विचार प्रक्रियाओं को संशोधित करके किया गया है, और अक्सर कार्यालय ज्ञापन और परिपत्रों के माध्यम से किया गया है। और जैसा कि हम बाद में देखते हैं इनमें से ज्यादातर को मौजूदा कानून और नियमों की धज्जियाँ उड़ाकर अनुमोदन किया है और कानूनी चुनौतियों को दर-किनार कर दिया गया है। इस बात की गंभीर तैयारी चल रही है कि प्रयावरण कानून और अन्य सम्बंधित वैधानिक प्रावधानों में भारी बदलाव लायें जाएँ।

नियामक संस्थाओं पर हमला

इस बात के साक्ष्य बढ़ रहे हैं कि पर्यावरण नियमन के लिए संस्थागत ढाँचे को जानबूझकर और व्यवस्थित ढंग से ध्वस्त किया जा रहा है। जिसका पहले से ही उल्लेख किया गया है, परियोजनाओं की जांच करने के लिए और मंजूरी देने के लिए विभिन्न समितियों का जो गठन किया गया है उनमें वही लोग है जो भाजपा सरकार के विचार से सहमत हैं और फास्ट ट्रैक मंजूरी को ही डिफ़ॉल्ट विकल्प मानते हैं और जिनके लिए पर्यावरण के आधार पर आपत्ति दुर्लभ अपवाद होगा। जहां आवश्यक हो, इन समितियों के गठन के संबंध में नियम भी नजरअंदाज किये जा रहे है या उन्हें संशोधित किया जा रहा है। अधिकारियों से विवेकाधीन शक्तियों को दूर करने के लिए इन समितियों का गठन किया गया है, यह उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता है अगर समितियों में अपने आज्ञाकारी व्यक्तियों को भर लेते हैं, परियोजनाओं के लिए स्पष्ट अधिकार जिसकी इच्छा व्यक्त की जा रही है, परियोजनाओं की ईमानदारी से जांच नहीं करते हैं जोकि स्पष्ट मानदंडों और गैर पारदर्शी निर्णय लेने की प्रक्रिया का पालन नहीं करते हैं।

ठीक से वैधानिक वन्यजीव बोर्ड के गठन के बिना वन्यजीव मंजूरी के लिए मंत्रालय ने कथित रूप से शिकायत की स्थायी समिति का गठन किया था। यह समिति और इसके द्वारा हाल ही में वन्यजीवन से सम्बंधित दी गई मंजूरी को सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त कर दिया गया और उसने कहा कि वन्यजीव कानून के तहत वन्यजीव अधिनियम बोर्ड का पुनर्गठन किया जाए जिसमें बाहरी विशेषज्ञों के अलावा गैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधित्व भी होने चाहिए। मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के मार्गदर्शन के तहत मंत्रालय ने  बोर्ड के पुनर्गठन का फैसला किया है और उसमें अपने ही चाहने वालों को रखा है जो निर्णयों को लागू कर पायेंगें, यह सब कानून और  प्रावधानों और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की धज्जियाँ उड़ाने के लिए किया गया है।

पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए) से उत्पन्न बाधा को केंद्र से राज्यों को ईआईए प्रक्रिया स्थानांतरण के द्वारा दूर किया जाने का प्रस्ताव है। सिद्धांत रूप में विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया पर कोई भला आपत्ति क्यों करेगा, व्यवहार में बड़ी परियोजनाओं का पर्यावरणीय विनियमन एक संघीय नियामक द्वारा ही किया जाता है, यह परंपरा ज्यादातर देशों में और साथ ही भारत में अन्य क्षेत्रों में भी अभ्यासरत है, जिसका कि सर्वोपरि अधिकार क्षेत्र ही नहीं है बल्कि जिसमें बेहतर क्षमता और संसद के माध्यम से राष्ट्रीय जवाबदेही भी है। यह भी जाना जाता है कि राजस्व के भूखे और निवेश की भूख सबको एक-दुसरे के साथ प्रतोयोगिता में लाकर खड़ा कर देगी, और खुद को सनकी और ताकतवर केंद्र बनाने की होड़ केंद्र सरकार से भी ज्यादा कॉर्पोरेट दबाव को बढ़ा देगी। ईआईए के राज्यों को अधिकार देना MoEFCC द्वारा उठाए गए एक सुविधाजनक विकल्प है जो पर्यावरण विनियमन के संस्थागत संरचना की गरीमा को और गिरा देगा।

 मोदी सरकार ने भी सक्रिय रूप से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की जड़ काटने के लिए काम कर रही है। प्रस्ताव यह है कि NGT को निष्क्रिय कर उसे  सिफारिशी या प्रशासनिक संस्था बना दे ताकि यह निर्णयों को चाह कर भी मना ना कर सके। और इस मामले में विभिन्न मौजूदा कानून पर विचार किया जा रहा है कि इन परिवर्तनों का रास्ता और कार्यकारी शाखा के अधिकार की बेरोक-टोक कसरत जारी रह सके, इसके लिए सरकार ने अधिनियम 1986 के पर्यावरण संरक्षण कानून, वन संरक्षण अधिनियम 1980, वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972, जल (प्रदूषण का निवारण और नियंत्रण) अधिनियम 1974 और वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम 1981 की जांच के लिए एक समिति का गठन किया है, एक स्पष्ट आदेश देते हुए कहा कि मौजूदा "उद्देश्यों को पूरा करने के लिए वर्तमान आवश्यकताओं के साथ इन अधिनियमों में प्रत्येक में आवश्यक विशिष्ट संशोधन सलाह चाहिए।" मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की वर्तमान आवश्यकताओं और उद्देश्य काफी स्पष्ट दिखाई देते हैं क्योंकि वे "कमांड प्रदर्शन" सिफारिशों की आशा करते हैं।

 

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।

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