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न सिर्फ़ हरियाणा-पंजाब : किसान आंदोलन को पूरे देश का समर्थन

झारखंड, केरल, मध्य प्रदेश, तेलंगाना और अन्य राज्यों से किसानों ने आंदोलन में शिरकत की है, और इस आंदोलन ने पंजाब-हरियाणा के संबंधों को भी गहरा बना दिया है।
किसान आंदोलन

पिछले ही हफ्ते एक पत्रकार ने भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत से पूछा कि किसान कब तक दिल्ली की सीमाओं पर डटे रहेंगे। अगर केंद्र सरकार के साथ बातचीत विफल हो गई तो क्या होगा; तो क्या किसान अनिश्चित समय तक डटे रहेंगे? बड़े विश्वास के साथ  टिकैत ने कहा कि किसानों ने मई 2024 तक दिल्ली में रहने की तैयारी कर ली है- जिस वर्ष अगला लोकसभा चुनाव होना है- और तब तक वे सिंघू बॉर्डर से भी नहीं हटेंगे। 

सच यह है कि इस तरह की बड़ी तादाद के साथ लंबा आंदोलन चलाने की संभावना कम होती है, लेकिन तीन कृषि-कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन ने जिस तरह का स्वरूप लिया है, वह निश्चित रूप से अपनी तीव्रता को खोए बिना कई महीनों तक चल सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि दिल्ली में जो विरोध प्रदर्शन दिखाई दे रहे हैं, वे केवल आंदोलन की शूटिंग भए हैं- इन आंदोलन की असली जड़ें सिंघू या टिकरी बार्डर या राजधानी की अन्य सीमाओं पर नहीं हैं, बल्कि इनकी गहरी जड़ें विभिन्न राज्यों के गांवों के भीतर हैं। 

पूरा पंजाब जाग गया है

पंजाब के रोपड़ जिले के ओइंड गाँव के एक स्थानीय गुरुद्वारा के लाउडस्पीकर से सुबह-सुबह  स्थानीय लोगों को की जाने वाली घोषणा सिंघू बार्डर एनसीआर के इर्द-गिर्द चल रहे किसान आंदोलन के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी बन गई है।

स्थानीय ग्रन्थि, संघर्षरत किसानों के लिए राशन और अन्य आवश्यक वस्तुओं को इकट्ठा करने के लिए गुरुद्वारे के बाहर खड़ी ट्रैक्टर ट्रॉलियों के बारे में ग्रामीणों को बताते है ताकि सब दिल खोल कर योगदान कर सकें। इसके बाद, वे ग्रामीणों को उन किसानों और परिवारों की खेतों की देखभाल करने के लिए कहते हैं जो घर से दूर हैं आंदोलन में शिरकत कर रहे हैं।

ओइंड पंजाब का एकमात्र गाँव नहीं है, जहां इतनी ठंड के बावजूद गुरुद्वारे इस विशाल किसान आंदोलन को ताकत दे रहे हैं।

ओइंड गांव के भूपिंदर सिंह खरोद कहते हैं, "मेरे पास ऐसे मजदूर हैं जो मेरे खेतों की देखभाल कर सकते हैं, लेकिन कई परिवारों में केवल एक ही पुरुष सदस्य है और वह भी आंदोलन में शामिल है।" स्थानीय गुरुद्वारा लोगों को ऐसे परिवारों की मदद करने की गुजारिश करते हैं। पड़ोसी वास्तव में फसलों और जानवरों की देखभाल करने में उनकी सहायता कर रहे हैं। यह एक बड़ा कारण है कि आंदोलन का यह क्षण ऐतिहासिक बन गया है।

दिसंबर के पहले सप्ताह में, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (SGPC) ने पंजाब भर के विभिन्न ऐतिहासिक गुरुद्वारों में तीन विवादास्पद कृषि-कानूनों के खिलाफ किसानों की लड़ाई के लिए सामूहिक प्रार्थना की थी। पीटीआई की एक रिपोर्ट के अनुसार, हरमंदिर साहिब में प्रार्थना सभा के दौरान, प्रधान ग्रंथी ज्ञानी जगतार सिंह ने कहा, ''कृषि कानूनों को निरस्त किया जाना चाहिए। गुरु साहिब को देश की सरकार को अच्छी समझ दे ताकि वह मानवता की भावनाओं को समझ सके।"

ये केवल पंजाब और हरियाणा के किसान नहीं हैं

सरकार और मीडिया का एक वर्ग बार-बार दावा कर रहा है कि कृषि विरोधी कानून केवल पंजाब और हरियाणा के किसानों तक ही सीमित है। लेकिन कई अन्य राज्यों से आए किसान लगातार सिंघू बार्डर और अन्य सीमाओं पर आंदोलन में शामिल हो रहे हैं। केरल से एक हजार किसान 26 जनवरी को होने वाली ट्रैक्टर रैली में शामिल होने दिल्ली आ रहे हैं। राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और अन्य क्षेत्रों के किसान बड़ी संख्या में आंदोलन स्थलों पर दिखाई दे रहे हैं।

जॉन ओरांव झारखंड के पलामू जिले से आए हैं और धान की खेती करने वाले छोटे किसान हैं। वे पिछले सप्ताह एक पारिवारिक समारोह के लिए जम्मू में थे। वे घर लौटने के बजाय, मकर सक्रांति [यानि 14 जनवरी को] शाम को सिंघू बार्डर पर किसान आंदोलन में शामिल हो गए। मुझे सोशल मीडिया के जरिए आंदोलन के बारे में अपडेट मिल रहे थे। हर बार जब भी मैं क्लिप देखता, तो मैं खुद से कहता कि मुझे वहाँ होना चाहिए था। "अंतत मैं यहाँ हूँ। मैं एक अमीर किसान नहीं हूं, लेकिन मैंने 500 रुपये के बिस्किट खरीदे और उन्हें विरोध स्थल के पास एक चाय की दुकान पर सबके खाने के लिए रख दिया। उन्होने कहा कि, मुझे खुशी है कि मैंने अपने किसान भाइयों के लिए कुछ योगदान दिया है,”

मध्य प्रदेश के लगभग 2,000 किसान दिसंबर से पलवल के पास डेरा डाले हुए हैं। जून 2017 में जब मध्य प्रदेश में नौ जिलों में आंदोलन चल रहा था तो आंदोलनकारी किसानों के खिलाफ  पुलिस ने बड़ी हिंसक कार्रवाई की थी, आंदोलन की मांग फसल की ऊंची कीमते और कर्ज़ में  राहत देने की थी। 

सत्तारूढ़ भाजपा सरकार ने प्रदर्शनकारियों का जमकर दमन किया और मंदसौर में पुलिस गोलीबारी में पांच किसानों की मौत हो गई थी। 2018 के राज्य के विधानसभा चुनाव में इस आंदोलन का भाजपा के चुनावी प्रदर्शन पर असर पड़ा था।

मध्यप्रदेश के जिला अशोक नगर के मनेती गाँव के 45 वर्षीय किसान कर्मबीर सिंह जोकि गेंहू और चने की खेती करते हैं, कहते हैं कि, "जब मैं यहाँ हूँ तो सिर्फ मेरी माँ घर पर है, लेकिन मैं चिंतित नहीं हूँ क्योंकि मेरा दोस्त उनकी और मेरी फसलों की देखभाल कर रहा है।" ये कानून किसानों को मारने जा रहे हैं। लोग इस बात को जानते हैं और यही एकमात्र कारण है कि हर कोई इस आंदोलन का हिस्सा बनना चाहता है। वे यहां शारीरिक रूप से मौजूद हैं या नहीं, वे इसका समर्थन करते हैं। हर दिन, मेरे साथी गाँव से मुझसे पूछते रहते हैं कि यहाँ क्या हो रहा है,”

मध्य प्रदेश से ही एक अन्य किसान 65 वर्षीय शेर सिंह भी है, जो करमबीर के साथ पलवल में तैनात है। शेर सिंह अशोक नगर के धनवारा गाँव से हैं और गेहूँ, धान, गन्ने और छोले की फसल उगाते हैं। वे अपनी फसलों के बारे में चिंतित नहीं है, क्योंकि स्थानीय लोग उनकी देखभाल में मदद कर रहे हैं। वे तब तक घर नहीं लौटना चाहते जब तक सरकार तीनों कानूनों को रद्द नहीं कर देती। जब आप मंडी को बंद कर देंगे और निजी खिलाड़ियों को शर्तों को तय करने की आज़ादी दे देंगे, तो किसानों के पास शोषित होने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। मैं 65 वर्ष का हूं और यह नहीं जानता कि मैं कब तक जीवित रहूंगा, लेकिन मैं किसी को भी हमारे खून-पसीने की कमाई को लूटने की इजाजत नहीं दूंगा। इससे बेहतर होगा कि मैं यहां मर जाऊ। मैं इन कानूनों को रद्द करने तक घर नहीं जा रहा हूँ, ”शेर सिंह ने दृढ़ता से कहा। 

पंजाब-हरियाणा का नया साथ

1966 में पंजाब और हरियाणा दो राज्यों में विभाजित हो गए थे, लेकिन कृषि-कानूनों के खिलाफ जारी लड़ाई ने हरियाणवी और पंजाबी किसानों को एक बार फिर से करीबी परिवार बना दिया है।

दिसंबर के मध्य में, हरियाणा सरकार ने प्रदर्शनकारियों को जा रही की आपूर्ति में बाधा डालने  की पूरी कोशिश की, लेकिन राज्यों के किसान "बड़े भाइयों", पंजाबी किसानों का लगातार  समर्थन करते रहे। अब यह सर्वविदित है कि हरियाणा के गांवों और आंदोलनकारी किसानों के बीच आपसी सहायता का पूर्ण समन्वय, विश्वास और एक विकासशील संस्कृति बन गई है। हरियाणा के किसानों ने 27 नवंबर को पंजाबी युवाओं को कंटीले तारों वाले बैरिकेड, खाइयों, आंसू-गैस के गोले, पानी की तोप और लाठी का मुक़ाबला करने में मदद की थी।

फिर, राष्ट्रीय राजमार्गों के समीपवर्ती गाँवों में सामाजिक बातचीत और मौखिक घोषणाओं के जरिए दूध, सब्जियों और पानी जैसी वस्तुओं की आपूर्ति को कमजोर नहीं पड़ने दिया गया। यही कारण है कि पंजाब के दूर के सीमावर्ती जिले अमृतसर से आने वाले किसान भी पूरे रास्ते दिल्ली तक इस मदद से पहुंच पाए। 

जिला सोनीपत के गाँव सिसाना के जयपाल सिंह और हरियाणा में दहिया खाप के अन्य सदस्यों ने किसानों के आने के कुछ दिनों बाद सिंघू बॉर्डर से दो किलोमीटर दूर एक लंगर लगा दिया था। सिंह कहते हैं, "हर सुबह, हमारा ट्रैक्टर 700 या 800 लीटर प्लास्टिक के ड्रमों के साथ गांवों में घूमता है और आंदोलनकारी किसानों के लिए दूध और सब्जी दान करने के लिए कहता है।" कंटेनर और ट्रॉली को भरने में ज्यादा समय नहीं लगता है। यह हमारी लड़ाई है और हर कोई जानता है कि इन कानूनों के कारण हमें विनाशकारी परिणाम भुगतने पड़ेंगे। इसलिए, हर कोई इसमें शामिल है।

चूँकि राष्ट्रीय मीडिया इस आंदोलन को चुनिंदा ढंग से कवर कर रहा है और इस ठोस आंदोलन के बारे में गलत बयानबाजी कर रहा हैं, विरोध करने आए नए लोग इसके पैमाने को देखकर हैरान हैं। तेलंगाना के के॰ नारायण कहते हैं, "टीवी पर वे दिखाते हैं कि दिल्ली की सीमाओं पर मात्र 500-600 किसान विरोध कर रहे हैं।" उन्होंने कहा, ''वे यह भी बता रहे हैं कि पाकिस्तान, बांग्लादेश से आए लोग तथा आतंकवादी समूहों के सदस्य इसमें शामिल हैं। मैं यह सब खुद देखना चाहता था। पांच दिनों से मैं सभी आंदोलन के स्थलों का दौरा कर रहा हूं और मैं कह सकता हूं कि हजारों किसान तीनों कानूनों के खिलाफ इतनी ठंड में भी डटे हुए हैं। हमारे किसान भाई न केवल सरकार बल्कि ठंडे मौसम से भी लड़ रहे हैं। यह ऐतिहासिक पल है।"

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

 

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