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ओबीसी सूची निर्माण में क्या राज्य अपनी शक्तियां खो देगा?

राज्यसभा में 123वें संशोधन विधेयक-2017 के संबंध में चर्चा से पता चलता है कि सरकार या विपक्ष कौन पिछड़े वर्गों के लिए प्रतिबद्ध है।
ओबीसी सूची निर्माण में क्या राज्य अपनी शक्तियां खो देगा?

राज्यसभा में 123वें संशोधन विधेयक-2017 के संबंध में चर्चा से पता चलता है कि सरकार या विपक्ष कौन पिछड़े वर्गों के लिए प्रतिबद्ध है। ये विधेयक राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा प्रदान करता है। ये विधेयक लोकसभा में पारित कर दिया गया और राज्यसभा को भेज दिया गया। यह मुद्दा तब शुरू हुआ जब सभा की अध्यक्षता कर रहे पी.जे. कुरियन ने सदस्यों से पूछा कि क्या वे उन संशोधनों के लिए आगे बढ़ रहे हैं जो उन्होंने उक्त विधेयक पर मतदान के दौरान सुझाव दिया था। पांच सदस्यीय आयोग के लिए विधेयक में संशोधन को लेकर कांग्रेस के दिग्विजय सिंह, बीके हरिप्रसाद और हुसैन दलवाई ने आगे बढ़ाया था जिसमें इन पांच सदस्यों में सभी अन्य पिछड़ा वर्ग के हों और इसमें एक महिला और एक अल्प संख्यक भी हों जो वर्तमान के तीन सदस्यीय के खिलाफ था। इसको लेकर प्रभारी मंत्री थावर चंद गहलोत ने सदन को आश्वस्त किया था कि नियम निर्माण के समय इन नियमों को समाविष्ट किया जा सकता है। दिग्विजय सिंह ने इसे नकार दिया कि इस सरकार पर भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि वे "जुमला राजनीति" करते हैं। इस संशोधन के लिए वोट हुआ और सदन ने इसे 74 में से 52 मतों से पारित कर दिया।

मौजूदा राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग संसद अधिनियम 1993 के तहत अस्तित्व में आया। आयोग केवल "सूचियों में पिछड़े वर्ग के रूप में नागरिकों के किसी भी वर्ग" को शामिल करने या बाहर करने की मांग का परीक्षण कर सकता था। पिछड़ा वर्ग आयोग को राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोगों की तरह संवैधानिक समर्थन नहीं है। विधेयक जब पारित हो जाता है और इसे राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है तो इसमें संवैधानिक समर्थन प्राप्त हो जाता है और इसे एक सिविल कोर्ट की शक्तियां मिल जाती है। अस्तित्व में आने के बाद आयोग अन्य पिछड़े वर्गों की शिकायतों का निपटारा कर सकता है। "सुरक्षा उपायों से संबंधित सभी मामलों की जांच और निगरानी करने के लिए जो इस संविधान के अंतर्गत सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए प्रदान किया गया है या किसी अन्य कानून के तहत लागू होने के समय के लिए या सरकार के किसी भी आदेश के तहत और ऐसे सुरक्षा उपायों के काम का मूल्यांकन करने के लिए" यह अनिवार्य है।

यह इस संवैधानिक संशोधन का एकमात्र जनादेश नहीं है, विपक्ष के अनुसार विधेयक का सबसे विवादास्पद हिस्सा यह है कि यह राज्य की विधायिकी शक्तियों को दूर करने के लिए निर्णय लिया गया है कि राज्य स्तर पर ओबीसी सूची में कौन शामिल होगा या बाहर रखा जाएगा।

एमवी राजीव गौड़ा (सांसद) ने कहा कि यह स्पष्ट है कि एक बार 123वां संशोधन विधेयक पारित होने के बाद सिर्फ केंद्र सरकार ही तय कर सकेगी कि कौन सी जाति सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी है या नहीं। इस विधेयक में कोई भी ऐसी बात यह सुनिश्चित करने के लिए नहीं है कि राज्यपाल की राय लेने के लिए राष्ट्रपति बाध्य होंगे।

इस मुद्दे पर न्यूज क्लिक से बात करते हुए प्रोफेसर कंचलिया ने कहा कि केंद्र और मौजूदा राज्य पिछड़ा वर्ग आयोगों को स्वतंत्र रूप से काम करना चाहिए और उनका जनादेश अलग है। उन्होंने कहा कि राज्य के अधिकारों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।

क्या इसका मतलब यह है कि अगर कोई कोर्ट में जाकर कहता है कि राज्यों को 123 वें संवैधानिक संशोधन के तहत ओबीसी सूची बनाने शक्ति नहीं है तो वह अस्तित्व में नहीं आएगा?

आयोग की संरचना से संबंधित पहलू को भी देखा जाना चाहिए। 1993 के मौजूदा एनसीबीसी अधिनियम में स्पष्ट है कि 5 सदस्यों में से एक सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को अध्यक्ष होना चाहिए, एक सामाजिक विज्ञानी, दो सदस्य जिन्हें पिछड़ा वर्ग का विशेष ज्ञान और एक सदस्य सचिव होंगे। प्रस्तावित विधेयक में आयोग के सदस्यों के लिए कोई मानदंड का उल्लेख नहीं है।

 

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