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तेल एवं प्राकृतिक गैस की निकासी ‘खनन’ नहीं : वन्यजीव संरक्षण पैनल

इस कदम से कुछ बेहद घने जंगलों और उसके आस-पास के क्षेत्रों में अनियंत्रित ढंग से हाइड्रोकार्बन के दोहन का मार्ग प्रशस्त होता है, जो तेल एवं प्राकृतिक गैस क्षेत्र में कॉर्पोरेट दिग्गजों के लिए संभावित रूप से फायदेमंद साबित होने जा रहा है।
Baghjan Oilfield Fire

नई दिल्ली: नरेंद्र मोदी सरकार के तहत एक वन्यजीव संरक्षण निकाय ने तेल एवं प्राकृतिक गैस निकासी को ‘खनन’ गतिविधि की परिभाषा से मुक्त कर दिया है, जिससे भारत के उन कुछ बेहद घने जंगलों और उसके आसपास के क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर हाइड्रोकार्बन के दोहन का मार्ग प्रशस्त हो गया है, जो वनस्पतियों एवं वन्यजीवों के मामले में भी बेहद समृद्ध हैं। यह कदम, जो कि हाइड्रोकार्बन क्षेत्र के साथ-साथ पर्यावरणीय नियमों में सुधारों की एक श्रृंखला के मध्य में है, के चलते संभावित रूप से तेल एवं प्राकृतिक गैस उद्योग के क्षेत्र में मौजूद कॉर्पोरेट दिग्गजों को फायदा पहुंचाने जा रहा है।

वन्यजीव के लिए राष्ट्रीय बोर्ड (एनबीडब्ल्यूएल) की स्थायी समिति की एक बैठक में, जिसका विवरण 8 अक्टूबर को जारी किया गया था, में बेहद चौंकाने वाला फैसला लिया गया था। बोर्ड द्वारा यह फैसला लिए जाने के बाद कि हाइड्रोकार्बन निकासी को ‘खनन’ गतिविधि के रूप में नहीं माना जा सकता है, त्रिपुरा में तृष्णा वन्यजीव अभयारण्य से जंगलात की भूमि को हटाने के छह प्रस्तावों पर अपनी अंतिम मंजूरी प्रदान कर दी गई है।

इस छूट को देश के शीर्षस्थ न्यायिक अधिकारियों जिनमें क्रमशः त्रिपुरा के महाधिवक्ता और भारत के सॉलिसिटर जनरल हैं, के मुहैय्या कराया गया है। उनकी राय में हाइड्रोकार्बन निकासी को न तो खदान एवं खनिज (विकास एवं विनियमन) अधिनियम, 1957 – जिसे लोकप्रिय रूप से एमएमडीआर अधिनियम के नाम से जाना जाता है, के तहत ‘खनन’ के तौर पर माना जा सकता है, और न ही 2006 के सर्वोच्च न्यायालय के एक आदेश के तहत ही इस पर विचार किया जा सकता है, जो संरक्षित क्षेत्रों के निकट खनन गतिविधि को प्रतिबंधित करता है। 

इस बारे में पर्यावरण मामलों के वकील ऋत्विक दत्ता ने न्यूज़क्लिक को बताया “तेल एवं प्राकृतिक गैस निकासी के काम को खनन गतिविधियों की परिभाषा से छूट देते हुए जिस बात को आसानी से नजरअंदाज कर दिया गया है, वह है खदान अधिनियम, 1952। यह अधिनियम तेल निकासी को खनन गतिविधि के तौर पर परिभाषित करता है।”

खदान अधिनियम, 1952 जिसे एनबीडब्ल्यूएल ने अपने निष्कर्षों पर पहुँचते वक्त कथित रूप से नजरअंदाज कर दिया है, में खनन को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि “किसी भी निकासी कार्य में जहाँ पर खनिज पदार्थों की खोज या प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार का संचालन किया गया है या किया जा रहा है जिसमें सभी प्रकार के बोरिंग, बोरहोल्स, तेल के कुएं और कच्चे तेल को साफ़ करने के लिए सहायक यंत्रों सहित तेल क्षेत्रों से खनिज तेल को ले जाने वाले पाइप इत्यादि शामिल हैं।”

एनबीडब्ल्यूएल की स्थायी समिति की बैठक के मिनट्स के अनुसार, भारत के सॉलिसिटर जनरल की राय में प्राकृतिक गैस एवं तेल की निकासी में जिसमें अन्वेषण और विकास शामिल है, उसे “भूमि के बड़े हिस्से पर किये जाने वाले पारंपरिक ओपन कास्ट माइनिंग की तुलना में की जाने वाली खनन गतिविधि नहीं माना जा सकता है।”

सॉलिसिटर जनरल ने आगे कहा है कि अगस्त 2006 में मशहूर गोदावर्मन थिरुमुलपाद मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किये गये आदेश के मुताबिक तेल एवं प्राकृतिक गैस की खोज को खनन के तौर पर नहीं माना जा सकता है, जिसमें एक अंतरिम उपाय के तौर पर राष्ट्रीय उद्यानों, वन्यजीव अभयारण्यों एवं वनों सहित सभी संरक्षित क्षेत्रों के 1-किमी परिधि के भीतर खनन गतिविधियों को प्रतिबंधित कर दिया गया था। 

अगस्त 2006 के सर्वोच्च न्यायलय के फैसले के पीछे की भावना को खनन की परिभाषा से हाइड्रोकार्बन निकासी को छूट दिए जाने पर विचार नहीं किया गया है। संरक्षित क्षेत्रों के 1-किमी के दायरे के भीतर खनन गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाकर, आदेश दरअसल एक सुरक्षा क्षेत्र या बफर क्षेत्र बनाने का प्रयास करता है, जिसमें वन्यजीवों एवं पारिस्थितिकी के वास्ते किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न न हो सके। 

दत्ता, जिनके संगठन लाइफ (वन एवं पर्यावरण के लिए क़ानूनी पहल) को 2021 के राईट लाइवलीहुड अवार्ड के लिए चयनित किया गया है, के मुताबिक “पिछले साल हुई बाघजन तेल कुएं में हुए अग्नि विस्फोट की घटना इसका एक जीता-जागता उदाहरण है। यह तेल का कुआँ डिब्रू सैखोवा राष्ट्रीय पार्क के संरक्षित क्षेत्र की सीमा से बाहर 1 किमी से भी कम की दूरी पर स्थित है, जहाँ पर सबसे अधिक तबाही हुई थी।”

सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख आयल इंडिया लिमिटेड को असम के बाघजन में डिब्रू सैखोवा राष्ट्रीय पार्क के बेहद समीप में हाइड्रोकार्बन निकासी की अनुमति देने में अन्य मुद्दों के अलावा, किसी प्रकार की चूक यदि कोई हो, तो उससे बचने के लिए इसका विश्लेषण करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया है। इसलिए, एनबीडब्ल्यूएल के द्वारा तेल एवं गैस निकासी की गतिविधियों को खनन की परिभाषा के दायरे से हटाकर इसे संरक्षित क्षेत्रों के बेहद नजदीक में करने को सुविधाजनक बनाने के फौसले को भी अपरिपक्व फैसला माना जाना चाहिए।

असम के पारिस्थितिक रूप से नाजुक वर्षावनों के लिए बाघजन अग्निकांड से हुई तबाही के बावजूद, जिसके चलते बड़ी संख्या में स्थानीय समुदायों को विस्थापन का दंश झेलने के साथ-साथ आजीविका का नुकसान झेलना पड़ा है, को नकारते हुए मोदी सरकार ने हाल के दिनों में हाइड्रोकार्बन का दोहन करने के लिए पर्यावरणीय मानदंडों को कमजोर करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है।

बाघजन अग्नि विस्फोट से पूर्व, जनवरी 2020 में, मोदी सरकार ने तेल एवं प्राकृतिक गैस खोज की गतिविधियों को सार्वजनिक सुनवाई करने, पर्यावरणीय प्रभाव आकलन अध्ययनों और केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से पर्यावरणीय मंजूरी हासिल करने की बाध्यता से मुक्त कर दिया था। 

बाघजन अग्निकांड से कुछ समय पहले, मई 2020 में, केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने जैव-विविधता प्रभाव आकलन अध्ययन के बिना ही आयल इंडिया लिमिटेड (ओआईएल) को डिब्रू सैखोवा राष्ट्रीय पार्क के बाहर सात खोजी कुँओं के प्रस्ताव को अपनी मंजूरी दे दी थी। अगस्त 2020 में जब बाघजन अग्नि विस्फोट से अभी तक आग की लपटें निकल रही थी, उस दौरान गौहाटी उच्च न्यायलय एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि मोदी सरकार ने उपरोक्त परियोजना को ‘पूर्वप्रभावी’ आधार पर पर्यावरणीय मंजूरी से छूट दी थी। 

इस महीने की शुरुआत में, मोदी सरकार ने वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 में प्रस्तावित संशोधन के माध्यम से हाइड्रोकार्बन के दोहन को वन मंजूरी के दायरे से बाहर रखने का प्रयास किया है, जब कभी भी इसे भविष्य में एक्सटेंडेड रीच ड्रिलिंग (ईआरडी) तकनीक की मदद से शुरू किया जायेगा। 

यह तर्क दिया जा रहा है कि इन सुधारों, जो हाइड्रोकार्बन से जुड़े कॉर्पोरेट कंपनियों को फायदा पहुंचा सकते हैं, के परिणामस्वरूप पारिस्थितिकी की अपरिवर्तनीय तबाही होना भी अवश्यंभावी है।

इसी के साथ-साथ खनन की परिभाषा से तेल एवं प्राकृतिक गैस निकासी को छूट देने के मामले को देखते हुए एनबीडब्ल्यूएल की क़ानूनी पात्रता भी सवालों के घेरे में आ जाती है। खनन अधिनियम, 1952 से किसी भी गतिविधि को छूट देने का अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार के हाथ में है, जिसे खदानों में श्रम एवं सुरक्षा के नियमन के लिहाज से लागू किया गया है। 

गौहाटी स्थित पर्यावरण मामलों के वकील देबाजित दास के अनुसार “आनुपातिकता का सिद्धांत कहाँ चला गया, जिसके तहत यह वैधानिक रूप से यह उम्मीद की जाती है कि प्रशासनिक कार्यवाई को सामान्य उद्देश्य हेतु उचित संबंध में किया जाना चाहिए, जिसके लिए वन्यजीव बोर्ड के द्वारा खनन की परिभाषा से हाइड्रोकार्बन निकासी में छूट दे दी गई है? ऐसा प्रतीत होता है कि पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकी संरक्षण के पहलुओं को, जिस उद्देश्य की खातिर ही मुख्यतया इस बोर्ड का गठन किया गया था, की ओर से इस फैसले पर पहुँचने से पहले कोई सोच-विचार नहीं किया गया है।”

जनवरी 2019 में, एनबीडब्ल्यूएल ने सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख आयल एंड नेचुरल गैस कारपोरेशन (ओएनजीसी) को हाइड्रोकार्बन निकासी परियोजना के लिए त्रिपुरा में तृष्णा वन्यजीव अभयारण्य में वन्यभूमि को हटाने के संबंध में सशर्त मंजूरी प्रदान की थी। तृष्णा गैस परियोजना के लिए प्रस्तावित निर्माण गतिविधियों में ड्रिल साईट, अपशिष्ट गड्ढा, गैस परिवहन के लिए पाइपलाइन और संपर्क सडकों के निर्माण का काम शामिल था, जिसके खिलाफ ओएनजीसी से वन भूमि के छह अलग-अलग खण्डों के लिए वन्यजीव मंजूरी मांगी गई थी।

एनबीडब्ल्यूएल ने छह प्रस्तावों को अपनी मंजूरी दी थी, हालाँकि पर्यावरणीय स्थितियों को पूरा करने वाली शर्तों के एक समूह के साथ यह मंजूरी प्रदान की गई थी। एनबीडब्ल्यूएल ने अपने आदेश में यह भी कहा था:

“राज्य सरकार [त्रिपुरा] महाधिवक्ता से कानूनी राय प्राप्त करेगी कि प्राकृतिक गैस/तेल की निकासी के संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश दिनांक 4.8.2006 के आईए-1000 में डब्ल्यूपीसी-202/1995 (गोदावर्मन बनाम भारत सरकार) के संदर्भ में खनन नहीं माना जा सकता है। मंत्रालय [पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय] को भी भारत के सॉलिसिटर जनरल से इसी तर्ज पर क़ानूनी राय लेनी चाहिए।

विशेषज्ञों के मुताबिक, संरक्षित क्षेत्रों के बाहर भी एक बफर या सुरक्षा क्षेत्र को बनाने की आवश्यकता है, जहाँ खनन सहित वाणिज्यिक गतिविधियों की मनाही है, से मनुष्य-पशु संघर्ष से बचने में मदद मिलेगी। क्योंकि पार्कों और अभयारण्यों में मानव निर्मित चारदीवारी के भीतर जंगली जानवरों की आवाजाही को प्रतिबंधित कर पाना असंभव है।

इस सन्दर्भ में एक अन्य मामला काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान का समीचीन है। असम सरकार द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समिति ने काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान की सीमा के बाहर नौ गलियारों के परिसीमन की सिफारिश की थी, ताकि पास के कार्बी आंगलोंग पहाड़ियों में जंगली जानवरों की मुक्त आवाजाही को सुगम बनाया जा सके।

काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में रहने वाले बाघ, हाथी और गैंडों सहित अन्य पशुओं द्वारा हर साल बाढ़ के दौरान शरण लेने के लिए कार्बी आंगलोंग की पहाड़ियों की ओर पलायन करना आम बात है। हालाँकि, उनकी आवाजाही को राष्ट्रीय राजमार्ग (एनएच) 37 के द्वारा बाधित कर दिया गया है, जो पार्क को दो क्षेत्रों में विभाजित कर देता है, और वाणिज्यिक गतिविधयां राजमार्ग की सीमा से सटी हुई हैं।

अप्रैल 2019 में सर्वोच्च अदालत के आदेश के बाद, असम सरकार ने भी काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के आसपास के क्षेत्रों में जंगली जानवरों के मुक्त विचरण में मदद करने के उद्देश्य से सभी खनन गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया था। 30 अप्रैल, 2019 को असम सरकार ने निम्नलिखित बयान जारी किया था:

“इसके द्वारा यह आदेश दिया जाता है कि केएनपी [काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान] की दक्षिणी सीमा के साथ और कार्बी आंगलोंग पर्वत श्रृंखलाओं से उत्पन्न होने वाली और केएनपी की ओर बहने वाली सभी नदियों, नालों और नालों के समूचे कैचमेंट एरिया में आज के बाद से सभी प्रकार के खनन कार्यों एवं संबंधित गतिविधियों को इस आदेश के जरिये तत्काल प्रभाव से प्रतिबंधित किया जाता है।”

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। 

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें 

Oil and Natural Gas Extraction is not ‘Mining’, Says Wildlife Conservation Panel

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