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पाकिस्तान के चुनावी समीकरण

जमींदारी और अमीर लोगों में सेना का दबदबा,सेना और इमरान खान के बीच का गठजोड़ और नवाज शरीफ के प्रति गढ़ी गयी लुटेरे डाकू की छवि मिलकर पाकिस्तान की राजनीति की रुपरेखा तय कर रहे हैं।
pakistan elections 2018
Image Courtesy : PTV

'जब मैं हिन्दुस्तान से क्रिकेट खेलकर पाकिस्तान आता था तो लगता था कि मैं किसी गरीब मुल्क से क्रिकेट खेलकर अमीर मुल्क में आ गया हूँ,लेकिन आज हमसे  सब आगे निकल चुके हैं। हमें यहां तक लाने में शरीफ और जरदारी नाम के दो डाकुओं का बहुत बड़ा हाथ है।' अपनी हर चुनावी रैली में इमरान खान इस बात को दुहराते हैं। पाकिस्तान की  पुरानी हाल ए सूरत की बेहतरी से आज की हाल ए सूरत की कमतरी की तुलना करते हैं। अमेरिका के प्रति पाकिस्तान में मौजूद नफरत को उकसाया जाता है। देश में हो रही लूट को खत्म करने की बात की जाती है। शिक्षा और अस्पताल पर फोकस करने की बात की जाती है।  इस  तरीके से चुनावी लड़ाई लड़ते हुए पाकिस्तान के हालिया चुनाव में इमरान खान की पार्टी 'पाकिस्तान तहरीक ए इन्साफ' चुनावी घुड़दौड़ में सबसे अव्वल पार्टी मानी जा रही है। 

साल 2013 में  पाकिस्तान का आम चुनाव नवाज शरीफ ने जीता था। यह जीत पाकिस्तानी राजनीति में सेना के प्रभाव को बहुत कम करने जैसी जीत थी।  विश्लेषकों ने तो यहां तक कह दिया दिया था कि पाकिस्तान का राजनीतिक  समाज अब सेना से मुक्त होता चला जाएगा। लेकिन यह उतना आसान नहीं हुआ जितना आकलन किया जा रहा था।  ऐसा इसलिए क्योंकि पाकिस्तानी समाज के दबदबे वाले वर्ग जैसे कि जमींदार और अमीर लोगों में सेना और सेना के सगे संबंधियों का अच्छा खासा दबदबा है।साथ में संवैधानिक प्रावधान के तहत पाकिस्तान का राष्ट्रपति पाकिस्तानी  आर्मी का प्रमुख होता है। लेकिन पाकिस्तान की गवर्नमेंटल स्ट्रक्चर में डिफेंस पर फैसला लेने और बजट बनाने का हक पाकिस्तानी आर्मी का है। इस पर किसी का हस्तक्षेप नहीं  चलता है। जिसके वजह से पाकिस्तान की सरकार में सेना के प्रभाव को कमतर करना कभी भी आसान नहीं हो सकता। 

तकरीबन तीन दशक से नवाज शरीफ पाकिस्तान की राजनीति में रहे हैं। इन तीन दशकों में नवाज शरीफ और सेना के बीच का सम्बन्ध उबड़ खाबड़ रहा।  इसलिए साल 2013 में जब पूरी बहुमत के साथ नवाज शरीफ की सरकार बनी तो यह तय था कि सेना और शरीफ के बीच की दीवार बढ़ेगी लेकिन पाकिस्तानी राजनीति में सेना के प्रभाव के वजह से सेना की हैसियत कमजोर नहीं होगी। चूँकि सरकार सेना से नाराज रहने वाले नवाज की थी तो  भारत और पाकिस्तान के बीच सम्बन्ध  सुधार की भी आस भी थी। साल 2013 से लेकर अब तक की राजनीति में यह सब हुआ लेकिन इन सब के समनांतर कुछ और भी होता रहा। नवाज शरीफ पर जीत के बाद ही चुनावी धांधली के आरोप लगे, इमरान खान की पार्टी पीटीआई ने नवाज़ शरीफ के खिलाफ लूट के आरोप का मोर्चा खोल दिया। पाकिस्तान आर्मी ने भी सरकार में अपना दबदबा फिर से कायम रखने के लिए इमरान खान की पार्टी का जबरदस्त साथ देना शुरू किया। इस तरह से पाकिस्तान के हालिया चुनाव की  स्थिति यह है कि नवाज शरीफ को भ्रष्टाचार के मामलें में सुप्रीम कोर्ट द्वारा आजीवन चुनाव लड़ने से रोक दिया गया है और भूतपूर्व चीफ जस्टिस के  कार्यकारी प्रधानमंत्री के पदभार में चुनाव करवाए जा रहे हैं। कुल-मिलाजुकार चुनावी समीकरण कुछ ऐसे हैं-  नवाज शरीफ की पार्टी बैकफुट पर है, इमरान खान की पीटीआई चुनावी दौड़ में सेना के सहारे बैटिंग कर रही है और चूँकि सेना के पास पैसे, प्रभाव और रुतबा तीनों है तो पाकिस्तानी मीडिया भी सेना के कंट्रोल में है।

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नवाज शरीफ को पकिस्तान में भारत के प्रति नरम रुख का नेता माना जाता है। इस छवि को बदलने के लिए नवाज शरीफ ने पाक अधिकृत कश्मीर के चुनाव में हिज्बुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहानी वानी की हत्या का विरोध किया था।  इस रुख से पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के चुनाव  में तो जीत मिल गयी लेकिन भारत के प्रति बनी उनकी छवि में अभी कोई बदलाव नहीं आया है। नवाज की पार्टी के इस छवि को तोड़ने के लिए शाहबाज शरीफ ने अभी हाल में ही एक रैली में कहा कि 'पाकिस्तान,भारत से हल मामलें में अच्छा है।  मैं वजीर ए आजम बना तो पाकिस्तान को भारत से बेहतर बना दूंगा। अगर मैं अपने दुश्मन भारत से पाकिस्तान को आगे नहीं ले गया तो मेरा नाम बदल देना'। कहने का मतलब यह है कि पाकिस्तान के चुनाव में भी वही खेल होते हैं जो भारत  के चुनाव में होते हैं। पहले से चली आ रही नफरत की धारणाओं को और मजबूत कर वोट बटोरने की कोशिश की जाती है। जबकि  पीपीपी,पीटीआई और पीएमएल नवाज के चुनावी मेनिफेस्टो भारत के साथ बातचीत के आधार पर किसी भी तरह के झगड़े की सुलझाने की बात करते हैं। और कश्मीर के मुद्दे पर संयुक्त  राष्ट्र सुरक्षा परिषद के रिजोलुशन के ढांचे के अंतर्गत बातचीत करने की बात करते हैं। पीटीआई और पीएमएल नवाज के मेनिफेस्टो की एक खास बात यह है कि दोनों के मेनिफेस्टो में पाकिस्तान और चीन सम्बन्ध पर एक अलग सेक्शन बनाकर बात की गयी है। यह पाकिस्तान के लिए चीन के महत्व को दर्शाता है। पाकिस्तान में अमेरिका और सऊदी अरब  का दबदबा हमेशा से रहा है लेकिन अब चीन भी इस दबदबे का दावेदार चूका है। 

पाकिस्तान की नेशनल असेम्ब्ली की 342 सीटों में  272 सीटों पर सीधे जनता द्वारा प्रतिनिधि चुना जाता है। इसमें से पंजाब प्रोविन्स को 141,सिंध को 61,खैबर पख्तूनख्वा को 39 और बलूचिस्तान के हिस्से में 16  सीटें आती हैं।  बाकी 15 सीटों का बंटवारा दो राज्यक्षेत्र इस्लामाबाद(12  ) और फाटा(3) के बीच होता है। इससे यह साफ है कि पाकिस्तान  की चुनावी राजनीती का गढ़ पंजाब है।  जिसने पंजाब जीत लिया,उसने पाकिस्तान जीत लिया। 2013 के चुनाव में नवाज शरीफ की पार्टी ने अपने 126 जीती हुई सीटों में से 118 सीटें पंजाब से जीती थीं। लेकिन अबकी बार मामला थोड़ा अलग है। नवाज शरीफ की चुनावी अयोग्यता के बाद  शरीफ की पार्टी के कई शरीफजादें  पार्टी छोड़कर पीटीआई में शामिल हो चुके हैं।पंजाब के कुछ पॉकेट में पीटीआई मजबूत पार्टी बन रही है।  बाकी पाकिस्तान के तीनों प्रांतों में नवाज शरीफ की पार्टी के बजाए शेष और रीजनल लेवल की पार्टियों का दबदबा है। 

खैबरपख्तूनख्वा में पीटीआई और धार्मिक पार्टियों के सामने सेक्युलर लेफ्टिस्ट आवामी नेशनल पार्टी का जनाधार बहुत कमजोर है। हालांकि सेक्युलर लेफ्टिस्ट आवामी नेशनल पार्टी अबकी बार मजबूती से चुनाव लड़ रही है।  साल 2013 में पीटीआई ने यहां से नेशनल असेंबली  की 29 में से 17 सीटें जीतीं थीं और प्रोविंसियल असेंबली  में सरकार बनाया था। इस समय खैबरपख्तूनख्वा इमरान खान की पार्टी का गढ़ बन चूका है।  बिलावल भुट्टो की अगुवाई में चुनाव लड़ रही पीपीपी का जनाधार सिंध का ग्रामीण इलाका है। साल 2013 में इस इलाके से पीपीपी ने 31 सीटों में से 30 सीटें जीतीं थी। बलूचिस्तान में किसी भी नेशनल पार्टी का दबदबा नहीं है।  यहां पर हमेशा आर्मी का दबदबा रहता है।आर्मी के सहारे पनपी बलूचिस्तान आवामी पार्टी इस बार बलूचिस्तान की चुनावी दौड़ में आगे चल रही है। 

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वैश्विक आतंकवादी घोषित हाफिज सईद का संगठन जमात उद दावा भी अल्लाह-ओ-अकबर तहरीक पार्टी बनाकर चुनाव लड़ रहा है।  इनके चुनावी प्रचार में मुस्लिम धर्म की पवित्रता और भारत के प्रति नफरत का इस्तेमाल सबसे अधिक किया जा रहा है। यह पार्टी नेशनल असेम्ब्ली  के तकरीबन 80 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। कुछ और धार्मिक आधार की पार्टियां जैसे पाकिस्तान राह-ए-हक पार्टी,कट्टर बरेलवी फ्रंट की पार्टी बरेलवी- तहरीके-लबाइक भी चुनाव लड़ रही हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि ये पार्टियां भले बहुत कम सीटें जीतें लेकिन दावेदार पार्टियों के लिए वोट कटवा पार्टी साबित होंगी। इन पार्टियों से सबसे अधिक खतरा इमरान खान की पार्टी को है। क्योंकि इन सभी का जनाधार पाकिस्तान के कट्टर समूह हैं।

इस लिहाज से पाकिस्तानी समाज के मजबूत वर्ग जैसे कि जमींदारी और अमीर लोगों में सेना का दबदबा,सेना और इमरान खान के बीच का गठजोड़ और नवाज शरीफ के प्रति गढ़ी गयी लुटेरे डाकू की छवि मिलकर पाकिस्तान की राजनीति की रुपरेखा तय कर रहे हैं। 

 

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