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पीने के लिए गटर का पानी : वडोदरा के अल्पसंख्यकों की ज़िंदगी बनी दोज़ख

एकतानगर रहीस एसोसिएशन की प्लॉट सं 287 में रह रहे लोग, ज्यादातर मुस्लिम और मराठा दलित हैं, उन्हें वीएमसी द्वारा स्मार्ट सिटी परियोजना के नाम पर स्लम को खाली करने के लिए धमकाया जा रहा है, जबकि गुजरात उच्च न्यायालय ने दो साल पहले इस बस्ती को तोड़ने के आदेश पर रोक लगा दी थी।
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“हमने रोज़ा (उपवास) रखा है लेकिन हमें अभी पानी लाने के लिए जाना है। यहां पानी की आपूर्ति नहीं है। हमने निगम के लोगों के साथ ऐसा क्या किया है जो वे हम लोगों पर कोई तरस नहीं खाते हैं” 45 वर्षीय जुबैदीन कादिर शेख ने कहा,“ पीने का पानी कैसे पिएं? .. मल जैसा गंदा पानी आता है

न्यूज़क्लिक ने ज़ुबेदाबेन से स्थानीय आंगनवाड़ी केंद्र में मुलाकात की जहाँ वह सहायिका (सहायक) के रूप में काम करती हैं। पानी की कमी के कारण, वह कहती है, बच्चों के लिए भोजन पकाना भी काफी मुश्किल हो गया है।

जुबेदाबेन की तरहसैकड़ों महिलाएँ अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए पानी लेने के लिए एकतानगर रहीस एसोसिएशन की प्लॉट सर्वे संख्या 287 में जाती हैं (जिसे तोड़ा जाना है)।

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पानी लेने के लिए कई महिलाएं रोज यहां इकट्ठा होती हैं।

यहां से रो़ज पानी लेने वाली एक स्कूल जा रही किशोरी ज़ैनब सैयद हुसैन ने कहा कि उसे अपने घर में पानी की आपूर्ति करते तीन महीने हो गए हैं। उन्होंने कहा, "मैं सुबह से पानी भरना शुरू करती हूं और सभी डिब्बे भरने में मुझे दोपहर के 2 बज जाते है। बेशक हम गरीब हैं, लेकिन खुदा में हमारा विश्वास हैं। क्या हमें मूलभूत आवश्यकताओं का लाभ उठाने का अधिकार नहीं है? क्या हम जीवन भर ऐसा ही करते रहेंगे… इन हालात में हमें पढ़ाई करने का समय कैसे मिलेगा?”

शेख शहनाज़ बालम ने गुस्से में कहा, “इनके त्योहार में, दिवाली, होली में, सबमें पानी आता है… और हमें पीने तक का पानी नहीं मिलता है?कहां का सामाजिक इंसाफ है ये?"

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मकबूल दीवान के परिवार को उनके जन्म से तीन साल पहले सरकार द्वारा पानीगेट के बहमनपुरा से इस क्षेत्र में लाया गया था। अब 35 साल का वही मकबूल अपने पिता की तरह दिहाड़ी मजदूर है। उन्होंने बताया कि सड़क बनाने के लिए सैकड़ों घर ढहा दिए गए लेकिन वास्तव में वह सड़क आज़ तक नहीं बनी।

जैसे-जैसे वह हमें रास्ता दिखाता गया, लगभग 10-15 महिलाओं को पानी भरने के लिए कनस्तरों को ले जाते देखा गया। यह पूछने पर कि आप क्या कने जा रही हैं तो 85 वर्षीय खातुन बीबी ने कहा, “यहां तक कि निजी पानी का टैंकर भी यहां आने के लिए तैयार नहीं है। आज की रात हमारे लिए बुरी रात है। हम बच्चों को कैसे नहलाएंगे? रोजा है या नहीं, हमें पानी लाने आना पड़ता है।”

बिस्मिल्लाहबेन, 45, एक निजी सोसाइटी की ओर इशारा करते हुए बोली, जिसकी दीवार स्लम की परिधि के साथ साझा है, "पानी के लिए पैसा दो,सड़क की सफाई के लिए पैसा दो, मोटर के लिए पैसा दो ... क्या वे नहीं जानते कि हम गरीब हैं। अगर हमारे पास पैसा होता, तो हम क्या उस इमारत में नहीं रहते।”

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एकतानगर के निकटवर्ती स्लम क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में पानी की आपूर्ति होती है, वहां जहां हिंदू बहुसंख्यक रहते हैं। जबकि  सरकारी अधिकारी एकतानगर के इस सर्वेक्षण वाले भूखंड में पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए कभी नहीं आते हैं, वहीं दूसरी ओर बिजली बोर्ड भी अपने बिलों के भुगतान के लिए सहज नहीं है। इस रिपोर्टर को बताया गया कि अगर बिजली बिल के भुगतान में पांच दिन की भी देरी होती है, तो बोर्ड बिजली के मीटर को हटाने में देरी नहीं करता है।

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वडोदरा नगर निगम भी यहां टैंकर नहीं भेजता है। एक सरकारी पानी का टैंकर एकतानगर के दूसरे हिस्से में देखा जा सकता था, लेकिन इस हिस्से की किसी भी झुग्गी में नहीं देखा जा सकता है। एक निजी टैंकर की कीमत 600 रुपये है और यह 3 से 5 सदस्यों वाले अधिकतम तीन परिवारों की बुनियादी पानी की जरूरत को पूरा कर सकता है।

शेहला बेन को अपने बच्चों के लिए भोजन तैयार करना है, इसलिए वह पानी लाने के लिए झुग्गी के आखिर में आती है। एक बोतल पानी या फिर एक कैन के लिए 10 रुपये लेते हैं। वह अपनी पीड़ा व्यक्त करती है, "मैं केवल 400 रुपये प्रतिदिन की पारिवारिक आय के साथ इसे कैसे वहन कर सकती हूं?"

“पुलिस हमें परेशान करती है। वे हमें झुग्गी को खाली करने के लिए कहते हैं, वे हमें धमकी देते हैं कि अंतिम आदेश आने पर वे हमें अपना सामान भी एकत्र करने की अनुमति नहीं देंगे। हमारे पास इस नश्वर शरीर को छोड़कर कौनसा ऐसा कीमती सामान हैं, जिसके भविष्य को लेकर डरा जाए, “एक और निवासी शबाना ने कहा।

एक अन्य गलियारे में, रुकसनाबेन को सिर पर कपड़े ढोते हुए देखा गया था। उसने कहा, “कपड़े धोने के लिए हमें इन कपड़ों के ढेर के साथ तीन से चार किलोमीटर की यात्रा करनी होती है। क्या अब हमें रमज़ान के पवित्र महीने में भी गंदा रहना होगा... पता नहीं क्यों खुदा इस तरह का दर्द दे रहा हैं।"

साहिरा बानो ने पानी में बिखरे कण के साथ पीला भूरा पानी दिखाते हुए कहा, “क्या इसे हम स्वच्छ पानी कहते हैं। पीने योग्य 25 लीटर पानी की कीमत 30 रुपये है। क्या हम इसे एक बड़े परिवार के लिए खरीद सकते हैं?”

नूरजहां बानो, 54, एक प्रकार के पक्षाघात से उबर रही हैं जो एक प्रकार का लकवा है। उनके पास अपने खुद के लिए पानी लाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। जब वह बात करती है तो वह अपने आंसू नहीं रोक पाती है। बानो ने दुख जताते हुए कहा, "मैं अपने सभी कामों के लिए अपने परिवार पर निर्भर नहीं रह सकती। मैं 4-5 लीटर पानी इकट्ठा कर लेती हूं, इसे पीने से पहले उबाल और छान लेती हूं।”

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न्यूजक्लिक ने इसके बाद अंबेडकरवादी मराठियों की कॉलोनी का दौरा किया, जो उसी सर्वेक्षण वाले भूखंड पर रह रहे थे जिसे ध्वस्त किया जाना है।

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अंबेडकरनगर की गली नंबर 41 में रहने वाले 35 वर्षीय रहमान ने कहा, “हमारा पूरा परिवार पिछले महीने इस दूषित पानी की वजह से बीमार पड़ गया था। यह न केवल गंदा है, बल्कि इसमें बदबू भी आती है। आप इस पानी से हाथ भी नहीं धो सकते हैं, अकेले पीने की बात तो छोड़ दें।"

लक्ष्मीबेन बालचंद्र भामरे, अन्य मराठी परिवारों के साथ, प्रतापनगर से चालीस साल पहले यहाँ आए थे क्योंकि उस जगह को तोड़ दिया गया था जहां वे रहते थे। लक्ष्मीबेन, जोकि अब 50 वर्ष की हैं, विस्थापन के बाद उनके खिलाफ बरती गई अनियमितताओं के नतीजों को भुगत रही हैं। उन्हे लगता है कि ये भेदभाव इसलिए है क्योंकि वे गुजराती नहीं हैं। उन्होने कहा, "समय के साथ हमारी स्थिति बिगड़ती जा रही है और निश्चित रूप से इसका कुछ न कुछ राजनीतिक कारण है।"

60 साल की कमलाबेन भामरे ने कहा, "चुनाव से दो दिन पहले [वडोदरा में 23 अप्रैल को लोकसभा के लिए मतदान हुआ था] पर पानी की आपूर्ति फिर से शुरू कर दी गई थी, लेकिन चुनाव संपन्न होते-होते हालात बदल गए, और फिर से हमें हमारी दैनिक दिक्कतों के साथ छोड़ दिया गया।"

वडोदरा में अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए काम करने वाले एक कार्यकर्ता चिराग अली शाह ने वड़ोदरा नगर निगम (VMC) को कई आवेदन लिखे, लेकिन अपील सुनने वाले प्राधिकारी ने झुग्गी बस्तियों द्वारा उठाए गए मुद्दों पर कोई जवाब नहीं दिया। शाह ने कहा, ''यहां स्ट्रीट लाइटों की भारी समस्या है। हम बिजली विभाग गए; उन्होंने हमारी दलील को सुना भी नहीं। वे हमें एक जगह से दूसरी जगह भेजते रहते हैं।”

कई बच्चे एक ढेर की ओर इशारा करते हैं। उनमें से एक कहता है, ''गटर का पानी घर में भरा रहता है, कोई साफ करने नहीं आता।"

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अन्य स्लम में किए गए सर्वेक्षण से पता चला कि वहां भी स्थिति समान ही है। 65 वर्षीय सबरीबेन शेख ने न्यूज़क्लिक को बताया कि अनियमित जलापूर्ति का मुद्दा दो दशकों से अटका है, लेकिन उन्होंने कभी भी इतने लंबे समय तक व्यवधान का सामना नहीं किया। उन्होंने कहा, "वीएमसी द्वारा हमें स्लम को खाली करने के लिए नोटिस दिए जाने के बाद, अब झुग्गीवासियों के लिए पानी का न मिलना एक सामान्य बात हो गयी है।"

नवंबर 2016 में, एकतानगर रहीस एसोसिएशन के प्लॉट सर्वे नंबर 287 को तोड़ने की सूचना दी गई थी। प्लॉट सर्वे संख्या 287 एकतानगर का सबसे बड़ा स्लम है। यहां अम्बेडकरवादी मराठियों और मुसलमानों की आबादी का बहुमत है। स्थानीय कार्यकर्ताओं ने आपातकालीन सुनवाई के लिए गुजरात उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। वडोदरा स्थित एक सामाजिक कार्यकर्ता मुनाफ पठान कहते हैं, "उच्च न्यायालय की छुट्टी की अवधि से ठीक पहले वीएमसी ने समाचार पत्र में एक संक्षिप्त नोटिस दिया ताकि कोई भी राहत पाने में सफल न हो सके। लेकिन सौभाग्य से हमारी याचिका पर एक आपातकालीन सुनवाई हुई और मुख्य न्यायाधीश आर. सुभाष रेड्डी ने वीएमसी को झुग्गी को न गिराने का आदेश दिया।"

रिट पिटीशन (PIL) पर दिए गए आदेश की न्यूजक्लिक ने समी़क्षा की और वडोदरा नगर निगम के तर्कों को दोषपूर्ण पाया। निगम ने तर्क दिया कि सभी भूखंड में रह रहे सभी निवासियों ने परिसर को खाली करने के लिए सहमति दे दी थी और  पुनर्वास होने तक 2,000 रुपये प्रति माह लेने पर भी सहमति दे दी थी। गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने बस्ती के तोड़ने के अभियान को तुरंत रोक दिया क्योंकि VMC का तर्क दोषपूर्ण साबित हुआ था। सभी झुग्गी बस्तियों में विध्वंस के लिए सहमति नहीं थी और न ही उन्हें पुनर्वास के लिए उचित आवंटन दिए गए थे।

न्यूजक्लिक ने VMC आयुक्त अजय भादू से संपर्क किया, लेकिन उन्होंने इस रिपोर्टर को उपायुक्त शैलेश मिस्त्री के पास भेज दिया। मिस्त्री ने एकतानगर से संबंधित मुद्दों के बारे में पूछे जाने पर फोन काट दिया।

वीएमसी में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करने वाले विपक्षी नेता, चंद्रकांत श्रीवास्तव ने एकतानगर में इस तरह के किसी भी मुद्दे की जानकारी से इनकार कर दिया।

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और एकेडेमिया.ड्यू में संपादक के रूप में कार्य करते हैं। वह भारत में सामाजिक असमानता और अधिकारों पर लिखते हैं।

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