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गुजरात के एक जिले में गन्ना मज़दूर कर्ज़ के भंवर में बुरी तरह फंसे

डांग जिले के गन्ना कटाई के काम से जुड़े श्रमिकों को न तो मिल-मालिकों द्वारा ही श्रमिकों के तौर पर मान्यता प्रदान की गई है और न ही उन्हें खेतिहर मजदूर के बतौर मान्यता दी गई है।
गुजरात के एक जिले में गन्ना मज़दूर कर्ज़ के भंवर में बुरी तरह फंसे
डांग के सुबीर तालुका में पड़ने वाला एक आदिवासी गाँव, कांगड़ीया मल, जहाँ से अधिकांश आदिवासी हर साल गन्ने के खेतों में काम करने के लिए पलायन करते हैं।

गमजाभाई सेबधूभाई पवार कक्षा पांच तक ही पढ़ सके थी, जब घोर गरीबी ने उन्हें स्कूल छोड़ने और अपने माता-पिता के साथ गन्ने की कटाई में सहयोग करने के लिए विवश कर दिया था। हर साल, छह से सात महीनों के लिए पवार अपने माता-पिता, जो कोयटा ईकाई थे, या कहें कि गन्ना मजदूरों की एक जोड़ी थे, के साथ दक्षिण गुजरात की ओर गन्ना काटने के लिए पलायन करना पड़ता था।

डांग के सुबीर तालुका में, काँगड़ीया मल गाँव के आदिवासी 42 वर्षीय पवार, एक छोटे मुक्कदम या कहें कि श्रमिक ठेकेदार होने के साथ-साथ खुद भी एक मजदूर हैं। उनके चार बच्चों में से दो उनके साथ गन्ना काटने के लिए जाते हैं। लेकिन छह-सात महीनों में कुलमिलाकर 10,000-15,000 रूपये की कमाई से उनके आठ लोगों के परिवार का पेट भर पाना कहीं से भी संभव नहीं हो पाता, जिसके चलते उन्हें अगस्त की शुरुआत तक 30,000 रूपये बतौर कर्ज के तौर पर लेने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

कैसे वे “कर्ज के इस भंवर-जाल में फंस गए हैं” इसके बारे में न्यूज़क्लिक से बताते हुए निराश स्वर में पवार ने कहा “सितंबर-अक्टूबर में जब तक हमारे जाने का समय हो रहा होगा, तब तक मैं कम से कम 20,000 रूपये का एक और ऋण लेने के लिए मजबूर हो चुका हूँगा। ये जो 50,000 रूपये की कर्ज की रकम है, इसे मेरे अगले सीजन की कमाई से काट लिया जायेगा, और मैं फिर से 10,000 रूपये की रकम पर वापस आ जाऊंगा।”

पवार ने एक बार दक्षिण गुजरात के आम या सपोटा (चीकू) के बागों में भी काम करने के बारे में विचार किया था। पवार ने बताया, “लेकिन इस काम में स्थिरता की कमी और कर्ज न चुका पाने की स्थिति को देखते हुए, मैं गन्ने की कटाई के काम में वापस लौट आया।” पवार उन चुनिंदा गन्ना श्रमिकों में से एक हैं, जिन्होंने इस काम में तरक्की पाकर श्रमिक ठेकेदार के मुकाम को हासिल कर पाने में कामयाब रहे हैं। वे आमतौर पर प्रत्येक कटाई के सीजन के लिए 15 कोयटा या 30 श्रमिकों को नियुक्त करते हैं।

डांग के एक आदिवासी, गमजाभाई पवार, जो 20 वर्षों तक एक श्रमिक के बतौर काम करने के बाद एक छोटा मुक्कदम बन पाने में कामयाब रहे 

मुक्कदम, जो अधिकांशतः स्थानीय आदिवासी होते हैं, श्रमिकों और चीनी के कल-कारखानों के मध्य एक बेहद अहम मध्यस्थ के रूप में काम करते हैं। ये लोग अपने खुद के या पड़ोस के गाँवों से फसल काटने वालों की भर्ती करते हैं और और खुद के पल्ले से उन्हें ब्याज पर पैसे भी देने का काम करते हैं, जिसे हर सीजन के अंत में उनकी मजदूरी से काट लिया जाता है।

गुजरात स्थित ट्रेड यूनियन, मजदूर अधिकार मंच के शांतिराम मीणा ने बताया, “एक कोयटा को एक टन गन्ना काटने, सफाई करने, और उपज के बंडल बनाकर बाँधने और वाहनों में लोड करने के लिए 275 रूपये का भुगतान किया जाता है, जिसमें औसतन रोजाना 14-15 घंटे लग जाते हैं। पहले इसके लिए 250 रूपये का ही भुगतान किया जाता था, लेकिन मजदूरों द्वारा फरवरी 2019 में काम रोक देने के बाद जाकर मजदूरी बढ़ा दी गई थी। बेहद कम मजदूरी होने के कारण अक्सर श्रमिकों को अपनी पत्नी के साथ जोड़ा बनाने के लिए मजबूर होना पड़ता है, और यही वजह है कि इस सीजनल प्रवासन में बच्चों सहित उनकी माताओं को पूरे परिवार सहित कार्यस्थलों पर रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है।”

2015 में, गुजरात सरकार ने गन्ना श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी को 238 रूपये प्रति टन तक बढाने का फैसला लिया था। बाद में, राज्य सरकार ने खेतिहर मजदूर की न्यूनतम मजदूरी को 150 रूपये से बढ़ाकर 178 रूपये कर दिया था और अप्रैल में एक बार फिर से इसे बढ़ाकर 342.20 रूपये कर दिया है। लेकिन गन्ने की कटाई करने वाले श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी अभी भी जस की तस है।

मीणा कहते हैं, “श्रमिक अधिक कमाने के लिए ज्यादा से ज्यादा खटते रहते हैं। आमतौर पर वे सुबह 5 बजे से अपने दिन की शुरुआत कर देते हैं, और दिन-भर गन्ने की कटाई करने के बाद रात में इसे ट्रकों में लादने का काम करते हैं। सारे दिन भर कड़ी मशक्कत करने के बावजूद, कई दफा उन्हें गन्ने की गुणवत्ता या कितनी सफाई से गन्ने की कटाई की गई है, के आधार पर भुगतान किया जाता है।”

हर साल, तकरीबन 2.5 लाख गन्ना श्रमिक, जो मुख्यतया दक्षिण गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों से आदिवासी समुदाय से आते हैं, अपने परिवारों के साथ वलसाड, नवसारी, सूरत, भरूच और वडोदरा जिलों में काम करने के लिए प्रवासन करते हैं। मजदूर अधिकार मंच, दक्षिण गुजरात के सचिव, डेनिश मकवान ने न्यूज़क्लिक को बताया, “यहाँ पर, उन्हें 13 चीनी मिलों द्वारा काम पर रखा जाता है, जो एक सहकारी ढाँचे के तहत अपना कामकाज करती हैं। पहले यहाँ पर 16 चीनी मिलें हुआ करती थीं, लेकिन इनमें से तीन बंद हो चुकी हैं।”

मकवान कहते हैं, “क्या वे कारखाना श्रमिक हैं या खेतिहर मजदूर हैं? शुगर लॉबी द्वारा इसी पहचान की अस्पष्टता का फायदा उठाया जाता है। एक मिल साल भर के लिए एक सुपरवाइजर की नियुक्त करती है जो अपने नीचे मुक्कदमों को नियुक्त करता है, जो इन श्रमिकों को भर्ती करते हैं। हालाँकि श्रमिकों को मिलों द्वारा भुगतान किया जाता है, जिसके मालिक राजनीतिक रूप से प्रभुत्वशाली पटेल समुदाय के सदस्य होते हैं, जो उन्हें अपने श्रमिकों के तौर पर मान्यता नहीं देते। इसी प्रकार गन्ने के खेतों के मालिक भी अपनी जिम्मेदारी लेने से इंकार कर देते हैं क्योंकि उनकी ओर से उन्हें मजदूरी का भुगतान नहीं किया जाता है।”

यदि मिल द्वारा इन श्रमिकों को मान्यता दे दी जाती है तो उनके पास भी कारखाना अधिनियम, 1948 के तहत श्रम अधिकारों का हक प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार, यदि उन्हें खेतिहर मजदूर के तौर पर मान्यता दे दी जाती है तो अन्य की तरह, उनकी न्यूनतम मजदूरी भी उनके द्वारा काम के घंटों की संख्या के आधार पर निर्धारित की जा सकती है। मकवान आगे कहते हैं, “लेकिन राज्य सरकार उनकी न्यूनतम मजदूरी को उनके काटे गए गन्ने की मात्रा के आधार पर निर्धारित करती है। इस प्रकार, उनका राज्य सरकार और गन्ना उद्योग चला रहे पाटीदार (पटेल) समुदाय, दोनों के ही द्वारा शोषण किया जाता है।” 

जयराम गामित जो कि पिछले 22 वर्षों से चीनी मिल में कार्यरत थे और अब मजदूर अधिकार मंच से सम्बद्ध हैं, कहते हैं, “लंबे समय तक बेहद कष्टसाध्य काम करने से सेहत पर बेहद बुरा असर पड़ता है।”

असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों के बीच काम करने वाले समूह, सेंटर फॉर लेबर रिसर्च एंड एक्शन द्वारा संचालित 2017 के एक शोध में इस बात का खुलासा हुआ है कि काम करने और निवास की स्थितियों से गन्ना श्रमिकों के बीच में पेचिश, उल्टी, खांसी और जुकाम, बुखार, विशेषकर मलेरिया, आँख और फेफड़े के संक्रमण और शरीर में दर्द के रोग बेहद आम हैं।

प्रत्येक कटाई के मौसम की शुरुआत में मिल-मालिकों की ओर से एक ट्रक मुहैय्या कराया जाता है, जिसमें 15 से 20 कोयटा ईकाइयों को, जिसमें उनकी स्त्रियाँ, बच्चे और उनका सामान भी होता है को एक साथ ट्रक में ठूंस दिया जाता है। इसी अवस्था में उन्हें 200 से 300 किमी की यात्रा कराकर गाँवों के बाहरी इलाके में लाया जाता है, जहाँ वे अगले छह माह तक डेरा डालते हैं।

मिल मालिक उन्हें अस्थाई तंबू बनाने के लिए लकड़ी और प्लास्टिक की पन्नी मुहैय्या करा देते हैं जो कि एक परिवार के रहने के लिए काफी छोटे होते हैं। इन श्रमिकों को आम तौर पर बंजर भूमि पर रखा जाता है जहाँ पर पीने के पानी, बिजली, शौचालयों और यहाँ तक कि बुनियादी चिकित्सा सहायता तक की व्यवस्था उपलब्ध नहीं कराई जाती है। अगर कोई श्रमिक बीमार या घायल हो जाता है तो उसे अपने ईलाज के लिए खुद से इंतजाम करना पड़ता है या मुक्कदम से कर्ज लेकर अपना इलाज करना पड़ता है।

डांग जिले के एक आदिवासी गाँव कांगड़ीया मल के निवासी, 34 वर्षीय काजूभाई सोमाभाई पवार के अनुसार “प्लास्टिक की पन्नी, दरांती और अनाज मुहैय्या कराने के बदले में नियोक्ताओं द्वारा पैसा काट लिया जाता है। यदि कटाई के दौरान दरांती क्षतिग्रस्त हो जाती है या टूट जाती है, तो इसकी कीमत हमारी मजदूरी से सीजन के अंत में वसूल ली जाती है।” उन्हें भी अपने माता-पिता के साथ गन्ने के खेतों में जाने के लिए कक्षा चार के बाद से स्कूल की पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी।

काजूभाई को कक्षा चार में अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर अपने माता-पिता के साथ गन्ने के खेतों में काम करने के लिए जाना पड़ा था

पवार हर फसल कटाई के सीजन में अपनी पत्नी और सात और आठ साल के दो बच्चों के साथ पलायन करते हैं। उनके दो अन्य बच्चे जिनकी उम्र 11 और 14 साल है, एक स्थानीय आवासीय स्कूल में पढ़ते हैं।

पवार कहते हैं “गन्ने की कटाई के लिए काफी शारीरिक श्रम की जरूरत पड़ती है। रोज-रोज 14-15 घंटे काम करने के बाद शरीर दर्द से टूटने लगता है। कई बार तो, जिस जमीन पर हमारा ठिकाना बना होता है, वह खेत से कुछ किलोमीटर की दूरी पर होता है। सीजन के अंत तक, अक्सर पुरुष श्रमिक बीमार पड़ जाते हैं।” उन्होंने आगे बताया कि किस प्रकार से 1,000-1,200 कोयटा ईकाइयां रोजाना खुले में शौच करती हैं, जिसके चलते उस जगह पर रहना असंभव हो जाता है।

छह महीनों तक इस प्रकार की अमानवीय स्थितियों में काम करते रहने और निवास के बाद, पवार महज 10,000 रूपये या इससे भी कम रकम के साथ घर लौटते हैं। पवार का इस बारे में कहना है कि “यह पैसा भी एक या दो महीने के भीतर खर्च हो जाता है, और मुझे एक बार फिर से कर्ज लेना पड़ता है और जितना पैसा उधार लेता हूँ, उसका डेढ़ गुना वापस चुकाना पड़ता है।”

इसके सबसे बड़े भुक्तभोगी बच्चे हैं, जिनमें से अधिकांश की पढ़ाई बीच में ही छूट जाती है। अफसोसजनक लहजे में पवार कहते हैं “हमारे गाँव के लड़के-लड़कियां बेहद छोटी उम्र में ही स्कूल छोड़ देते हैं और अतिरिक्त आय की खातिर अपने माँ-बाप के साथ गन्ने के खेतों में काम करने के लिए चले जाते हैं। इस सबके बावजूद, कम से कम मेरे पास साल में छह महीने काम की गारंटी तो है। वैसे भी, मेरे पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं है।”

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Sugarcane Workers of Gujarat District Trapped in Spiral of Debt

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