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‘प्राकृतिक’ और ‘अप्राकृतिक’ के फेर में पिसती महिलाएं !

पिछले दिनों मुंबई में रहने वाले आराध्य(बदला हुआ नाम) ने सोचा कि वो अपने माता पिता के साथ एक ‘ख़ास’ कार्यक्रम देखेगा ताकि वो उस विषय पर उनका नज़रिया और उनकी प्रतिक्रिया देख सके। ये उसके लिए एक तरह का लिटमस टेस्ट ही था। प्रोग्राम शुरू होने में अभी थोड़ा वक्त बाक़ी था लेकिन फिर भी वो अपनी जगह तय कर चुका था, जहाँ बैठकर वो आसानी से उनके चेहरे के हाव भाव देख सके। प्रोग्राम शुरू हुआ, टीवी स्क्रीन पर आराध्य के पिता के पसंदीदा अभिनेता नज़र आये, जो काफ़ी संयम से कुछ एक बातें समझाने की कोशिश में मसरूफ दिख रहे थे। कुछ मिनट बीते और आराध्य के पिता सोफ़े पर बैठे बैठे ही असहज होने लगे। कभी वो मेज़ के नीचे रखे अखबार को निकालने लगते तो कभी उसके पन्नों को पलटना शुरू करते। वहीँ, सामने टीवी लगातार एक-आद शब्दों को बार बार दौहराए जा रहा था। जैसे, ‘समलैंगिकता’,‘समलैंगिक होना उतना ही ‘प्राकृतिक’ है जितना विषमलिंगी’, ‘माँ बाप को अपने बच्चों को समझना चाहिए, उनसे बात करनी चाहिए’, ‘ये कोई बीमारी नहीं है’। लेकिन थोड़ी ही देर बाद जैसे आराध्य के पिता का संयम टूट गया। भारी सी आवाज़ में वो कह गए ‘ये क्या बकवास लगा दिया सुबह सुबह,देखने को कुछ और नहीं है क्या?’। आराध्य अपनी माँ की प्रतिक्रिया जानना चाहता था, वो शायद कुछ उम्मीद भरी नज़रों से उनकी तरफ़ देख रहा था लेकिन उनकी ख़ामोशी पर पिता की तेज़ गरजती आवाज़ भारी पड़ती दिखी।

                                                                                                                                                       

आराध्य ने अपनी ओर से एक कोशिश और की उसने कहा कि –‘पापा ये तो आपका पसंदीदा अभिनेता है ,रुकिए ना  सुनते हैं कि क्या कह रहे हैं, वैसे भी ये शो काफ़ी पसंद किया जा रहा है” ।
आराध्य के पिता इस बार कुछ नहीं बोले और कमरे से बाहर निकल गए। आराध्य अफ़सोस के पलों में पीछे रह गया।  आराध्य 26 साल का है और समलैंगिक है। उसके माँ बाप इस बात को नहीं जानते। लेकिन आराध्य अपने माता पिता से बेइंतेहा प्यार करने वाला लड़का। पढ़ने में आपको शायद अजीब लगे लेकिन उसकी फेसबुक की कवर पिक पर भी अपने माँ बाप की तस्वीर है। उसे उम्मीद थी कि वो दोनों उसे समझेंगे। लेकिन मायूसी उसे घेर चुकी थी और डर उसकी हड्डियों को ठंडा कर रहा था।

आराध्य जैसे कई बच्चे हमारे इसी समाज में हैं, जिन्हें कभी न कभी अपने इस डर से लड़ना ही पड़ता है कि वो अपनी यौनिकता के बारे में कब और कैसे अपने माँ बाप से बात कर पाएंगे। इनमें से कुछ लोगों के माँ बाप अपने बच्चों को समझते और अपनाते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें समाज के साथ ही अपने परिवार से भी तिरस्कृत होना पड़ता है। नतीजा मानसिक दबाव और आत्महत्या या उसका प्रयास। कुछ एक मामलों में परिवार के दबाव के चलते समलैंगिक व्यक्ति को विवाह करना ही इस दबाव से दूर होने का आसान तरीका लगता है। ।

दूसरा वाकया बंगलुरु का है। पिछले दिनों बंगलुरु की एक आईटी कम्पनी के कर्मचारी को सेक्शन 377 के तहत गिफ्तार किया गया। ये गिरफ्तारी उसकी पत्नी की शिकायत पर की गई। पत्नी का आरोप था कि उसका पति समलैंगिक हो सकता है। जिसका पता उसने कमरे में मौजूद एक कैमरे से अपने पति कि ‘गतिविधियों’ को कैद कर के लगाया। महिला का ये भी आरोप है कि बेटे के समलैंगिक होने का पता होने के बावजूद उसके माता पिता ने उसकी शादी कर दी। इसमें कोई शक नहीं कि महिला को न्याय मिलना चाहिए। अगर वो अपने पति से अलग होना चाहती है तो उसे इसकी भी अनुमति अदालत से मिलनी चाहिए। लेकिन सवाल ये भी है कि आखिर महिला के पति ने ऐसा क्यों किया? क्यों अपने समलैंगिक होने की बात छुपाई? क्या वाकई उसके पास कोई और रास्ता बचा था ? शायद इसका जवाब सवाल में ही है। देश का क़ानून समलैगिकता को सज़ा के प्रावधान के तहत पेश करता है।
यानी इस तरह के ‘अप्राकृतिक’ संबंधों पर सज़ा हो सकती है। समाज का नाज़िया पितृसत्तात्मक होने के चलते वो तमाम ऐसी  बातों को ख़ारिज करता है जो उसके खांचों में सही-सही ना बैठे। वो समलैंगिकों को हींन भावना से देखता है। उन्हें अपने से अलग मानने के लिए तमाम तरह के कुतर्क करता है। जबकि ध्यान से देखने पर समलैंगिकता उसके समाज में काफ़ी लंबे समय से उसका हिस्सा रही है जिसके प्रमाण कई मंदिरों और ग्रंथों में मौजूद है। लेकिन फिर भी समाज का एक वर्ग इन बातों को तथ्यों के तौर पर भी स्वीकार करने में खुद को असमर्थ महसूस करता है। ऐसे में इस बात की कल्पना कैसे की जा सकती है कि बंगलुरु जैसे वाकये सामने ना आये?

इस बात से भी इनकार नहीं किया सकता कि देश में आज भी कई ऐसे समलैंगिक पुरुष होंगे जिन्हें समाज के डर और मान्यताओं के साथ साथ माँ बाप के दबाव के चलते मजबूरन किसी विषमलिंगी महिला से शादी करने पर मजबूर न होना पड़ा हो।
समलैंगिकता के साथ जुड़े ‘प्राकृतिक’ और ‘अप्राकृतिक’ की इस बहस में एक पल रुक कर ये सोचने की ज़रूरत है कि ज़्यादा ‘अप्राकृतिक’ क्या है? एक समलैंगिक (महिला या पुरुष का) एक विषमलिंगी (महिला या पुरुष से) शादी करना या दो समलैंगिकों को उनके अधिकार देना? बंगलुरु के उस व्यक्ति को क्या सज़ा मिलनी चाहिए ये क़ानून तय करेगा लेकिन उस समाज को क्या सज़ा मिलनी चाहिए,जो कहीं ना कहीं इस तरह की घटनाओ का हिस्सा है।उसकी जिम्मेदार और सज़ा कौन तय करेगा? क्या उस महिला का दोषी सिर्फ वो व्यक्ति रहा या फिर वो क़ानून जिसकी फाँस देश के दूसरे समलैंगिकों पर आज भी मौजूद है। जो ना चाहते हुए भी आने वाले समय में इस तरह के ‘विवाह बंधनों’ में बंधते चले जायेंगे।
नारीवाद को समझने और उसपर अपनी स्याही खर्च करने वालों को भी सोचना चाहिए कि समलैंगिक अधिकारों की लड़ाई सिर्फ समलैंगिकों की लड़ाई नहीं है बल्कि ये उतनी ही नारीवादी लड़ाई भी है।

आकंडों पर नज़र डाले तो सरकार के मुताबिक देश में 25 लाख समलैंगिक मौजूद हैं, जबकि जानकारों का कहना है कि ये आंकड़ा इससे कई ज़्यादा है। ज्यादातर समलैंगिक व्यक्ति इसलिए खुलकर बाहर नहीं आते क्योंकि उन्हें अपने आसपास भेदभाव होने और सज़ा का डर सताता है।
असल में देखा जाये तो सुप्रीम कोर्ट की नज़र में ये ‘मिनिस्क्यूल माइनोरिटी’ आज एक बार फिर अपने अस्तित्व की लड़ाई में संघर्षरत है। लेकिन इससे पहले वर्ष 2009 की बात करें तो दिल्ली हाईकोर्ट से देश के समलैंगिक समूह को एक आज़ादी मिली,जिसने उम्मीद को जन्म दिया। दिल्ली हाईकोर्ट के मुताबिक दो वयस्कों के एकांत में और सहमति से बने संबंधों को इस क़ानून से मुक्त कर दिया गया। आज दिल्ली हाईकोर्ट से मिली अपनी उस आज़ादी को खोकर ये समूह मायूस ज़रूर है लेकिन वापस पीछे मुड़ना नहीं चाहता। वो सड़कों से लेकर कॉलेज और मल्टीनैशनल कंपनियों में अपने साथ पढ़ने और काम करने वाले लोगों को जागरूक करने की पूरी कोशिश कर रहा है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस कोशिश में सत्यमेव जयते जैसे प्रोग्राम भी अपना योगदान ज़रूर दे सकते हैं। हाल ही में विदेशी कम्पनी ‘एप्पल’ के सी।ई।ओ टिम कुक ने स्वीकार किया कि वो समलैंगिक हैं जिसका उन्हें कोई दुःख नहीं, बल्कि वो उसपर गर्व करते हैं। वो लिखते हैं कि “समलैंगिक होने से मुझे इस बात की गहरी समझ हुई है कि 'अल्पसंख्यक' होने के क्या मायने होते हैं” ।देखा जाये तो ये विडंबना ही है कि एक ही वक्त में किसी देश का एक नागरिक जहाँ खुल कर अपने समलैंगिक होने की घोषणा करता है वहीँ भारत जैसे देश में किसी नागरिक को अपनी यौनिक अभिरुचि छुपाने पर ना सिर्फ मजबूर होना पड़ता है बल्कि उसे सज़ा का हक़दार बनाया जाता है।

क्या आप अपनी उस बात को छुपाना नहीं चाहेंगे जो आपका सामाजिक बहिष्कार करे और आपको क़ानून की नज़रों में ‘मुजरिम’ बना दे? अपनी यौनिक अभिरुचि को छुपाने के लिए मजबूर समलैंगिक समूह का एक बड़ा वर्ग आज भी विषमलिंगी महिलाओं से शादी करने पर मजबूर किया जाता है और इस बात का सबसे बड़ा नुकसान देश की उन महिलाओं को होगा जिन्हें ये नहीं मालूम कि उनके पति की यौनिक अभिरुचि क्या है।

 

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।

 

 

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