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प्रेस स्वतंत्रता दिवस : भारतीय प्रेस/पत्रकार कितने स्वतंत्र?

भारतीय पत्रकारिता इस वक्त आत्म आरोपित दासता को स्वतंत्रता मानने की गलती कर रही है। कॉरपोरेट जगत और राजनीतिक दलों के साथ पत्रकारिता के गठजोड़ की बात अब पुरानी हो चली है। गठजोड़ करने के लिए भी अपना पृथक अस्तित्व तो बरकरार रखना पड़ता है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में तो आज पत्रकारिता का कॉरपोरेट जगत और राजनीति के साथ विलय हो गया है।
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy: Google

आज प्रेस स्वतंत्रता दिवस (World Press Freedom Day) है। अभिव्यक्ति की आज़ादी के महत्व को बताने और उसे सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता को रेखांकित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 3 मई को विश्व प्रेस दिवस या विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस घोषित किया। इस मौके पर आपके लिए एक विशेष आलेख :-

भारत 2019 के ग्लोबल प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 2 स्थानों की गिरावट के साथ  कुल आकलित 180 देशों में 140वें स्थान पर रहा। यह आकलन रिपोर्टर्स विथआउट बॉर्डर्स नामक नॉन प्रॉफिट आर्गेनाइजेशन द्वारा सन 2002 से प्रति वर्ष किया जाता है। इस संगठन का मुख्यालय पेरिस में है। इस संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रेस की स्वतंत्रता का आकलन करते समय जो सबसे महत्वपूर्ण बात देखने में आई वह पत्रकारों के साथ होने वाली हिंसा में वृद्धि है- पत्रकार, पुलिस और माओवादी लड़ाकों की हिंसा का शिकार हुए हैं तथा उन्हें भ्रष्ट राजनेताओं और अपराधी समूहों के बदले की कार्रवाई का सामना करना पड़ा है। वर्ष 2018 में अपने कार्य के दौरान कम से कम 6 भारतीय पत्रकार मारे गए।

यह रिपोर्ट आगे कहती है कि ये हत्याएं उन खतरों को दर्शाती हैं जिनका सामना ग्रामीण इलाकों में अंग्रेजी भाषेतर पत्रकारों को करना पड़ता है। 2019 के चुनावों  के इस दौर में हाल के महीनों में सत्ताधारी बीजेपी के समर्थकों द्वारा पत्रकारों पर हमले की घटनाएं बढ़ी हैं। चुनावों के संपन्न होने तक पत्रकारों पर हमले की आशंकाएं अधिक बनी रहेंगी।

रिपोर्ट के अनुसार हिंदुत्व की अवधारणा के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले पत्रकारों के विरुद्ध सोशल मीडिया में समन्वित हेट कैंपेनस चलाई जा रही हैं। यह सोशल मीडिया अभियान तब और कटु एवं विषाक्त रूप ले लेते हैं जब इनका निशाना महिलाएं होती हैं। महिला पत्रकारों पर होने वाले यौन हमलों एवं उनकी प्रताड़ना के अनेक मामले 2018 के मी टू अभियान के माध्यम से उजागर हुए।

रिपोर्ट यह भी कहती है कि अधिकारी कश्मीर जैसे जिन क्षेत्रों को संवेदनशील मानते हैं उन क्षेत्रों की कवरेज अब भी कठिन बनी हुई है। वहां विदेशी पत्रकारों का जाना प्रतिबंधित है और इंटरनेट भी प्रायः काम नहीं करता।

यह देखना आश्चर्यजनक है कि इस रिपोर्ट पर मीडिया में अधिक चर्चा नहीं हुई। संभवतः भारत के अग्रणी मीडिया हाउसेस यह नहीं चाहते होंगे कि वे प्रधानमंत्री जी की नजरों में नकारात्मकता फैलाने के दोषी समझे जाएं। वे गुड मीडिया का अपना दर्जा बरकरार रखना चाहते होंगे, गुड से बैड होने के अपने खतरे हैं। इस खबर को औपचारिकता निभाने के लिए बिना विश्लेषण यथावत प्रस्तुत कर दिया गया। जो इक्का दुक्का लेख और बहसें इस विषय पर देखने में आईं उनका स्वरूप आजकल प्रचलित अत्यंत लोकप्रिय नैरेटिव के अनुसार ही था- हमारी भूल पर चर्चा करने से पहले जरा विरोधी दल के शासन काल में पत्रकारों की हालत की चर्चा करो। तुम्हें पता है विश्व के ताकतवर देशों में पत्रकारों के साथ कैसा सुलूक होता है? जरा यह भी तो देखो कि पड़ोसी मुल्कों में पत्रकारों की हालत कैसी है? इनमें यह चीख-चीख कर बताया गया कि हमारा आराध्य और आदर्श अमेरिका भी तो तीन स्थानों की गिरावट के साथ 48वें स्थान पर पहुंच गया है, आखिर ट्रम्प भी तो मोदी जी जैसे सख्त और मजबूत प्रशासक हैं। और यह भी कि पाकिस्तान भी तो 2018 की तुलना में 3 स्थान नीचे 142वें स्थान पर है और बांग्लादेश 4 स्थान गिरकर 150वें स्थान पर पहुंच गया है।

यह गरज कर पूछा गया कि मीडिया इन देशों के बारे में चुप क्यों है? क्या उसके तार राष्ट्र विरोधी शक्तियों से जुड़े हैं? यह भी जोर शोर से कहा गया कि यूपीए के शासन काल में भी भारत का प्रदर्शन कोई बहुत अच्छा नहीं रहा था और चेहरे पर आहत भाव लाकर प्रश्न किया गया कि तब आप चुप क्यों थे?

यह अपनी गलती को दूसरे की गलती द्वारा न्यायोचित ठहराने के नैरेटिव का महज एक विस्तार है।

रिपोर्टर्स विथआउट बॉर्डर्स की प्रेस की स्वतंत्रता का आकलन करने की अपनी पद्धति है। वे मीडिया में बहुलताओं की स्वीकृति के स्तर, मीडिया की स्वतंत्रता, सामान्य वातावरण तथा सेल्फ सेंसरशिप, पारदर्शिता, कानूनी ढांचे की मजबूती एवं अधोसंरचना के स्तर पर समाचार एवं सूचना प्राप्त करने हेतु उपलब्ध सुविधाओं जैसे मानकों का प्रयोग करते हैं।

रिपोर्ट बताती है कि पूरे विश्व में पत्रकारों के लिए सुरक्षित समझे वाले देशों की संख्या कम हुई है क्योंकि अधिनायकवाद का आश्रय लेने वाली सरकारों ने मीडिया पर अपना शिकंजा कसा है जिसके कारण भय का वातावरण बना है। पूरी दुनिया के अनेक देशों में राजनेताओं द्वारा खुलेआम मीडिया के विषय में अपनी नफ़रत और शत्रुता के इज़हार की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण पत्रकारों के साथ हिंसा को प्रोत्साहन मिला है। इस विश्वव्यापी पैटर्न का विश्लेषण अनेक प्रकार से किया जा सकता है। पूरे विश्व में संकीर्ण राष्ट्रवाद की वकालत करने वाले नेताओं की संख्या बढ़ी है जिनकी विचारधारा के कारण अविश्वास, हिंसा और आक्रामकता को बढ़ावा मिला है। कुछ विद्वानों के अनुसार इस्लामिक कट्टरता की प्रतिक्रिया स्वरूप ईसाई और हिन्दू कट्टरता को बढ़ावा मिला है और सैमुएल पी हंटिंग्टन की पुस्तक द क्लैशेस ऑफ सिविलाइज़ेशनस एंड द रीमेकिंग ऑफ वर्ल्ड आर्डर में प्रस्तुत परिकल्पना जैसी ही कोई परिस्थिति बन रही है। जबकि अनेक विद्वान इस्लामोफोबिया के झूठ और पाखंड को उजागर कर यह रेखांकित करने की कोशिश कर रहे हैं कि किस प्रकार इस्लाम धर्मावलंबियों के ख़िलाफ़ भ्रम फैलाया जा रहा है। इनके मतानुसार यह युग नव फासीवादी ताकतों के उभार का युग है। नव फासीवाद और नव उदारवाद साथ साथ चलते हैं। इनका विश्वास झूठ, भ्रम और हिंसा में होता है, इसलिए सच्चे पत्रकार इनके स्वाभाविक शत्रु होते हैं।

भारत में पत्रकारों की स्थिति का आकलन करने के लिए प्रेस फ्रीडम इंडेक्स की यह रिपोर्ट शायद पर्याप्त न होगी। भारतीय पत्रकारिता इस वक्त आत्म आरोपित दासता को स्वतंत्रता मानने की गलती कर रही है। कॉरपोरेट जगत और राजनीतिक दलों के साथ पत्रकारिता के गठजोड़ की बात अब पुरानी हो चली है। गठजोड़ करने के लिए भी अपना पृथक अस्तित्व तो बरकरार रखना पड़ता है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में तो आज पत्रकारिता का कॉरपोरेट जगत और राजनीति के साथ विलय हो गया है। पत्रकारिता का प्राथमिक लक्ष्य सूचनाओं और समाचारों की वस्तुनिष्ठ प्रस्तुति होता है। पत्रकार कोई परग्रही प्राणी नहीं होता इसलिए स्वाभाविक तौर पर उसकी अभिरुचियां, वैचारिक प्रतिबद्धताएं और पूर्वाग्रह होते हैं तथा इसमें असामान्य, असंगत और अनुचित जैसा कुछ भी नहीं है। पत्रकार हमेशा अपनी निजी प्राथमिकताओं को नियंत्रित करने हेतु संघर्ष करता रहता है ताकि उसके द्वारा तैयार रपट की वस्तुनिष्ठता और विश्वसनीयता बनी रहे। आज की पत्रकारिता न तो सूचनाओं और तथ्यों के चयन में निष्पक्ष है न उनकी प्रस्तुति में। आज के समय के कुछ बहुत प्रतिभाशाली युवाओं को अपने राजनीतिक और कॉरपोरेट मालिकों के हितों की सिद्धि के लिए प्रोपेगैंडा वॉर चलाते देखना दुःखद है और उससे भी पीड़ाजनक है इस ब्रांडिंग-मार्केटिंग-एडवरटाइजिंग कैंपेन को पत्रकारिता का नाम देना। कॉरपोरेट समूहों और उनके मालिकों की किसी विशेष राजनीतिक दल के प्रति प्रतिबद्धता नहीं होती, हर दल में उनके मित्र और हितचिंतक होते हैं। यही कारण है कि कॉरपोरेट मीडिया निष्पक्षता का भ्रम पैदा करता है।

स्वतंत्रता, स्वस्थ और सबल मीडिया के विकास की पहली आवश्यकता है। यही कारण है कि उस आदर्श स्थिति तक पहुंचने की चेष्टा की जाती है जब मीडिया स्वयं यह तय करे कि उसे क्या और कैसे प्रस्तुत करना है बजा कि कोई राजसत्ता या कानून यह तय करे कि मीडिया किस तरह चले। आज की विडंबना यह है कि मीडिया ने राजसत्ता को सेंसरशिप लागू करने के अप्रिय कार्य से मुक्त कर दिया है और वह स्वयं राजसत्ता के सहयोगी के तौर पर उसके हित संवर्धन के लिए सूचनाओं को सेंसर कर रहा है। 

प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में वर्णित खतरों से मुकाबला करने के लिए सबसे पहले यह आवश्यक है कि इन खतरों को पत्रकार बिरादरी एकमत होकर स्वीकार करे। किंतु पत्रकार बिरादरी आज जिस तरह खेमों में बंटी हुई है उसकी कल्पना भी कठिन है। ये खेमे वैचारिक विभिन्नता रखने वाले मित्रों के तो बिलकुल नहीं हैं। ये शायद व्यावसायिक प्रतिद्वंद्वियों के खेमे भी नहीं हैं। ये उन चारण और भाटों के खेमे हैं जो अपने स्वामी को खुश करने के लिए मरने मारने पर आमादा हैं। हो सकता है कि कुछ पत्रकार इस रिपोर्ट को उन विकसित देशों की चाल के रूप में प्रस्तुत करें जो भारत को विश्व गुरु बनता देख घबरा गए हैं। हो सकता है कि कुछ खोजी किस्म के लोग हिंसा के शिकार पत्रकारों की प्रतिबद्धता पर ही संदेह करने लगें और उनके विरुद्ध कुछ ढूंढ निकालने के लिए गली गली भटकने लगें। इन परिस्थितियों में पत्रकारों की रक्षा के लिए न्यायपालिका का कोई प्रभावशाली निर्देश भी पत्रकारों को सुरक्षा नहीं दे सकता। 

प्रेस को लोकतंत्र का चतुर्थ स्तंभ कहा जाता है। आज हम जिस तरह का अधिनायकवादी और असमावेशी लोकतंत्र बनने की ओर अग्रसर हैं उसके लिए शायद वैसा ही चतुर्थ स्तंभ चाहिए जैसी आज की पत्रकारिता है। अनेक विद्वज्जन आज के इस अवसर पर भारत के स्वतंत्रता संग्राम को नेतृत्व प्रदान करने वाली विभूतियों के मूल्य आधारित पत्रकारिता के साथ अटूट रिश्ते की चर्चा करेंगे किंतु उनके ये विचार आज की पत्रकारिता से जुड़े नवयुवकों के लिए पराश्रव्य ध्वनियों की भांति होंगे – इन्हें सुनने के लिए संवेदना और नैतिकता का जो आंतरिक उपकरण चाहिए वह शायद अब लुप्त हो गया है।

क्या सूचनाओं और विचारों के इस संकट के प्रति लोगों को जागरूक करना कोई समाधान दे सकता है? क्या लोगों को इतना शिक्षित किया जा सकता है कि वे इस तरह के मीडिया हाउसेस की दुकानदारी बंद कर दें। जन जागरण के प्रयास हो रहे हैं लेकिन उनकी अपनी सीमाएं हैं।  संसाधनों की कमी है। ये प्रयास संगठित नहीं हैं, इनमें पारस्परिक समन्वय भी नहीं है। कई बार हम विरोध करते करते उसी मूल्यमीमांसा का सहारा लेने लगते हैं जिसमें अपना मायाजाल फैलाने वाली यह शक्तियां पारंगत हैं। भारतीय मीडिया पर कॉरपोरेट दबावों को उजागर करने के लिए बहुत लोगों ने कोशिश की है।

सुबीर घोष और परंजॉय गुहा ठाकुरता ने इस विषय पर एक पुस्तक ही लिखी है- स्यू द मैसेंजर। कॉरपोरेट-राजनेता-पत्रकार गठजोड़ को विस्तार से उजागर करने वाली अनेक मीडिया रिपोर्ट्स उपलब्ध हैं। इनमें से कुछ सोशल मीडिया पर वायरल भी हैं। इनसे यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार बड़े कॉरपोरेट्स का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कब्जा भारतीय मीडिया पर है, किस प्रकार राजनेता पत्रकार बन रहे हैं और पत्रकार राजनेता। जिस प्रकार पुराने राजे रजवाड़े अपने संबंधों को प्रगाढ़ करने के लिए पारिवारिक और वैवाहिक बंधनों का आश्रय लेते थे वैसा ही कुछ राजनेता-कॉरपोरेट्स-पत्रकारों के बीच घटित हो रहा है। किंतु इस तरह की तथ्यपरक प्रस्तुति कई बार पाठक का ध्यान मुद्दे से अधिक उन व्यक्तियों पर केंद्रित कर देती है जो इस भ्रष्ट व्यवस्था का दिखने वाला चेहरा हैं। यही खतरा तब भी होता है जब हम आज के उन चर्चित साहसी पत्रकारों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करते हैं जो तमाम खतरे उठाकर सच को उजागर करने में लगे हैं। हम इन पत्रकारों के साथ उन्हीं लार्जर दैन लाइफ विशेषताओं को जोड़ने लगते हैं और आत्म मुग्धता की उसी मानसिकता की ओर इन्हें धकेलने की कोशिश करने लगते हैं जिनसे ये संघर्ष कर रहे हैं। तथ्य और तर्क की जमीन पर ही वह संतुलन और वस्तुनिष्ठता प्राप्त की जा सकती है जो पत्रकारिता की आत्मा है। न केवल पत्रकारिता में भी बल्कि राजनीति में भी हम मुद्दों की लड़ाई को व्यक्तियों के संघर्ष में बदल देने के दोषी हैं। जब हम अति उत्साह में आकर मोदी वर्सेज रवीश कुमार या मोदी वर्सेज कन्हैया कुमार जैसी चर्चाओं का प्रारंभ करते हैं तो उन ताकतों को बड़ी राहत महसूस होती होगी जो तर्क और न्याय का राज्य स्थापित नहीं होने देना चाहतीं। हम प्रतीकों की भाषा में सोचना प्रारंभ कर देते हैं। इस तरह मुद्दे गौण हो जाते हैं और व्यक्ति प्रमुख हो जाता है तथा बहस इन शक्तियों की मनचाही दिशा में चल निकलती है। हमें यह तय करना होगा कि हमारा संघर्ष किस से है? किसी ऐसे व्यक्ति को जो अहंकार और अधिनायकवाद का प्रतीक बना बैठा है यदि हम सत्ताच्युत करने में कामयाब हो जाएं तो क्या मीडिया की सारी समस्याएं समाप्त हो जाएंगी? क्या उसकी निष्पक्षता लौट आएगी? या कॉरपोरेट मीडिया कोई दूसरा महानायक गढ़ लेगा जो वर्तमान सुपर हीरो से भी अधिक मायावी होगा क्योंकि यह अपने पूर्ववर्ती की गलतियों को नहीं दुहरायेगा। वर्तमान महानायक की प्रजातांत्रिक तरीके से विदाई दरअसल संघर्ष का प्रारंभ है अंत नहीं।

संघर्ष के नायकों की पूजा कर हम अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। जबकि ऐसे कितने ही पत्रकार हैं, ब्लॉगर हैं, सोशल मीडिया एक्टिविस्ट हैं जो रोज गालियों और अपमान का सामना करते और हिंसक आक्रमण की धमकियों से बिना डरे अभिव्यक्ति के खतरे उठा रहे हैं। बिना विचारधारा के आधार पर भेदभाव किए हमें इनका साथ देना होगा, इन्हें नैतिक समर्थन देना होगा। जब ये प्रोपेगैंडा वॉर का मुकाबला करते करते खीज कर खुद वैसा ही भ्रम फैलाने की रणनीति अपनाने की सोचने लगें तो इन्हें समझाना होगा, रोकना होगा। इन्हें बताना होगा कि सच का कोई मुकाबला नहीं है, झूठ को कितने ही पुरजोर ढंग से पेश किया जाए अंततः उसका खोखलापन उजागर होकर रहेगा। कॉरपोरेट पत्रकारिता की संगठित सेना को अगर कोई परास्त कर सकता है तो वह लघु समाचार पत्रों और सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर सक्रिय समर्पित पत्रकारों की छोटी छोटी टुकड़ियां ही हैं। 

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