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पश्चिम की तरफ़ प्राचीन-भारतीय प्रवास का कोई जेनेटिक सुराग नहीं है : टोनी जोसफ़

टोनी जोसफ़, ने अपनी पुस्तक अर्ली इंडियन्स: द स्टोरी ऑफ़ अवर एंससेटर्स एंड व्हेयर वी केम फ़्रोम, में इस बात की पड़ताल की है कि लगभग 4,000 साल पहले  भारत-आर्यन प्रवासन सहित अन्य प्रवासियों ने भारत की जनसांख्यिकी को कैसा आकार दिया। वे भारत की जनसंख्या की "पिज़्ज़ा" से तुलना करते हैं – और इस बात की ख़ुशी जताते हैं कि यहां की आबादी में विविधता है।
Rakhigarhi

5 सितंबर को, एक वैज्ञानिक आधार पर पेपर सामने आया जिसकी काफ़ी समय से प्रतीक्षा की जा रही थी- यह पेपर राखीगढ़ी के पुरातात्विक स्थल से एक हड़प्पा समय की महिला के जीनोम अनुक्रम का विश्लेषण करते हुए –एक पत्रिका, सेल में प्रकाशित किया गया है। अपने निष्कर्षों की घोषणा करने के लिए बुलाए गए एक संवाददाता सम्मेलन में दो भारतीय सह-लेखकों ने ख़ुद के पेपर के कुछ निष्कर्षों का खंडन भी किया।

उदाहरण के लिए, इतिहास लिखे जाने से पहले के समय में 'भारत के बाहर' जाने वाले प्रवास को निश्चित दावों को स्पष्ट रूप से या विशेष रूप से पेपर में नहीं बताया गया है। उन्होंने एक स्टैण्ड भी लिया कि ‘आर्यन’ का प्रवास जिसने हिंदू दक्षिणपंथ की स्थिति की तरफ मोड़ दिया, जिसे भारत के इतिहासकारों ने लगातार चुनौती दी है।

5 सितंबर को जर्नल साइंस में एक और संबंधित आनुवांशिकी अध्ययन प्रकाशित किया गया था। इसके लेखकों ने इस तरह के विरोधाभासी दावे नहीं किए हैं।

टोनी जोसफ़, ने अपनी पुस्तक अर्ली इंडियन्स: द स्टोरी ऑफ अवर एंसेसटर्स एंड व्हेयर वी कैम फ्रोम, में इस बात की पड़ताल की है कि लगभग 4,000 साल पहले भारत-आर्यन प्रवासन सहित प्रवासियों ने भारत की जनसांख्यिकी को आकार दिया। वह भारत की जनसंख्या की "पिज़्ज़ा" से तुलना करते हैं - और इस बात की ख़ुशी जताते हैं कि यहां की आबादी में विविधता है।

एक ईमेल इंटरव्यू में, जोसफ़, सेल में प्रकाशित अध्ययन के बारे में दो लेखकों के दावों को संबोधित करते है। उनका मानना हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता पर मीडिया रिपोर्टें अक्सर ग़लत होती हैं और इतिहास के तौर पर पक्षपाती रही हैं तथा निर्विवाद रूप से मिथक गढ़ने की कोशिश में रही हैं।

बहुत स्पष्टता के साथ, और जैसा कि जोसफ़ ने हाल ही में बताया है, "राखीगढ़ी डीएनए का मौजूदा अध्ययन पहले की समझ की ही पुष्टि करता है कि हड़प्पा सभ्यता का निर्माण प्रथम भारतीयों और पश्चिम एशियाई लोगों की मिश्रित आबादी द्वारा किया गया था, और स्टेपे चरवाहे जो इंडो-आर्यन भाषाओं को लाए थे तब तक भारत के इस क्षेत्र में मौजूद नहीं थे।”

और सेल की रिपोर्ट ख़ुद नोट करती है: “...कि दक्षिण-पूर्व एशिया में फैलने वाली इंडो-यूरोपीय भाषाओं का  एक प्राकृतिक मार्ग पूर्वी यूरोप से मध्य एशिया के माध्यम से दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व की पहली छमाही में हुआ था, ट्रांसमिशन की एक श्रृंखला जो उस वक़्त घटी थी जिसके बारे में प्राचीन डीएनए के अध्ययन के लेख में विस्तार से ज़िक्र किया गया है। तथ्य यह है कि दक्षिण एशिया में स्टेपी चरवाहे या पूर्वज आपस में मेल खाते हैं चूंकि कांस्य युग पूर्वी यूरोप (लेकिन पश्चिमी यूरोप नहीं) इस सिद्धांत को साबित करने के लिए अतिरिक्त सबूत प्रदान करता है, क्योंकि यह बाल्टो-स्लाविक और भारत-ईरानी भाषा की साझा विशिष्ट विशेषताओं के बारे में बताता है ... "

जिन दो वैज्ञानिकों ने सेल में प्रकाशित इस अध्ययन का सह-लेखन किया है, वे दावा करते हैं कि उन्हे "100 प्रतिशत विश्वास है कि 'भारत से बाहर' प्रवास हुआ है। दक्षिण एशिया में प्रवासन पैटर्न के बारे में अब तक जो हम जानते हैं, उससे यह बहुत अलग लगता है।

यह इस बात पर निर्भर करता है कि ‘आउट ऑफ इंडिया’ माइग्रेशन का उनकी नज़रों क्या मायने हैं। यदि आप कुछ हड़प्पा वासियों के बारे में बात कर रहे हैं, जो पड़ोसी सभ्यताओं जैसे कि बैक्ट्रिया मार्जिपा आर्कियोलॉजिकल कॉम्प्लेक्स (बीएमएसी) या शेहर-ए-सोख्ता के साथ यात्रा कर रहे हैं, जिनके साथ उनके व्यापार और सांस्कृतिक संबंध हैं, तो यह सटीक है। हम लंबे समय से जानते हैं कि हड़प्पा और अन्य पड़ोसी सभ्यताओं के बीच व्यापार और सांस्कृतिक संपर्क रहे हैं।

लेकिन अगर 'आउट ऑफ़ इंडिया' माइग्रेशन से आपका मतलब है कि पश्चिम की ओर प्रागैतिहासिक भारतीयों का बड़े पैमाने पर प्रवास हुआ, संस्कृति और भाषा का प्रसार हुआ, जो पश्चिमी यूरोप में आइसलैंड तक हुआ है, तो मुझे कहना पड़ेगा कि इन दावों में कोई दम नहीं है, क्योंकि अब या पहले प्रकाशित किसी भी आनुवंशिक पत्र में इसका कहीं ज़िक्र नहीं मिलता है। वास्तव में, सेल और विज्ञान में हाल के दोनों अध्ययन में पाया गया और इस तथ्य पर ज़ोर दिया गया कि मध्य एशिया से पलायन पहले यूरोप और बाद में भारत में हुआ जिसने इंडो-यूरोपीय भाषाओं का प्रसार किया। संक्षेप में, दो अध्ययनों का तर्क है कि ये पलायन बताते हैं कि क्यों इंडो-यूरोपीय भाषाएं यूरेशिया में फैली हैं जैसे वे आज हैं।

"कई तरह के साक्ष्यों से पता चलता है कि I6113 [राखीगढ़ी व्यक्ति] की आनुवांशिक समानता सिंधु परिधि व्यक्तियों [ईरान और तुर्कमेनिस्तान में साइटों से 11 आनुवांशिक परिवेष्टक] रिवर्स दिशा के बजाय दक्षिण एशिया में हुए जीन प्रवाह के कारण है।" क्या इसका मतलब 'भारत से बाहर' प्रवास है?

इसका अर्थ है कि 'भारत के बाहर', कुछ हड़प्पा वासियों ने उन पड़ोसी सभ्यताओं की यात्रा की थी, जैसा कि हम जानते हैं जिनके साथ उनके व्यापारिक और सांस्कृतिक रिश्ते थे। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है और इसका कोई बड़ा प्रभाव भी नहीं है।

इस मामले में, हम सेल में प्रकाशित रिपोर्ट से वास्तव में क्या सीखते हैं? क्या साइंस रिपोर्ट में भी कुछ नया है? या दोनों मौजूदा पुरातात्विक और अनुवांशिक सबूतों की पुष्टि करते हैं?

ज़्यादातर [वे] पुष्टियां ही हैं। जो नई चीजें हैं: वे विज्ञान रिपोर्ट इस संभावना की बात करती है कि हड़प्पावासी द्रविड़ भाषा बोलते थे, जिसके बारे में रिपोर्ट के पहले संस्करण में बात नहीं की गई थी। यह महत्वपूर्ण है और इस पर ज्यादा प्रकाश डालने की आवश्यकता है। दूसरा यह है कि पश्चिमी एशियाई जो पहले भारतीयों के साथ घुलमिल गए थे, वे किसानों के रूप में नहीं आए होंगे, बल्कि वे शिकारी के रूप में यहां आए होंगे। इस अर्थ में देखा जाए तो, हो सकता है कि उस वक़्त भारत में स्वतंत्र रूप से खेती शुरू हो गई थी, क्योंकि मेरी पुस्तक भी इस बात की दृढ़ता से तसदीक़ करती है।

इन दोनों के अलावा, जिस तथ्य के बारे में हम जानते है कि हमारे पास अब 11 प्राचीन डीएनए नमूने [जेनेटिक मटीरियल] प्रवासियों के शाहर-ए-सोख्ता और गोनूर में हैं, जो पहले केवल तीन थे, मैं इनमें बहुत बदलाव नहीं देखता हूँ। अधिकतर, नए निष्कर्ष पहले के निष्कर्षों की ही तसदीक़ करते हैं, और अधिक मज़बूत सबूतों के साथ पुष्टि करते हैं।

[गोनूर वर्तमान में तुर्कमेनिस्तान में एक कांस्य युग की पुरातात्विक बस्ती है।]

क्या आप इस पर विस्तृत चर्चा कर सकते हैं कि भाषा का पहलू क्यों महत्वपूर्ण है?

भाषा का पहलू महत्वपूर्ण है क्योंकि यह इस तथ्य को उजागर करता है कि, हड़प्पा सभ्यता सभी भारतीयों की साझा विरासत है। जैसा कि आनुवंशिकी खोज ने भी दिखाया है, हड़प्पा उत्तर भारतीयों और दक्षिण भारतीयों दोनों के पूर्वज हैं ...

तो ऐसा लगता है कि रिपोर्ट-लेखक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान अपने पेपर की खोज से बहुत दूर चले गए थे, जब वे वैदिक भारत, आर्यन प्रवास आदि के बारे में दावे कर रहे थे?

यह सच हो सकता है, लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। 2017 में द हिंदू में प्रकाशित मेरे एक लेख में, मैंने बताया था कि कैसे 2009 के एक महत्वपूर्ण अध्ययन के बारे में समान तरीक़े से बर्ताव किया गया था। रिपोर्ट में एक अलग बात कही गई थी लेकिन एक प्रमुख अख़बारों ने जो एक सह-लेखक ने कहा उसे छाप दिया जो सीधे तौर पर रिपोर्ट के विपरीत का दावा था! ऐसे अन्य उदाहरण भी रहे हैं।

मीडिया और अन्य लोगों को इससे जो सबक लेने की ज़रूरत है, वह यह है कि विज्ञान पर रिपोर्टिंग को स्वयं प्रकाशित अध्ययनों पर पर्याप्त रूप से आधारित होना चाहिए, न कि अध्ययन को प्रकाशित किए जाने के बाद दूसरों या यहां तक कि कुछ सह-लेखकों द्वारा उस अध्ययन की व्याख्या करना जबकि वह एक समीक्षा की पत्रिका में प्रकाशित हो चुका हो।

प्रकाशित, पीयर-रिव्यू अध्ययन में एक प्रकार का स्थायित्व और मज़बूती है जिसके बारे में प्रेस कॉन्फ़्रेंस में टिप्पणी नहीं की गई है।

[यहां जोसफ़ 17 जुलाई 2017 को प्रकाशित इस रिपोर्ट का जिक्र कर रहे हैं, जिसमें बताया गया है कि कैसे 2009 में एक अध्ययन में पहली बार कहा गया था कि उत्तर भारतीय दक्षिण भारतीयों की तुलना में पश्चिम यूरेशियन के अधिक निकट थे, एक मीडिया रिपोर्ट में इसे गलत और ग़लत तरीक़े से प्रस्तुत किया गया था जिसे कि अख़बार ने कहा कि वह साक्षात्कार पर आधारित है)।

सेल पेपर के लेखकों का कहना है कि अध्ययन के लिए राखीगढ़ी महिला उनकी एकमात्र आनुवंशिक सामग्री थी और उनका डीएनए 11 क्लाइन व्यक्तियों से मेल खाता था। दूसरा, कि शहर-ए-सोख्ता में, जिन तीन व्यक्तियों का विश्लेषण किया गया था, उनमें हड़प्पा के भौतिक संस्कृति से संबंध पाए गए हैं। क्या इसमें से कोई भी कलेन दक्षिण एशिया से बाहर की तरफ़ निकलता दिखाई देता है?

यह [11 व्यक्तियों के साथ मेल खाना] सांस्कृतिक संपर्क से अभिप्राय है। पहले के अध्ययनों ने भी उन्हें सभ्यताओं के बीच प्रवासियों के व्यापार और अन्य लिंक के रूप में माना था। हड़प्पा मूल के शाहर-ए-सोख्ता और राखीगढ़ी दोनों व्यक्तियों का व्यापक रूप से एक ही मिश्रण है: पश्चिम एशियाई और प्रथम भारतीय।

साइंस जर्नल द्वारा किए गए अध्ययन में यूरोप में मध्य एशियाई इलाके/स्टेप्स से बड़े पैमाने पर पलायन का प्रमाण देता है, और दक्षिण एशिया में- जोकि पूरे यूरेशिया का इतना बड़ा क्षेत्र है- जो पूरे क्षेत्र के सैकड़ों प्राचीन डीएनए के नमूनों पर आधारित है।

उस आधार पर, उन्होंने स्टेपी पलायान के मामले को रखा, जिसने पूरे क्षेत्र में भारत-यूरोपीय भाषाओं को फैलाया। एक पड़ोसी सभ्यता के कुछ मुट्ठी भर प्रवासियों की तरफ़ इशारा करता है कि हड़प्पावासी उनके निकट संपर्क में थे और यह सुझाव देते हैं कि यह 'भारत के बाहर' के प्रवास को इंगित करते है जो इंडो-यूरोपीय भाषाओं को आइसलैंड से असम तक फैलाता है, जो सीधे विरोधाभासी है और शोध पत्र इस बारे में ज़िक्र करता है। हमें शोध पत्र जो कहता है, उसके मुताबिक़ जाना चाहिए।

क्या कोई  10,000-12,000 वर्षीय पूर्वजों के दावे के बारे में रिपोर्ट कर सकता है जिससे यह पता चलता है कि  यहां आर्यन का प्रवासन नहीं हुआ था- क्योंकि सिंधु घाटी सभ्यता समाप्त हो गई थी और उसके बाद ही आर्यन दुनिया के इस हिस्से में आए थे। क्या यह कहना सही होगा?

हां बिलकुल ऐसा ही। यह तथ्य कि राखीगढ़ी में कोई स्टेपी वंश नहीं है या हड़प्पा प्रवासियों के अन्य अडीएनए से स्पष्ट है कि आर्य लोग हड़प्पा सभ्यता में मौजूद ही नहीं थे। आज, हम भारतीय स्टेपी वंश को लेकर चलते हैं - जो यह दर्शाता है कि सभ्यता के ग़ायब होने के बाद इसका आगमन हुआ। जो एक स्पष्ट निष्कर्ष। तो, उस अर्थ में राखीगढ़ी डीएनए हमें बताता है कि ’आर्यन्स’ बाद में आए थे।

यह कैसे महत्व रखता है? इतिहास लिखे जाने के दौर के बारे में हम लम्बे दावे क्यों करते हैं? क्या यह एक राजनीतिक परियोजना का हिस्सा है?

दक्षिणपंथी भारतीय सभ्यता के संस्थापक के स्रोत के रूप में आर्य-संस्कृत-वैदिक संस्कृति को विशेषाधिकार प्रदान करना चाहते हैं और बाक़ी सब कुछ को वे मामूली रूप में दिखाना चाहते हैं। ये इस विचार से असहज है कि हड़प्पा सभ्यता, जो अपने समय की अब तक की सबसे बड़ी सभ्यता रही है, और आर्य से पहले की है और हम एक बहु-स्रोत आधारित सभ्यता थे। यह "विविधता में एकता" की अवधारणा पर ज़ोर देती है। एक नेता, एक राष्ट्र, एक संस्कृति, एक धर्म, एक चुनाव ... का विचार ‘सर्वोच्च ’संस्कृति’ के साथ जाता है। आर्य के प्रवासियों के विचार को इसलिए पसंद नहीं किया जाता है, क्योंकि इसका मतलब है कि आप मुसलमानों को प्रवासियों के लिए कलंकित नहीं कर सकते हैं - यह एक जुदा बात है कि भारत में लगभग सभी मुसलमान प्रवासी नहीं हैं।

तो, मूल रूप से दक्षिण एशिया के लोग, विभिन्न प्रकार की नस्लों, क्षेत्रों, संस्कृतियों का मिश्रण है और फिर चाहे उसे जो भी मोड़ दिया जाए, यह बदल नहीं सकता है?

यही नहीं। ख़ास होने के लिए, दक्षिण एशियाई आबादी इतिहास के दौर के पहले के समय में चार प्रमुख सामूहिक प्रागैतिहासिक प्रवासियों का मिश्रण है: अफ़्रीका, पश्चिम एशियाई, पूर्वी एशियाई और मध्य एशियाई स्टेपी (जिसे आर्यन भी कहा जाता है)। और ध्यान रखने वाली एक बहुत महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बारे में कुछ भी ख़ास नहीं है यानी यह सामान्य प्रक्रिया है। दुनिया में सभी बड़े जनसंख्या समूह- यूरोपीय, अमेरिकी, केंद्रीय एशियाई, पूर्वी एशियाई-सभी इतिहास से पहले के दौर में होने वाले कई सामूहिक पलायन का परिणाम हैं। इस मायने में, अन्य बड़े जनसंख्या समूहों की तरह, हम सभी प्रवासी हैं, और हम सभी मिश्रित हैं। हमने आनुवंशिकताओं और वंशों और पलायन के कई अलग-अलग धाराओं से बाहर एक अनोखी सभ्यता का निर्माण किया है जो इस देश में हज़ारों और दसियों हज़ार वर्षों से चली आ रही है। विविधता में एकता कोई एक धब्बा नहीं है; यह हमारे भारतीय होने का एक सटीक वर्णन है।

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