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पेटेंट बनाम जनता

पेटेंट की व्यवस्था कृत्रिम तरीके से अभाव पैदा करने के जरिए काम करती है ताकि कीमतों को अपेक्षाकृत लंबे अरसे तक ऊपर उठाए रखा जा सके। जिससे इस तरह संबंधित खोज करने वाली फर्में काफी मुनाफे कमा सकें।
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कोविड-19 के एक भी टीके को मंजूरी मिलने से भी पहले, 2 अक्टूबर 2020 को ही भारत और दक्षिण अफ्रीका विश्व व्यापार संगठन में इसका प्रस्ताव रख चुके थे कि ऐसी सभी नयी खोजों के मामले में, पेटेंट अधिकारों से अस्थायी छूट दी जानी चाहिए। अगले महीनों में 100 देश इस मांग का समर्थन कर चुके थे। और 5 मई को अमरीका ने भी, जो कि आम तौर पर पेटेंट व्यवस्था का सबसे पक्का हिमायती रहा है, इसके लिए  रजामंदी दे दी कि कोविड के टीकों को अस्थायी रूप से पेटेंट से छूट दे दी जाए। उसने ‘विश्व व्यापार संगठन में टैक्स्ट बेस्ड वार्ताओं’ के लिए सहमति दे दी।

इस तरह के कदम के पीछे मुख्य तर्क, इसके आज अत्यावश्यक होने पर आधारित है कि टीके के उत्पादन का विस्तार किया जाए। पेटेंट की व्यवस्था कृत्रिम तरीके से अभाव पैदा करने के जरिए काम करती है ताकि कीमतों को अपेक्षाकृत लंबे अरसे तक ऊपर उठाए रखा जा सके और इस तरह संबंधित खोज करने वाली फर्में इसके लिए काफी मुनाफे कमा सकें जिससे वे कथित रूप से पेटेंटशुदा उत्पाद के विकास में लगाया गया अपना पैसा वसूल कर सकें। लेकिन, टीके का अभाव ही वह चीज है जो इस समय दुनिया नहीं झेल सकती है। आज, जब कोविड-19 से दुनिया भर में हजारों लोगों की मौत हो रही है, लोगों की जिंदगियां बचाना मुनाफों की चिंता से पहला आता है और इसलिए, टीकों पर से पेटेंट अधिकारों को उठाए जाने की जरूरत है।

लेकिन, क्या इस मामले में हम उद्देश्यों का टकराव देख रहे हैं? क्या इंसानी जिंदगियों को बचाने की अपनी उत्सुकता में हम इस तरह नयी खोज करने वालों को पर्याप्त पारितोषिकों से वंचित कर के, टीकों के विकास के लिए उत्प्रेरण का ही गला नहीं घोंट रहे हैं? इस सवाल का जवाब, एक जोरदार नहीं है। इसकी वजह यह है कि कोविड-रोधी टीके निजी फर्मों द्वारा इस खोज में अपना पैसा लगाने के जरिए तो विकसित हुए ही नहीं हैं। ये टीके तो इस तरह के शोध तथा विकास के काम में सरकारों द्वारा करदाताओं का पैसा लगाए जाने के जरिए ही विकसित हुए हैं। मिसाल के तौर पर एस्ट्राजेनेका जो टीका बना रही है (जिसे हम कोवीशील्ड के नाम से जानते हैं) उसका विकास ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में हुए शोध में हुआ है और इस शोध में ब्रिटिश सरकार ने पैसा लगाया था। इसी प्रकार, मॉडर्ना का टीका अमरीकी सरकार द्वारा लगाए गए अपने देश के करदाताओं के पैसे से विकसित हुआ है और इसी तरह, भारत के कोवैक्सीन का विकास, सरकारी खजाने से मिल रही सहायता से हुआ है। इसलिए, यह दलील ही झूठी और स्वार्थपूर्ण है कि टीका उत्पादन से जुड़ी फर्मों को पेटेंट अधिकार के जरिए पर्याप्त कमाई की इजाजत दिया जाना जरूरी है ताकि वे टीके के विकास पर लगाया गया अपना पैसा वसूल कर सकें। कोविड के टीकों के विकास पर लगा पैसा, सार्वजनिक स्रोतों से आया है।

फिर भी यह पूछा जा सकता है कि मान लिया कि संबंधित टीके की खोज पर सार्वजनिक खजाने से पैसा लगा है, तब भी क्या इस तरह विकसित टीकों का उत्पादन करने करने वाली फर्मों के लिए भी काफी मुनाफे कमाने का मौका नहीं होना चाहिए, ताकि वे इस तरह के उत्पादन की व्यवस्था खड़ी करने में अपने निवेश को वसूल कर सकें? इस सवाल का सीधा सा जवाब यह है कि ये टीका उत्पादक तो पहले ही काफी कमा रहा हैं बल्कि जरूरत से ज्यादा ही कमा रहे हैं, जिससे वे बड़े आराम से टीका उत्पादन की क्षमता स्थापित करने में अपने निवेश की उगाही कर सकते हैं। वास्तव में पेटेंट अधिकार अपने हाथ में रखने पर उनका आग्रह भी इसी का संकेतक है। उन्हें डर है कि अगर उनके हाथ में पेटेंट अधिकार नहीं होगा तो और नयी फर्में टीके के उत्पादन के लिए बढक़र आगे आ जाएंगी और टीके की आपूर्ति बढ़ाने के लिए उत्पादन क्षमता स्थापित कर लेंगी। और अगर, बाद में आने वाली नयी फर्में इसके लिए उत्पादन क्षमता स्थापित कर सकती हैं और अपने निवेश वसूल करने की उम्मीद कर सकती हैं (जिसके बिना वे ऐसी उत्पादन क्षमता स्थापित ही क्यों करेंगी), तो यह मानना ही बेतुका हो जाता है कि पहले से इस उत्पादन में लगी फर्में, अपने निवेश वसूल नहीं कर पाएंगी।

इसलिए, कोविड के टीकों पर पेटेंट अधिकार बनाए रखने की समूची दलील ही, झूठ के पुलिंदेे पर टिकी हुई है। फिर भी इस तरह की दलील अगर पेश की जाती है तो इसका एक ही मकसद हो सकता है कि महामारी के दौरान, लोगों की तकलीफों को भुना रहीं मुठ्ठी भर दवा बहुराष्ट्रीय कंपनियों की घनघोर मुनाफाखोरी की हिफाजत की जाए। यह मुनाफाखोरी भी सीधे-सीधे जनता की कीमत पर नहीं हो रही होगी क्योंकि करीब-करीब अधिकांश देशों में तो यह टीका मुफ्त ही लगाया जा रहा है, हालांकि खेद का विषय है कि भारत में यह टीका भी मुफ्त नहीं है। इस मामले में मुनाफाखोरी सरकारी खजाने की कीमत पर हो रही है क्योंकि सरकारी खजाने से मुफ्त टीके की कीमत भरी जा रही होगी और इस तरह परोक्ष रूप से जनता की कीमत पर यह मुनाफाखोरी हो रही होगी। और यह मुनाफाखोरी विशाल है। मिसाल के तौर पर फाइजर ने 2021 की पहली तिमाही में ही, 3.5 अरब डॉलर का मुनाफा बटोरा है।

किसी को यह लग सकता है कि माना कि संबंधित नयी खोजों में किए गए निवेश को वसूल करने के लिए, निजी मुनाफों को ऊपर उठाए रखने के लिए पेटेंट अधिकारों की जरूरत नहीं है (क्योंकि इन टीकों के विकास पर ज्यादातर पैसा सार्वजनिक खजाने का लगा है), तब भी सरकार के इस खर्चे की वसूली का भी तो कोई तरीका होना चाहिए और पेटेंट इस काम में आ सकते हैं। इस दलील का जवाब, चार तरह से दिया जा सकता है।

पहली बात तो यह है कि पेटेंट जब निजी मुनाफों को ऊपर उठाए रखने का काम करते हैं, उनसे सरकार को कोई राजस्व नहीं मिल रहा होता है और इस तरह इससे व्यापक जनता को कोई क्षतिपूर्ति हासिल नहीं होती है, जिसके दिए करों का पैसा उक्त खोज में लगा होता है। उल्टे पेटेंट अधिकार बने रहने का मतलब यह होता है कि खुद देश की जनता को भी टीके का कहीं ज्यादा दाम देना पड़ रहा होगा। इस तरह के पेटेंट अधिकार से संंबंधित देश की घरेलू आबादी पर भी उतनी ही चोट पड़ रही होगी, जितनी कि दूसरे देशों में रहने वालों पर पड़ रही होगी।

दूसरे, सरकारें जब टीके के विकास के शोध में पैसा लगाती हैं, तो इसीलिए लगाती हैं कि इस तरह के विकास से देश की जनता का फायदा होगा। लेकिन, संबंधित देश की जनता के ये फायदे  अपवर्जनात्मक नहीं होते हैं यानी मिसाल के तौर पर मान लीजिए कि पेटेंट अधिकार हटाए जाने से भारत में किसी टीके का उत्पादन संभव होता है, तो भारत के लोगों को यह लाभ कोई मिसाल के तौर पर अगर अमरीका में उक्त खोज हुई हो, वहां की जनता की कीमत पर नहीं मिल रहा होगा। यहां भारतीय जिंदगियां बचाने और अमरीकी जिंदगियां बचाने में, कोई टकराव नहीं है।

तीसरे, इसके विपरीत उनके हितों में इस माने में परस्पर-पूरकता ही रहती है कि अमरीकी आबादी तब तक सुरक्षित नहीं हो सकती है, जब तक भारत की आबादी इस वायरस के संक्रमण से सुरक्षित नहीं होती है। इसलिए, ऐसा टीका बनाने के लिए जिसका दूसरे देशों में भी मुक्त रूप से उत्पादन हो सके, एक देश की जनता के टैक्सों से आया पैसा लगाना, वहां की जनता पर किसी तरह से अतिरिक्त बोझ डाले जाने को नहीं दिखाता है।

चौथे, यह ऐसा नुक्ता है जिसे खुद उन्नत देशों के लोग साफ तौर पर समझते हैं। वास्तव में, एक सर्वेक्षण के अनुसार, अमरीका में 69 फीसद लोगों की यह राय थी कि कोविड के टीकों पर कोई पेटेंट अधिकार नहीं होना चाहिए, जबकि 27 फीसद ही इन टीकों पर पेटेंट अधिकार के पक्ष में थे।

जनता के इसी मूड ने अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को कोविड के टीकों के लिए पेटेंट अधिकारों से अस्थायी छूट दिलाने के लिए तैयार किया होगा। बेशक, यह उनका चुनावी वादा भी था। इसके अलावा अमरीका का वामपंथ, जिसके समर्थन का बाइडेन को सहारा है, हमेशा से ही इसके लिए जोर लगाता आ रहा था। फिर भी आम जनता का मूड भी इस फैसले के पीछे एक कारक रहा होगा।

फिर भी पेटेंट अधिकारों से इस तरह की छूट का कड़ा विरोध भी हो रहा है और यह विरोध सिर्फ दवा बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा नहीं किया जा रहा है बल्कि उन्नत पूंजीवादी देशों के बीच से भी आ रहा है। जर्मनी इसका खासतौर पर कड़ा विरोध करता आया है और यही यूरोपीय यूनियन के अन्य देशों का रुख है। इस विरोध के चलते, इस तरह की छूट निकट भविष्य में मिल पाने के आसार तो कम ही दिखाई देते हैं। कुछ संशयवादियों का तो यह भी कहना है कि इन टीकों के लिए पेटेंट से अस्थायी छूट दिए जाने के प्रस्ताव के लिए बाइडेन का समर्थन भी, एक सोचा-समझा पैंतरा है जो अच्छी तरह से यह जानने के बाद ही चला है कि उसके समर्थन से, कोई वास्तविक फर्क पड़ने ही नहीं वाला है। इस तरह की छूट पर विश्व व्यापार संगठन में वार्ताएं लंबी चलने वाली हैं और इस तरह के निर्णय के रास्ते में अनगिनत बाधाएं डाली जाने वाली हैं।

बहरहाल, जहां कोविड के टीके पर पेटेंट से अस्थायी छूट के लिए भी अमरीका के समर्थन का स्वागत किया जाना चाहिए ( वास्तव में प्रमुख रोगों के लिए विकसित दवाओं पर तो किसी का पेटेंट होना ही नहीं चाहिए), वहीं हम इस संबंध में बहुत आशावान नहीं हो सकते हैं कि इससे दुनिया भर में, जिसमें भारत भी शामिल है, कोरोना वायरस की बीमारी की दूसरी या तीसरी लहर पर अंकुश लगाने में बहुत ज्यादा मदद मिलने जा रही है। इस बीच एक और विकल्प का सहारा लिया जाना चाहिए और यह विकल्प है अनिवार्य लाइसेंसिंग का। ‘राष्ट्रीय इमरजेंसी’ के हालात में यह कदम उठाए जाने की इजाजत तो विश्व व्यापार संगठन के मौजूदा नियम भी देते हैं। इससे तो कोई इंकार कर ही कैसे सकता है कि भारत के मौजूदा हालात को ‘राष्ट्रीय इमरजेंसी’ ही कहा जाएगा। खुद अमरीका के लिए भी, जो आम तौर पर अनिवार्य लाइसेंसिंग का डटकर विरोध करता है, भारत में कोविड टीके के उत्पादन की अनिवार्य लाइसेंसिंग का विरोध करना मुश्किल होगा क्योंकि वह तो खुद ही टीकों के पेटेंट से अस्थायी रूप से छूट दिए जाने का समर्थन कर चुका है।

लेकिन, विचित्र तरीके से भारत सरकार अनिवार्य लाइसेंसिंग के उपाय का विरोध ही कर रही है और इसके बजाए ‘कूटनीतिक रास्तों’ का ही सहारा ले रही है ताकि अनिच्छुक विकसित देशों को पेटेंट से छूट के पक्ष में मनाया जा सके। ऐसा लगता है कि सरकार को इस बात की परवाह ही नहीं है कि टीकों पर पेटेंट से छूट देने पर अगर किसी तरह का समझौता भी हो जाता है, तब भी इसमें महीनों लग जाएंगे और तब तक देश में मौतों का आंकड़ा दस लाख तक भी पहुंच सकता है। लेकिन, मोदी सरकार की अमानवीयता की तो कोई सीमा ही नहीं है।

दूसरे देशों में विकसित टीकों के देश में उत्पादन के लिए अनिवार्य लाइसेंस जारी करना तो दूर रहा, मोदी सरकार ने तो उस कोवैक्सिन तक के लिए अनिवार्य का लाइसेंस जारी नहीं किया है, जिसे खुद हमारे देश में विकसित किया गया है और वह भी खुद सरकार की फंडिंग के सहारे। इसके बजाए इस सरकार ने तो भारत बायोटेक को ही उक्त टीके का इजारेदाराना उत्पादक बने रहने दिया है और इस निजी कंपनी को सार्वजनिक खजाने से मदद भी दे रही है (1500 करोड़ रु), जिससे वह अपनी उत्पादन क्षमता का विस्तार कर सके, ताकि उसकी इजारेदाराना हैसियत सुरक्षित रहे! (उसने इसी प्रकार, 3,000 करोड़ रु अपनी क्षमता का विस्तार करने के लिए सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया को दिए हैं और कोवीशील्ड के उत्पादक के रूप में उसकी इजारेदाराना हैसियत को सुरक्षित रखा है!) इसे पूरी तरह से अभूतपूर्व परिघटना ही माना जाएगा कि एक ऐसी सरकार भी है जो इजारेदाराना हितों के प्रति इतनी चिंतातुर है कि उनके लिए एक सदी से ज्यादा के बदतरीन स्वास्थ्य संकट का सामना कर रही अपने देश की जनता की भी अनदेखी करने के लिए तैयार है।

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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