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बाइडेन की विदेश नीति में आएगा बड़ा बदलाव, जल्द एनएसए बनने वाले सुल्लिवेन ने किया इशारा
ईरान और चीन के प्रति अमेरिकी नीतियों में बड़े बदलाव की संभावना है, वहीं रूस के साथ सीमित चयनित संपर्क के विकल्प पर ज़ोर है।
एम. के. भद्रकुमार
06 Jan 2021
बाइडेन

जल्द अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुल्लिवेन ने अपने पहले मीडिया इंटरव्यू में बाइडेन प्रशासन के दौर में रूस, चीन और ईरान को लेकर विदेश नीति की दिशा की झलक पेश की है। चीन और ईरान के प्रति अमेरिकी नीतियों में बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है, वहीं रूस के साथ सीमित चयनित संपर्क को विकल्प के तौर पर रखा जा रहा है। 

पहले हम रूस की बात करते हैं। सुल्लिवेन ने कहा कि पिछले साल अमेरिकी सरकारी तंत्र, संवेदनशील इंफ्रास्ट्रक्चर और निजी क्षेत्र के संस्थानों पर हुए बड़े स्तर के साइबर हमले के लिए रूस के जिम्मेदार होने की बहुत संभावना है। इन हमलों की जानकारी हाल में सामने आई है। वह "अमेरिकी कार्रवाई को प्रचारित" करना नहीं चाहते थे, लेकिन उन्होंने इशारा किया कि बाइडेन रूस को "बड़ी कीमत" चुकाने के लिए मजबूर करेंगे।

हमले की मंशा, इसके परिणामों की व्यापकता और संभावित नतीजों के विश्लेषण के आधार पर बाइडेन "जवाबी प्रतिक्रिया के लिए वक़्त और जगह अपने हिसाब से तय" करेंगे। प्राथमिक तौर पर ऐसा लगता है कि यह हमला "जासूसी के त्वरित मौकों" से कहीं आगे की कार्रवाई थी। बाइडेन ने अपने साथियों से पहले दिन से कहा है कि साइबर सुरक्षा "उनके प्रशासन की एक शीर्ष राष्ट्रीय सुरक्षा प्राथमिकता होगी।"

हालांकि सुल्लिवेन ने शीत युद्ध का जिक्र करते हुए कहा कि उस वक़्त जब दोनों देशों ने एक दूसरे से लड़ने के लिए हजारों परमाणु बम इकट्ठे कर लिए थे और एक छोटी सी चिंगारी पर ही अमेरिका-रूस एक-दूसरे को बर्बाद करने पर उतारू थे, तब भी अमेरिका और रूस के बीच "हथियार नियंत्रण और परमाणु अप्रसार कार्यक्रम" समेत कई मुद्दों पर सहयोग हुआ करता था।

इसलिए इस तनाव भरे दौर में भी अमेरिका और रूस अपने राष्ट्रीय हितों के पक्ष में हथियार नियंत्रण और रणनीतिक स्थिरता स्थापित करने वाले एजेंडे को आगे बढ़ा सकते हैं। सुल्लिवेन ने कहा कि बाइडेन ने उनसे 20 जनवरी को उद्घाटन समारोह के तुरंत बाद ही START समझौते के नवीकरण पर काम करने के लिए कहा है। उन्होंने माना कि अमेरिका को अपने भले के लिए ही START समझौते की तरफ दोबारा रुख करना होगा। 

सुल्लिवेन ने रूस के साथ इस सीमित व्यवहार को दूसरे मुद्दों (जैसे सीरिया, यूक्रेन विवाद आदि) तक विस्तार नहीं दिया। ना ही उन्होंने साझा चुनौतियों से निपटने की जरूरत पर जोर दिया। लेकिन सुल्लिवेन ने रूसी आक्रामकता के खिलाफ़ कड़े शब्दों का उपयोग नहीं किया। ना ही उन्होंने रूस को "संशोधनवादी शक्ति (रिवीज़निस्ट पॉवर)" कहकर बुलाया। उन्होंने रूस की नीतियों पर कोई आलोचनात्मक टिप्पणी की। 

पिछले हफ़्ते रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर लेनिन ने आश्चर्यजनक तौर पर बाइडेन को क्रिसमस और नए साल की शुभकामनाएं दीं, जहां उन्होंने कोरोना महामारी समेत दुनिया के सामने आ रही नई चुनौतियों के मद्देनज़र "वृहद अंतरराष्ट्रीय सहयोग की अहमियत पर जोर दिया।"

पुतिन ने आशा जताई कि "समता की भावना और एक-दूसरे के राष्ट्रीय हितों की समझ पर आधारित संबंधों को बनाकर रूस और अमेरिका क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर स्थिरता और सुरक्षा के क्षेत्र में काफ़ी योगदान दे सकते हैं।"

चीन

जहां तक चीन की बात है, तो सुल्लिवेन ने संकेत दिया कि बाइडेन की नीतियां ट्रंप प्रशासन से काफ़ी अलग होने वाली हैं। उन्होंने अपने साझेदारों और मित्रों से "लड़ाई मोल" लेकर खुद ही चीन से टक्कर लेने की ट्रंप की नीतियों की आलोचना की। जबकि बाइडेन, चीन के व्यापारिक गड़बड़झाले, जिसमें माल की डंपिंग, राज्य प्रायोजित उद्यम कंपनियों के लिए गैरकानूनी सब्सिडी, जबरदस्ती करवाया गया श्रम और चीन द्वारा की गई ऐसी पर्यावरणीय क्रियाएं हैं, जिनसे अमेरिकी कामगारों, किसानों और उद्यमियों को नुकसान पहुंचा है, शामिल हैं, इन मुद्दों पर अमेरिका अपने सहयोगियों और मित्रों से विमर्श कर साझा कार्रवाई के बारे में विचार करेगा।

सुल्लिवेन ने विश्वास जताया कि बाइडेन के कांग्रेस में सांसदों से गहरे रिश्ते चीन संबंधी नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए काम आएंगे। उन्होंने कहा, "वह चीन के बारे में अपना मत जानते हैं और वह ऐसी रणनीति आगे बढ़ाने वाले हैं, जो राजनीति पर आधारित नहीं होगी, ना ही उस पर घरेलू चुनावक्षेत्रों का दबाव काम करेगा, बल्कि वह रणनीति अमेरिका राष्ट्रीय हितों पर आधारित होगी।।"

सुल्लिवेन ने इसे "स्पष्ट दृष्टि वाली रणनीति" करार दिया। यह रणनीति, चीन को गंभीर प्रतिस्पर्धी के तौर पर मान्यता देगी। नीति यह भी मानेगी कि चीन एक ऐसा प्रतिस्पर्धी है, जिसके काम करने के तरीकों से अमेरिकी व्यापार समेत दूसरे हितों को नुकसान पहुंचा है।" लेकिन "यह रणनीति इस चीज को भी मानेगी कि अमेरिका और चीन के लिए जब साथ में काम करना हित में होगा, तब वह साथ भी आएंगे।"

अगर हम सुल्लिवेन के शब्दों में कहें, "हमारी शक्ति के स्रोत हमारे देश में ही मौजूद हैं, जिनके ज़रिए हम तकनीक, अर्थव्यवस्था और नवोन्मेष के क्षेत्र में चीन से ज़्यादा बेहतर ढंग से प्रतिस्पर्धा कर पाएंगे, ज्यादा प्रभावी ढंग से हम अपने गठबंधन में निवेश कर पाएंगे, ताकि हम अपनी बढ़त को विकसित कर पाएं।"

इसके अलावा, अमेरिका, अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में भी सक्रिय रहेगा। ताकि चीन के बजाए, "अमेरिका और उसके साथी देश परमाणु अप्रसार से लेकर अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दों पर अहम फ़ैसले ले पाएं।" सुल्लिवेन ने कहा कि, उनके देश के सामने मौजूद चुनौतियों, देश के हितों और इस प्रतिस्पर्धा में कौन सी चीजें अमेरिका की ताकत साबित होंगी, ताकि वह बेहतर ढंग से प्रतिस्पर्धा का मुकाबला कर सके, बाइडेन की रणनीति इन्हीं तथ्यों पर निर्भर करेगी। 

यहां सुल्लिवेन ने जो नहीं कहा, उसकी भी काफ़ी अहमियत है। सुल्लिवेन ने एक भी बार ट्रंप की हिंद-प्रशांत नीति या क्वाड का जिक्र नहीं किया। उन्होंने चीन पर किसी भी तरह की आलोचनात्मक टिप्पणी नहीं की और ना ही ताइवान, हांगकांग या तिब्बत जैसे किसी भी विवादित मुद्दे का जिक्र किया।

सुल्लिवेन द्वारा चीन को गंभीतर रणनीतिक प्रतिस्पर्धी के तौर पर पहचानना, ट्रंप प्रशासन द्वारा चीन को एक विरोधी और समझौता ना किए जा सकने वाले शत्रु और आक्रामक देश की तरह मानने से अलग है। बल्कि सुल्लिवेन ने चीन से मतभेदों के बावजूद व्यवहार की बात कही। 

ईरान

जब ईरान पर बात आई, तो सुल्लिवेन ने बिना लाग लपेट के कहा कि ट्रंप द्वारा "अधिकतम दबाव" की रणनीति विफल रही है। क्योंकि आज ईरान परमाणु शक्ति बनने के सबसे ज़्यादा करीब है और उसकी "नीतियां जारी हैं, उसे लेकर चिंताएं बरकरार" हैं। साफ़ है कि ट्रंप का यह वायदा कि अमेरिका बेहतर परमाणु समझौते को बाहर निकालेगा और ईरान के खराब व्यवहार को रोकेगा, उसे हासलि करने में अमेरिका नाकाम रहा है। जनरल सुलेमानी की हत्या ने दिखाया है कि एक ऐसी रणनीति, जो अमेरिकी शक्ति के एक ही तत्व पर बहुत ज़्यादा केंद्रित है, जिसमें कूटनीति को पूरी तरह अलग रख दिया गया हो, उससे अमेरिकी रणनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने में मदद नहीं मिलेगी। 

सुल्लिवेन ने बाइडेन की बात को दोहराते हुए कहा कि अगर ईरान 2015 के परमाणु समझौते पर वापस आता है, मतलब अपने परमाणु भंडार में कमी करता है, अपनी कुछ विवादित चीजों को वापस लेता है, तो अमेरिका भी JCPOA पर लौट आएगा। सुल्लिवेन के मुताबिक़ यही चीज "आने वाली बातचीत का आधार" बनेगी:

आनेवाली बातचीत में ईरान की बैलिस्टिक मिसाइल का मुद्दा मेज पर होगा। यह बातचीत P5+1 से आगे जा सकती है और इसमें क्षेत्रीय देशों को भी शामिल किया जा सकता है। 

उस "व्यापक बातचीत" में हम अंतत: ईरान की "बैलिस्टिक मिसाइल तकनीकी" पर लगाम लगा सकते हैं। बाइडेन प्रशासन कूटनीति के ज़रिए परमाणु मुद्दे और कई क्षेत्रीय मुद्दों को इसी तरीके से हल करने की कोशिश करेगा। 

JCPOA पर बातचीत के लिए ज़मीन तैयार करने में सुल्लिवेन ने अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने कहा कि उस समझौते का मुख्य तर्क यह था कि समझौता संकीर्ण तौर पर ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर केंद्रित था। वहीं अमेरिका ने प्रतिबंध लगाने, खुफ़िया क्षमता, भयादोहन क्षमता की सारी ताकतें अपने पास रखने में वापसी पाई थी, ताकि ईरान को दूसरे मुद्दे पर पीछे ढकेला जा सके। 

सुल्लिवेन के मुताबिक़, उस वक़्त अमेरिका ने ऐसा अंदाजा नहीं लगाया था कि समझौते के बाद दूसरे मुद्दों पर ईरान का व्यवहार बदल जाएगा। लेकिन अमेरिका ने सोचा था कि अगर ईरान के परमाणु कार्यक्रम को सीमित कर दिया जाता है, तो दूसरे कुछ मुद्दों पर उसके ऊपर नकेल कसी जा सकती है। सुल्लिवेन ने खेद जताया कि अमेरिका "भयादोहन के साथ प्रबंधित कर स्पष्ट दृष्टि वाली कूटनीति" को अंजाम नहीं दे पाया। आखिर यही कूटनीति JCPOA का मुख्य हासिल था। 

इतना कहने के बाद उन्होंने कहा, "हमारी उम्मीदें कभी परमाणु समझौते में बुनियादी तौर पर शामिल नहीं थीं। इसलिए हम हर अलग मुद्दे को अलग तरह से देखते। हम यह नहीं मानते कि किसी एक खास मुद्दे पर प्रगति का मतलब दूसरे मुद्दे पर भी प्रगति होगी।"

इतना निश्चित है कि "अधिकतम दबाव" की रणनीति के खात्मे और अमेरिका-ईरान के आपसी संपर्क के विकल्प के दोबारा उभरने से सऊदी अरब, इज़रायल और यूएई खुश नहीं रहेंगे। बाइडेन को सऊदी अरब और यूएई को आने वाली प्रक्रिया में शामिल करने से कोई ऐतराज नहीं है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू यह है कि ईरान की मिसाइल क्षमता इन दोनों देशों और इज़रायल द्वारा जमा किए गए भारी हथियारों के खिलाफ़ भयादोहन का काम करती है।

इसलिए ईरान एकपक्षीय तौर पर अपनी भयादोहन की क्षमताओं में कमी के लिए तैयार नहीं होगा। इस बात की भी कोई संभावना नज़र नहीं आती कि इज़रायल निशस्त्रीकरण के लिए तैयार होगा या सऊदी अरब और यूएई बड़े स्तर पर खरीदे गए अपने हथियारों में कटौती को मानेंगे। फिर यह बात भी है कि खुद पश्चिमी देश भी बेहद मुनाफ़ेदार पश्चिमी एशिया के हथियार बाज़ारों का खात्मा करना नहीं चाहेंगे।

सुल्लिवेन की टिप्पणियों पर ईरान ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा, "जहां तक ईरान की रक्षा क्षमताओं की बात है, तो कभी इस पर बातचीत में विमर्श नहीं किया गया और यह कभी किया भी नहीं जाएगा।" जाहिर है अमेरिका को ईरान को बदले में कुछ प्रोत्साहन देना होगा। जैसा JCPOA में उल्लेखित है, अमेरिका प्रतिबंधों को वापस लिया जाना इस दिशा में अच्छा कदम होगा।

लेकिन यहां यह भी अहम है कि सुल्लिवेन ने JCPOA में दोबारा बातचीत की मांग नहीं की है। सुल्लिवेन ने "आगे की बातचीत" का जिक्र किया है। अब बातचीत शुरू करने में एक आपात जरूरत महसूस हो सकती है। आज ईरान का समृद्ध यूरेनियम भंडार JCPOA द्वारा तय की गई सीमा से कहीं ज़्यादा हो चुका है।

ईरान ने कल घोषणा करते हुए कहा कि उसने फोरदो भूमिगत परमाणु केंद्र में गैस इंजेक्शन की "प्री-प्रोसिंग" के स्तर पर काम करना शुरू कर दिया है और "अगले कुछ घंटों में" पहला UF6 समृद्ध यूरेनियम उत्पादित हो जाएगा। 

जैक सुल्लिवेन के CNN के साथ इंटरव्यू की ट्रांसक्रिप्ट यहाँ मौजूद है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Preview Signals Biden’s Foreign Policy Shifts

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