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प्रिया रमानी जजमेंट #MeToo आंदोलन को सही ठहराता है!

प्रिया रमानी और उनकी क़ाबिल क़ानूनी टीम ने सभी कामकाजी महिलाओं के हक़ में एक बहुत बड़ा काम किया है।
प्रिया रमानी
प्रिया रमानी फ़ोटो: साभार: द प्रिंट

इंदिरा जयसिंह लिखती हैं कि एमजे अकबर मानहानि मामले में प्रिया रमानी को बरी किये जाने का ऐतिहासिक फ़ैसला सही मायने में #MeToo आंदोलन की पहली वास्तविक कामयाबी है। रमानी और उनकी क़ानूनी टीम ने भारत की सभी कामकाजी महिलाओं के लिए शानदार काम किया है।

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रूपन देओल बजाज से लेकर प्रिया रमानी तक का क़ानूनी सफ़र बहुत लम्बा रहा है। दो महिलायें, दोनों के मामले में 16 सालों का फ़ासला,दोनों मामलों की अलग-अलग रणनीतियां,लेकिन दोनों के मिशन एक-यानी जब उत्पीड़न की बात आती हो,तो सत्ता पर पकड़ बनाये रखने वालों को उसकी हरक़त के लिए ज़िम्मेदार ठहराना। रूपन देओल बजाज को मीडिया ने एक ऐसी नाकारात्म छवि के साथ पेश किया था,जैसे कि उन्होंने एक ‘मामूली’ मुद्दे को उस स्वर्गीय केपीएस गिल के ख़िलाफ़ तूल दे दिया हो,जिन्हें उस समय एक राष्ट्रीय नायक माना जाता था,केपीएस गिल ने उस समय पंजाब में आतंकवाद को ख़त्म कर दिया था,मगर इस बात पर कभी ग़ौर नहीं किया गया कि ऐसा उन्होंने ग़ैर-मामूली क़त्लेआम के ज़रिये किया था।

रूपन देओल बजाज ने शिकायत की थी कि गिल की तरफ़ से आयोजित की गयी पार्टी में गिल ने उनका यौन उत्पीड़न किया था। उस पार्टी में बहुत सारे आईपीएस और आईएएस अफ़सर भी मौजूद थे।

बजाज अपनी कुर्सी पर बैठने ही वाली थी कि उन्हें लगा कि कोई उनके निचले हिस्से को हाथ लगा रहा है। उन्होंने उस शख़्स से अपनी कुर्सी को दूर ले जाते हुए अपना विरोध जताया था। लेकिन,उस शख़्स ने उस कुर्सी को फिर से अपनी तरफ़ खींच लिया था,अब बजाज के पास गिल की अश्लील हरक़त का विरोध करने के अलावे कोई चारा नहीं बचा था। बजाज ने गिल के ख़िलाफ़ आपराधिक मामला दर्ज करने का फ़ैसला किया। उस समय ऐसा करना बेहद साहस की बात थी। इस तरह के मामलों पर क़ानूनी अदालत में किसी आपराधिक कार्यवाही से गुज़रना आसान काम नहीं था।

स्वर्गीय केपीएस गिल और रूपन देओल बजाज: फ़ोटो: साभार: द वायर

लम्बे समय तक सुप्रीम कोर्ट में एफ़आईआर और मुकदमे को ख़त्म किये जाने और कई चुनौतियों से गुज़रने के बाद बजाज ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 354 (महिला को अपमानित करने के इरादे से हमला करना या महिला को अपमानित करने का इरादा) और 509 (शब्द, इशारे या किसी महिला को अपमान करने के इरादे से की गयी हरक़त) के तहत उसके ख़िलाफ़ अपराध साबित करने में कामयाबी हासिल की थी।

पंजाब के तत्कालीन गवर्नर,स्वर्गीय सिद्धार्थ शंकर रे सहित कई प्रतिष्ठित व्यक्ति,गिल के पक्ष में मजिस्ट्रेट के सामने पेश हुए थे,उन्होंने कहा था कि उन्हें उनके "अच्छे चरित्र" पर कोई संदेह नहीं है।

मुझे उस लंबे क़द के व्यक्ति-सिद्धार्थ शंकर रे से ज़िरह करने का सौभाग्य मिला था,जो वर्षों से क़ानूनी पेशे की परिकल्पना पर हावी थे और उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री-इंदिरा गांधी के क़ायम किये गये 1975 की आपातकाल की रणनीति तैयार करने का श्रेय दिया जाता है।

मुझे इस बात को कहने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि मैं उस मजिस्ट्रेट के साहस से बेहद प्रभावित हुई थी,जिन्होंने गिल को आईपीसी की धारा 354 के तहत किसी महिला के सम्मान को ठेस पहुंचाने के लिए दोषी ठहराया था। उस समय,कार्यस्थल अधिनियम में यौन उत्पीड़न का कोई प्रावधान नहीं था, किसी विशाखा निर्णय का कोई सहारा नहीं था,कोई #MeToo आंदोलन नहीं था या फिर ऐसा और कुछ भी नहीं था।

यह आंदोलन वास्तव में उस शख़्स की नाकारात्म छवि पेश किये जाने के ख़िलाफ़ एक आंदोलन था,जिस किसी ने भी यौन उत्पीड़न की शिकायत करने की हिम्मत की थी। मैं वरिष्ठ वकील-केटीएस तुलसी को कभी नहीं भूल सकती,जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट में गिल की ओर से बहस करते हुए कहा था कि गिल के ख़िलाफ़ एफ़आईआर को तुच्छता के क़ानूनी सिद्धांत अर्थात्,होने वाले बेहद मामूली नुकसान के आधार पर उचित व्यक्ति की शिकायत पर ध्यान नहीं दिये जाने के सिद्धांत की बुनियाद पर रद्द किया जाना चाहिए। आख़िर में उन्होंने कहा था कि बजाज के शरीर के निचले हिस्से पर बस एक दोस्ताना थपकी ही तो दी गयी थी। सुप्रीम कोर्ट के उस फ़ैसले ने उस बात को दर्ज किया और उस तर्क को खारिज कर दिया गया था।

जिस समय रमानी ने अकबर के ख़िलाफ़ बोलने का फ़ैसला किया था,वह बदला हुआ वक़्त था। हार्वे वेनस्टेन पर पहले से ही कई महिलाओं की तरफ़ से यौन शोषण किये जाने का आरोप लगाया जा चुका था,और इसके बाद दुनिया ने #MeToo आंदोलन को पैदा होते हुए देखा। कार्यस्थल पर महिलाओं को यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए क़ानून की नाकामी के फ़ासले को पाटने की ज़रूरत ने ही इस आंदोलन को जन्म दिया था।

हालांकि,इस बार रमानी ख़ुद अदालत नहीं गयी थीं,बल्कि कोर्ट का रुख़ अकबर ने किया था,जिनका आरोप था कि रमानी ने उन्हें बदनाम किया है। प्रिया ने 8 अक्टूबर,2018 को अपने ट्विटर अकाउंट पर लिखा था, “मैंने एमजे अकबर की अपनी इस कहानी के साथ इस लेख की शुरुआत की है। उनका नाम कभी नहीं लिया,क्योंकि उसने कुछ ‘किया’ ही नहीं। इस दरिंदे को लेकर बहुत सी महिलाओं के पास इस कहानी से बदतर कहानियां हैं,शायद वे साझा करेंगी…”।

रमानी ने अदालत में कहा कि जब वह अपने पहले साक्षात्कार के लिए अकबर से मिलने के लिए होटल की लॉबी में पहुंची थी, तो उन्हें अपने कमरे में आने के लिए कहा गया था। इस बात की आशंका उन्हें रत्ती भर नहीं थी। उन्होंने बताया था कि बेडरूम छोटा था और बंद था,बिस्तर को रात के हिसाब से मोड़ दिया गया था और एक पेशेवर साक्षात्कार के लिए इतनी अंतरंग दूरी के बीच वह असहज महसूस कर रही थीं।

प्रिया रमानी और एमजे अकबर।

अकबर ने उन्हें एक मादक पेय की पेशकश की थी,जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया था,और फिर वोदका को हलक से उतारते हुए अकबर ने रमानी से निजी जीवन को लेकर ग़ैर-मुनासिब सवाल पूछने शुरू कर दिये थे, उनके पेशेवर कौशल पर कोई चर्चा नहीं तक की थी। फिर,वह बिस्तर के बगल के सोफ़े पर चले गये थे और रमानी को अपने बगल में बैठने के लिए कहा था, इस पर रमानी उठीं और बाहर चली गयी थीं। उन्हें भी बताया जा सकता है कि उनके साथ जो कुछ हुआ था,वह सब कुछ भी इतना मामूली था कि उसे क़ानून को नज़रअंदाज करना चाहिए था।

#MeToo आंदोलन को देखते हुए रमानी ने आईपीसी में जोड़ी गयी उस नयी धारा 354A के तहत अकबर के ख़िलाफ़ आपराधिक शिकायत नहीं की थी, जो कि यौन उत्पीड़न को एक दंडनीय अपराध बनाता है। बल्कि,अकबर ने ही रमानी के ख़िलाफ़ मानहानि को लेकर आपराधिक शिकायत दर्ज करने की आत्मघाती ग़लती की थी। आज हमारे पास राउज़ एवेन्यू जिला न्यायालय, नई दिल्ली के अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट,रवींद्र कुमार पांडेय का एक ऐसा फ़ैसला है,जिसने रमानी को मानहानि से बरी कर दिया है।

इस फ़ैसले और रमानी और उनके गवाहों के बयानों को पढ़ना एक कटघरे में सच बोलने की ताक़त को दिखाता है। प्रिया ने अपने साथ जो कुछ हुआ था,उसे बढ़-चढ़कर बताने की कोई कोशिश नहीं की,और यही उसकी कामयाबी थी। पिछले दशक के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रमों से अवगत एक संवेदनशील न्यायाधीश का निष्कर्ष यही था कि रमानी मानहानि का दोषी नहीं हैं।

रमानी के वकील ने सबसे पहले आईपीसी की धारा 499 के उस अपवाद वाले तथ्य पर ध्यान दिलाया,जिसमें कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति के विषय में ऐसा कुछ सही करना या उसे सार्वजनिक करना मानहानि नहीं है,अगर वह लोककल्याण के लिए ज़रूरी है।हक़ीक़त तो यह है कि एक वरिष्ठ और प्रसिद्ध पत्रकार और एनडीए सरकार में मंत्री अकबर ने स्पष्ट रूप से इसे एक ऐसा मुद्दा बना दिया था,जिसके ख़िलाफ़ बोलना जनता के हित में था। यहां यह बताना ज़रूरी है कि इसमें सत्ता के उच्च पदों पर आसीन लोग शामिल होते हैं,जो कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न करते हैं।

उन्होंने यह दलील भी दी कि मानहानि एक ऐसा अपराध है,जिससे किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सवाल के घेरे में आने वाले शख़्स  की प्रतिष्ठा ऐसी होती है,जिसकी रक्षा की जानी चाहिए ? इस सवाल का मुनासबि जवाब यह है कि अकबर पर इस तरह के आरोप लगाने वालों में रमानी अकेले नहीं थीं। रमानी के पक्ष में बालने वाली ग़ज़ाला वहाब ने भी उनके हाथों हुए यौन उत्पीड़न की बात कही थी।

91-पृष्ठ का यह फ़ैसला तथ्यों का एक रिकॉर्ड है,जिसमें महज़ छह पृष्ठ इस दलील को समर्पित हैं। आख़िरकार, क़ानून को तथ्यों के एक समूह पर लागू होना होता है,और इसलिए,तथ्यों को रिकॉर्ड पर रखा जाना चाहिए, क्योंकि हम वकीलों को ऐसा कहना पसंद है। अब तक इस फ़ैसले का सबसे अहम हिस्सा उस तर्क का न्यायाधीश की तरफ़ से मंज़ूर नहीं किया जाना है कि रमानी ने इन आरोपों को लगाने के लिए 'बहुत लंबा इंतज़ार' किया था था-जो घटना सवाल के घेरे में है,वह 1993 में हुई थी।

रमानी की इस बात को मंज़ूर करते हुए कि उन्होंने 1993 में अपने सहयोगी के सामने उस घटना की  सच्चाई का खुलासा कर दिया था, और कोर्ट में बहाव की गवाही के आधार पर अदालत ने कहा कि  "शिकायतकर्ता कोई प्रश्नातीत प्रतिष्ठा वाला शख़्स नहीं है"। एक बार जैसे ही यह बात कह दी गयी, रमानी के बरी होने का रास्ता साफ़ हो गया।

न्यायाधीश ने आगे कहा,“इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि ज़्यादातर समय यौन उत्पीड़न और यौन शोषण का अपराध को बंद दरवाज़ों के पीछे या निजी तौर पर ही अंजाम दिया जाता है। कभी-कभी,पीड़ित ख़ुद ही यह नहीं समझ पाता कि उनके साथ हो क्या रहा है या उनके साथ जो कुछ भी हो रहा है,वह ग़लत है। समाज में कुछ लोग चाहे जितना सम्मानित हों, इसके बावजूद वे अपने व्यक्तिगत जीवन में महिलाओं के प्रति अत्यधिक क्रूरता दिखा सकते हैं।”

अदालत ने कार्यस्थलों पर होने वाले व्यवस्थित उत्पीड़न को ध्यान में रखा,क्योंकि यौन उत्पीड़न की शिकायत के निवारण को लेकर उस समय कोई कार्यप्रणाली मौजूद नहीं थी। आख़िरकार, यह घटना सुप्रीम कोर्ट की तरफ़ से विशाखा दिशानिर्देश जारी किये जाने और कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 को लागू किये जाने से पहले घटित हुई थी। इस बात को भी ध्यान में रखा जाना ज़रूरी होता है कि अपराध से जुड़ी सामाजिक लांछन के चलते महिलायें यौन-उत्पीड़न की शिकायत नहीं करने का विकल्प चुनती हैं।

अदालत ने कहा -

“वक़्त आ गया है कि हमारा समाज यौन शोषण और यौन उत्पीड़न और पीड़ितों पर इसके असर के निहितार्थ को समझे। समाज को यह समझना चाहिए कि कोई उत्पीड़ित हममें से बाक़ी लोगों की तरह ही होती है। उनके भी परिवार और दोस्त होते हैं। वह समाज में एक सम्मानित व्यक्ति भी हो सकती हैं। यौन शोषण की शिकार महिलायें कई सालों तक उस उत्पीड़न को लेकर एक शब्द भी नहीं बोल पाती हैं,क्योंकि कभी-कभी तो उन्हें पता ही नहीं चलता कि वह उत्पीड़न की शिकार भी हुई है। पीड़िता यह मानकर चल सकती है कि ग़लती उनकी है और पीड़िता सालों या दशकों तक उस शर्मिंदगी के साथ जी सकती हैं। ज़्यादातर महिलायें जो दुर्व्यवहार झेलती हैं, वे इसके बारे में या इसके ख़िलाफ़ जिस वजह से नहीं बोलती हैं,वह वजह है- यौन उत्पीड़न और दुर्व्यवहार से जुड़ी शर्मिंदगी या सामाजिक लांछन। किसी महिला के साथ होने वाल यौन शोषण उसकी गरिमा और उसके आत्मविश्वास को छीन लेता है। यौन उत्पीड़न करने वाले या अपराधी के चरित्र पर किया जाने वाला हमला सही मायने में यौन शोषण पीड़िता की तरफ़ से अपनी आत्मरक्षा में की गयी एक ऐसी प्रतिक्रिया है,जो उसके साथ हुए अपराध से जुड़ी शर्म की वजह से पीड़िता के मानसिक आघात के बाद पैदा होती है। मानहानि की आपराधिक शिकायत की आड़ में ऐसी महिला को यौन-शोषण के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठाने के लिए दंडित नहीं किया जा सकता है,क्योंकि भारतीय संविधान में अनुच्छेद 21 और समानता के अधिकार और क़ानून के समान संरक्षण के तहत भारतीय संविधान में गारंटी के रूप में महिला के जीवन और प्रतिष्ठा का अधिकार की क़ीमत पर किसी की सम्मान के अधिकार की रक्षा नहीं की जा सकती।”

कोर्ट की तरफ़ से उद्धृत यह अंश उस महिला के मनोविज्ञान की गहन समझ को सामने रखता है,जिसका यौन उत्पीड़न हुआ है।उत्पीड़न के समय किसी घटना का खुलासा नहीं किये जाने के कई कारण हो सकते हैं। यह भी हो सकता है कि पीड़िता इसे समझ ही नहीं पाये और इस तरह की हरक़त को सद्भावना या मेहरबानी समझे।

अपनी वकील रिबेका जॉन के साथ प्रिया रमानी।

उत्पीड़न की व्यवस्थागत प्रकृति,घटना के समय यौन उत्पीड़न से निपटने को लेकर किसी कार्यप्रणाली की कमी से पुरुष अपने सार्वजनिक जीवन में समाज के सम्मानजनक होने की आड़ में बंद दरवाज़े के पीछे यौन शिकारी हो सकता हैं, और इस वजह से पीड़िता दशकों तक शर्मिंदगी में जीती रह सकती हैं। आम तौर पर महिला को अपनी आवाज़ उठाने के लिए दंडित किया जाता है,आवाज़ उठाने वाली ऐसी महिलायें पीड़िता के बजाय खलनायिका की तरह पेश की जाती हैं और इन महिलाओं के सम्मान की धज्जियां उड़ा दी जाती है।

यह देखना अभी बाक़ी है कि यह फ़ैसला #MeToo आंदोलन के लिए उम्मीद लेकर आयेगा या नहीं, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि यह फ़ैसला भारत में #MeToo आंदोलन की पहली वास्तविक कामयाबी है,और यह भी कि यह फ़ैसला इस आंदोलन को सही ठहराता है।

(इंदिरा जयसिंह सुप्रीम कोर्ट में एक वरिष्ठ वकील हैं और द लिफ़लेट की सह-संस्थापक हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

Priya Ramani Judgement Vindicates #MeToo Movement

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