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राजनीति का वस्तुकरण : भारत और वेनेज़ुएला में असाधारण विषमता

"वस्तु" से "प्रजा" की भूमिका निभाने के लिए इस परिवर्तन को एक वैकल्पिक राजनीति तलाश करने की आवश्यकता होती है जो उनके सामने वैकल्पिक एजेंडा रखती है।
India and venezuela
Image courtesy: Twitter

पूंजी की अंतर्निहित प्रवृत्तियों में से एक जीवन के हर क्षेत्र का कमोडिटाइज़ (वस्तुकरण) करना है और नवउदारवादी पूंजीवाद के तहत जहां पूंजी की अंतर्निहित प्रवृत्ति को पूरी तरजीह दी जाती है ऐसे में हम पाते हैं कि कमोडिटाइज़ेशन का बोलबाला है। इसका एक उदाहरण है शिक्षा का कमोडिटाइज़ेशन जो देर से हुआ है और अब हम पाते हैं कि कमोडाइज़ेशन राजनीति की दुनिया में दख़ल दे रहा है जो पहले कभी भी नहीं हुआ है।

पिछले कुछ समय से राजनीति का कमोडिटाइज़ेशन हो रहा है लेकिन बड़े पैमाने पर विधायी सदस्यों की ख़रीद हर जगह हो रही है और जिसका ताज़ा उदाहरण कर्नाटक है जिसने इसे एक नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया है। कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि लोग किसका चुनाव करते हैं, अथाह पैसों वाले राजनीतिक दल अंततः सरकार बनाते हैं और निश्चित रूप से जिसे लोग चुनते हैं वे ख़ुद अथाह पैसों वाले राजनीतिक दल से काफ़ी हद तक तय किए जाते हैं।

पारंपरिक मार्क्सवादी ज्ञान यह रहा है कि एक बुर्जुआ राष्ट्र में सरकार का संसदीय रूप हो सकता है क्योंकि राष्ट्र की संस्थाएं जैसे कि सेना और नौकरशाही अपरिवर्तित होती हैं भले ही श्रमिकों के लिए उत्तरदायी सरकार निर्वाचित होती हो। जब एक मज़दूर वर्ग की पार्टी कार्यालय संभालती है और जब तक कि वह अपने कार्यालय का उपयोग बुर्जुआ राष्ट्र को नष्ट करने के लिए नहीं करती है तब तक उसे परिगत सीमाओं के भीतर लाचारी से कार्य करना होगा जो कि पूंजीवादी व्यवस्था की निरंतरता पर अतिक्रमण नहीं करता है।

हालांकि राजनीति का कमोडिटाइज़ेशन यह सुनिश्चित करना चाहता है कि एक श्रमिक वर्ग की पार्टी संसदीय चुनावों के ज़रिये सत्ता में नहीं आ सकती है क्योंकि ऐसा करने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं होगा। इसकी वजह से कॉर्पोरेट-वित्तीय कुलीनतंत्र चुने हुए राजनीतिक दल के माध्यम से शासन करता है जिसमें संसदीय लोकतंत्र प्रभावी नहीं होता है।

दिल्ली स्थिति एनजीओ सेंटर फ़ॉर मीडिया स्टडीज़ के अनुसार हाल ही में संपन्न संसदीय चुनावों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी(बीजेपी) ने लगभग 27,000 करोड़ रुपये या लगभग 50 करोड़ रुपये प्रति चुनाव क्षेत्र में खर्च किए। सभी पार्टियों द्वारा किए गए कुल खर्च का यह 45% था। सभी पार्टियों द्वारा कुल ख़र्च 60,000 करोड़ रुपये तक किया गया। इसका बड़ा हिस्सा कॉरपोरेट क्षेत्र से आया जिसमें बीजेपी को सबसे ज़्यादा मिला। दिल्ली स्थित एक अन्य एनजीओ एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के अनुसार 2017-18 में 20,000 रुपये से ऊपर का कुल चंदा जो कि लगभग 92% है, बीजेपी को मिला।

दो क़ानूनी ख़ामियों ने इस तरह के भारी चुनावी ख़र्चों को संभव बना दिया है। एक तो बांड प्रणाली है जो राजनीतिक दलों को अब स्वतंत्र कर दिया जहां चंदा देने वाले का नाम सार्वजनिक नहीं किया जाता है। ये आश्चर्य करने वाली बात नहीं है कि इस स्कीम को बीजेपी द्वारा शुरू की गई थी। और दूसरा लेखांकन की प्रणाली है जहां पार्टी द्वारा किए गए ख़र्च उम्मीदवार के ख़र्च से अलग है और उम्मीदवार के चुनावी ख़र्च में नहीं जोड़े जाते हैं। इसलिए, पैसे का इस्तेमाल करने वाली कोई राजनीतिक दल चुनाव लड़ने के लिए किसी भी राशि का पूरी तरह से ख़र्च कर सकता है जिसका मूल रूप से मतलब यह है कि यह कॉर्पोरेट है जो अपने प्रत्याशियों के माध्यम से चुनाव लड़ते हैं।

ग़ौरतलब है कि शिक्षा के कमोडिटाइज़ेशन की तरह राजनीति का कमोडिटाइज़ेशन विकसित पूंजीवादी देशों की तुलना में भारत में बहुत ज़्यादा हो गया है और वह भी बहुत कम समय में। नवउदारवादी पूंजीवाद का प्रभाव इसके लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार है। लेकिन इस सामान्य माहौल के भीतर बीजेपी ने पहले की तुलना में कॉर्पोरेट और सत्ता के गठजोड़ को काफी हद तक आगे बढ़ाया है। यदि रफ़ाल सौदा इस गठजोड़ का एक पहलू था, तो केवल बीजेपी को मिलने वाला 92% कॉर्पोरेट चंदा इसका दूसरा पहलू है।

भारत में जो हो रहा है उसके विपरीत वेनेज़ुएला की कहानी कुछ अलग है। वेनेज़ुएला के कुलीन वर्ग के साथ मिलकर अमेरिकी साम्राज्यवाद ह्यूगो शावेज़ के उत्तराधिकारी राष्ट्रपति निकोलस मादुरो की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए उन्मादी प्रयास कर रहा है। शावेज़ ने उस देश में "बोलिवेरियन क्रांति" की अगुवाई की थी।

अमेरिका को सभी विकसीत पूंजीवादी देशों, पूंजीवादी दुनिया के सभी "उदारवादी" अख़बारों और पूरे लेटिन अमेरिकन राइट का समर्थन प्राप्त है जो अन्य मामलों में से एक ब्राज़ील और इस महाद्वीप में अन्य देशों में सफल "संसदीय तख़्तापलट" की वजह से विकसित हुआ है। इसने अपने हर प्रकार के हथियारों का इस्तेमाल किया है।इसने आर्थिक हथियार से लेकर वेनेज़ुएला की बिजली व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने, यहां तक कि एक वास्तविक तख्तापलट तक की कोशिश की जिसमें वेनेज़ुएला के कुलीन वर्ग समर्थित स्वघोषित राष्ट्रपति जुआन गाएदो को सत्ता दिलाने का प्रयास किया गया। और फिर भी ये सभी प्रयास बुरी तरह विफल रहे हैं।

इस सरकार के अधीन लोगों की परेशानी के बारे में हमारे देश सहित देशभर में टेलिविजन पर आई ख़बरों के बावजूद न सिर्फ़ लोग मज़बूती से मादुरो सरकार के समर्थन में खड़े रहे हैं बल्कि वेनेज़ुएला के सशस्त्र बलों ने भी मादुरो सरकार का समर्थन किया है।

कई लैटिन अमेरिकी देशों में सशस्त्र बलों का अक्सर एक स्वरूप होता है जो पारंपरिक मार्क्सवादी सिद्धांत से अलग होता है। लोगों के बीच से भर्ती किए गए उन लोगों का अक्सर राजनीतिकरण किया जाता है। वास्तव में शावेज़ स्वयं सशस्त्र बलों से आए थे और उनसे बहुत समर्थन प्राप्त किया था। वेनेज़ुएला के सशस्त्र बलों ने मादुरो सरकार के लिए अपना समर्थन जारी रखा है।

अमेरिकी प्रशासन ने तख़्तापलट का समर्थन करने के लिए सशस्त्र बलों के अधिकारियों को "ख़रीदने" की पूरी कोशिश की लेकिन वह बुरी तरह विफल रहा जो इस सच्चाई का एक स्पष्ट लक्षण है कि वेनेज़ुएला में राजनीति का कमोडाइज़ेशन नहीं हुआ है। इस प्रकार हमारे सामने स्पष्ट तौर पर विपरीत स्थिति है क्योंकि एक तरफ़ भारत में जहां राजनीति का तेज़ी से कमोडाइज़ेशन हो रहा है और वहीं दूसरी तरफ वेनेज़ुएला है, जहां राजनीति का कमोडाइज़ेशन अमेरिका के साम्राज्यवाद द्वारा किए जा रहे प्रयासों के बावजूद बहुत कम हुआ है।

वेनेज़ुएला की सेना एक क्रांतिकारी लाल सेना नहीं है; वेनेज़ुएला ने समाजवादी क्रांति नहीं की है, एक श्रमिक राष्ट्र की स्थापना करते हुए वेनेज़ुएला की पुरानी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की वीरता की कोई क्लासिक कहानी नहीं है। वास्तव में विश्व को उत्तेजना से भरने वाले क्लासिक क्रांतिकारी परिवर्तनों की तुलना में अभी भी वेनेज़ुएला का बहुत अल्प महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ है। इस अल्प महत्वपूर्ण परिवर्तन के बीच जो सबसे अहम है वह ये कि सत्तासीन व्यक्ति निकोलस मादुरो के पास शावेज़ जैसा करिश्मा नहीं है।

फिर भी वेनेज़ुएला के सशस्त्र बल मादुरो की सरकार साथ खड़े हुए हैं जिन्होंने नवउदारवाद से दूर और एक जन-समर्थक दिशा में आर्थिक नीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव लाया है। इससे केवल यही पता चलता है कि लोग राजनीति की कमोडिटाइज़ेशन की दुनिया में "वस्तु" बन सकते हैं पर जब कोई अवसर ऐसा करने के लिए पनपता है और जब नवउदारवाद से दूर होता है तो वे "प्रजा" की भूमिका में भी ख़ुद को पेश कर सकते हैं। और जब वे इस तरीक़े से ख़ुद को पेश करते हैं तो वे अन्य तत्वों पर भी दबाव डालते हैं, सशस्त्र बलों की तरह जो इन तत्वों को साम्राज्यवादी प्रलोभन को अप्रभावित बनाता है।

राजनीति के कमोडािटाइज़ेशन का मुक़ाबला करने के लिए चुनाव के लिए सरकारी फ़ंडिंग सहित चुनाव सुधारों की आवश्यकता होती है। लेकिन ये सुधार तब तक प्रक्रिया में नहीं आएंगे जब तक कि जनता का दबाव नहीं बनता; और किसी भी प्रक्रिया के लिए एक वैकल्पिक राजनीति की आवश्यकता होती है। "वस्तु" से एक "प्रजा" की भूमिका निभाने के लिए इस परिवर्तन को एक वैकल्पिक राजनीति तलाश करने की आवश्यकता होती है जो उनके सामने वैकल्पिक एजेंडा रखती है।

पूंजी की अंतर्निहित प्रवृत्तियों और श्रमिकों द्वारा सक्रिय हस्तक्षेप के बीच अंतर्द्वंद (डायलेक्ट) को द पोवर्टी ऑफ़ फ़िलॉसफ़ी में मार्क्स ने लिखा था। पूंजी की अंतर्निहित प्रवृत्ति श्रमिकों को तितर बितर करता है, उन्हें विभिन्नपृष्ठभूमि के लोगों को भर्ती किया जाता है और एक-दूसरे को अलग कर दिया जाता है। लेकिन उन्हें एक कारख़ाने की छत के नीचे रखा जाता है, और अपनी मामूली मज़दूरी बढ़ाने के लिए वे "समूह" बनाते हैं जो हालांकि शुरू में व्यक्तिगत स्वार्थों से प्रेरित होते हैं और फिर नए समुदाय में विकसित होते हैं।

इसी तरह राजनीति के कमोडिटाइज़ेशन जो वर्तमान युग में पूंजी की एक अंतर्निहित प्रवृत्ति है उसे ख़त्म किया जा सकता है यदि कामकाजी लोगों को एक नए एजेंडे के लिए एक नए "संगठन" में एक साथ लाया जाए जो उन्हें पेश किए गए नवउदारवाद से अलग है। हालांकि शुरू में वे व्यक्तिगत स्वार्थ के ज़रिये इस तरह के एजेंडे की तरफ़ आ सकते हैं, उनके साथ आने की सच्चाई एक प्रवृत्ति का खुलासा करेगा जो राजनीति के कमोडिटाइज़ेशन का मुक़ाबला करेगा। यह केवल एक वैकल्पिक एजेंडा है जिसके इर्द-गिर्द कामगार लोग एक वैकल्पिक राजनीति को जन्म देते हुए एक साथ आ सकते हैं। राजनीति के कमोडिटाइज़ेशन की ओर बढ़ती प्रवृत्ति को ये वैकल्पिक राजनीति ही नष्ट कर सकती है।

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