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राजनीतिक समाधान से सेना पर होने वाले खर्चें कम किये जा सकते हैं

भारतीय सेना अपनी प्राथमिक भूमिका यानी कि आंतरिक सुरक्षा की बजाए केवल बाहरी सीमाओं पर सेना की तैनाती कर अपनी मानव शक्ति में कमी ला सकती है और सेना पर किये जाने वाले बहुत बड़े खर्चे को बचा सकती है .
इंडियन आर्मी
इमेज कर्टसी - इंडियन एक्सप्रेस

आम चुनावों के इर्द-गिर्द आने के साथ, एक अंतरिम बजट वोट-ऑन-अकाउंट के लिए पेश किया गया है। यदि ऐसा बजट  भी समकालीन भारत में एक चर्चा का विषय है, तो यह इसलिए है क्योंकि नरेंद्र मोदी सरकार देश में सबसे बड़ी विज्ञापनकर्ता है, जो मीडिया घरानों को नियंत्रित करने वाले अपने नज़दीकी (क्रोनियों) के साथ, जनसंपर्क एजेंसियों को खूब पैसे देकर इस  सूखे नींबू से रस निकाल रही  है।

मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान, भारत का रक्षा क्षेत्र दो विरोधाभासी कदमों से प्रभावित हुआ है। एक तरफ तो सरकार सशस्त्र बलों द्वारा नए उपकरणों या हथियारों के अधिग्रहण को टालने या  उसे शिथिल करने के लिए संसाधन की कमी की शिकायत कर रही है। दूसरी तरफ सेना को 6.22 लाख असॉल्ट राइफल, 4.43 लाख कार्बाइन, 6,000 स्नाइपर राइफल और 41,000 लाइट मशीन गन की जरूरत है। सरकार भारत में ए.के.103 असाल्ट राइफलों का उत्पादन करने के लिए रूस के साथ बातचीत कर रही है, लेकिन इस बीच, वह सिग सौएर (SIG Sauer) से 73,000 असॉल्ट राइफलों की खरीद के लिए एक ऑर्डर भी दे रही है।

भारतीय वायु सेना (आईएएफ) के लिए, 126 से कम करके 36 राफेल लड़ाकू जेट पर लाने के लिए सरकार को  धन्यवाद. इस तरह से भारतीय वायु सेना स्क्वाड्रन की ताकत कम होने की स्थिति से संघर्ष कर रहा है। भारतीय नौसेना को पनडुब्बियों की जरूरत है, लेकिन यह सौदा अटका हुआ है क्योंकि मोदी सरकार को इस बारे में तय करना है कि क्या अनिल अंबानी की मालिकाना हक वाली रिलायंस नेवल इंजीनियरिंग लिमिटेड कम्पनी  जो चार अपतटीय गश्ती जहाजों को देने में असमर्थ रही है,  उसे 40,000 करोड़ रुपये की पनडुब्बी सौदे के लिए बोली लगाने के योग्य माना जाए या नहीं .

दूसरी तरफ, सशस्त्र बलों के कर्मियों की लागत सेना के लिए एक बड़ी समस्या बन गई है, क्योंकि इसका 70 प्रतिशत से अधिक बजट वेतन और भत्ते में ही चला जाता है। इसके विपरीत, भारतीय वायुसेना और भारतीय नौसेना कार्य शक्ति पर 34.5 प्रतिशत और 27.5 प्रतिशत खर्च होता हैं।

इस प्रकार, सिर्फ वेतन, भत्ते और पेंशन की लागतों को पूरा करने में कुल रक्षा बजट का 70 प्रतिशत से अधिक पैसा खर्च होता है. इसलिए रक्षा के लिए कम-बजट की शिकायतें समय समय पर होती रहत हैं। आर्मी प्रमुख बिपिन रावत के अनुसार, इसके समाधान का एक साहसिक  प्रयास किया जा रहा है। इसके लिए चार सूत्री योजना के तहत सेना के मौजूदा डिवीजन से एक इंडिपेंडेंट बैटल ग्रुप (IBG) को तैयार करने की परिकल्पना की गई है। एक डिवीजन जिसमें युद्ध लड़ने के आवश्यक सभी घटक (पैदल सेना, कवच, तोपखाने, इंजीनियर, सिग्नल और रसद) आदि शामिल हैं।

अब, मौजूदा संसाधनों को विभाजित कर आईबीजी को स्वतंत्र रूप से संचालित करने के लिए सुसज्जित किया जाएगा। इसके अलावा, सेना मुख्यालय को पुनर्गठित करने, अधिकारियों की कैडर समीक्षा करने और इसे कम करने के लिए कार्य शक्ति संरचनाओं का भी पुनर्मूल्यांकन करने की योजना है।

हालांकि, "पुनसंरचना " और "पुनर्गठन" के जरीए 50,000 से 100,000 कर्मियों के कम करने की योजना है, जबकि अभी तक, सात साल तक की छोटी सेवा के लिए कर्मियों की भर्ती में किसी भी सहवर्ती वृद्धि के लिए प्रयास या कोई स्पष्टता नहीं है,  जिससे लंबे समय में जाकर पेंशन का बोझ कम हो । और कार्यशक्ति प्रोफ़ाइल में भी नौजवानों की मौजूदगी बनी रही .

समस्या यह है कि अल्प सेवा सैनिकों के लिए सेवानिवृत्ति के बाद के चिकित्सा लाभ को वापस लेने से अल्पकालिक भर्ती का आकर्षण कम हो जाता है। यदि कोई सैनिक विकलांग हो जाता है, तो उसे कानूनी रूप से विकलांगता लाभ दिए जाने  के हक में रक्षा मंत्रालय की प्रवृत्ति को देखते हुए, अल्पकालिक भर्तियों के आकर्षण में कमी आई है। इसके अलावा, सेना की कार्यशक्ति में 1.3 मिलियन कर्मचारी शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, 2.8 मिलियन रिजर्व सैनिक हैं। इस प्रकार, सेना की कार्यशक्ति में बहुत बड़ी छँटनी की आवश्यकता होगी।

एक ऐसा भी क्षेत्र जिसके बारे में बात नहीं की जा रही है, वह है आंतरिक सुरक्षा के लिए "अशांत क्षेत्रों" में सेना की तैनाती को कम करने से जुड़ा विषय. यह विषय सेना की संख्या को कम करने के लिए एक रास्ता प्रदान करता है, जो छोटी अवधि में कार्यशक्ति में एक बड़ी कमी ला सकता है, साथ ही कर्मियों की लागत को कम करने में मदद कर सकता है।

सर्वोच्च और लोकतांत्रिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता वाले संगठनों द्वारा दशकों से अपने ही लोगों के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई को समीक्षकों द्वारा गलत माना गया है। यह दृष्टिकोण नागरिकों को निशाना बनाने और संवैधानिक लोकतंत्र को कमजोर करने के अलावा, वास्तव में सेना की नैतिक दायित्व को कम करता है। अगर वे अपने ऑपरेशन को अंजाम देते हैं, जैसे कि कश्मीर में मौजूदा ऑपरेशन ऑल आउट चल रहा है, तो फिर समाधान का कोई रास्ता नहीं है जिससे हिंटरलैंड सुरक्षित रह सके। इस प्रकार, दुर्लभ मानव और भौतिक संसाधनों को बचाने का एक विलक्षण प्रभावी तरीका हमारे पास उपलब्ध है, जिसमें सरकार को सैन्य दमन की विफल और निरर्थक नीति को लंबा करने के बजाय आंतरिक संघर्षों के राजनीतिक समाधान का विकल्प चुनना चाहिए।

 अब, रक्षा क्षेत्र के लिए अंतरिम बजट प्रस्तावों पर एक नज़र डालते हैं।

 संख्या जो मायने रखती है

मोदी सरकार के कुल अनुमानित व्यय 27,842,200 करोड़ रुपये में से 2019-20 के लिए अंतरिम बजट में रक्षा के लिए  4,71,847 लाख करोड़ रुपये या 15.6 प्रतिशत का प्रस्ताव किया गया है। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की सैन्य बजट की परिभाषा के तहत अर्ध-सैन्य संरचनाओं के खाते में खर्च करने के लिए 1,03,927 लाख करोड़ रुपये की राशि रखी गई है, जिसमें गृह मंत्रालय 1.2 लाख कर्मियों का सैन्य बल शामिल है। इसलिए, कुल मिलिट्री बजट 5,34,938 लाख करोड़ रुपये का है या अशांत क्षेत्र को शांत करने के लिए कुल खर्च का 16 प्रतिशत है।

यदि हम सशस्त्र सेवाओं के लिए अलग-अलग वेतन (असैनिक कर्मचारियों सहित, जिसमें रक्षा और आयुध इकाइयों के कार्यबल शामिल हैं) और उनकी पेंशन जोड़ते हैं, तो हमें 1,19,559 लाख करोड़ रुपये कर्मियों के वेतन और 1,12 लाख करोड़ रुपये का पेंशन बिल बनता है, जो रक्षा सेवाओं के बजट का 70 प्रतिशत से अधिक बैठता है। यह तब ओर बढ़ जाता है जब हम केंद्रीय पैरा मिलिट्री ताकतों के वेतन बिल के 70,802.16 करोड़ रुपये को इसमें जोड़ते हैं जिसे गृह मंत्रालय खर्च करता है।

रक्षा बजट - वित्त वर्ष 2019-20

रक्षा पेंशन              1.12 लाख करोड़ रु

डिफेंस कैपिटल                  1.04 लाख करोड़ रु

रक्षा सेवा पर खर्च     2.18 लाख करोड़ रु

रक्षा मंत्रालय            0.38 लाख करोड़ रु

कुल:                     4.72 लाख करोड़ रु

कर्मियों की लागत हमारी सामूहिक जेब को नुकसान पहुंचा रही है। यह तब जब वन रैंक वन पेंशन को पूर्ण रूप से लागू किया जाना बाकी है। दिल्ली की सड़कों पर इस मांग को लागू करवाने करने की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे पूर्व सैनिकों पर दिल्ली पुलिस द्वारा लाठीचार्ज किया गया, जो सीधे गृह मंत्रालय के तहत संचालित होता है। मोदी सरकार ने इस बाबत 35,000 करोड़ रुपये का वितरण करने का दावा किया है, जो ओआरओपी की आवश्यकता का केवल पांचवा हिस्सा है। ओआरओपी के प्रावधान के लिए संसद ने एक वादा किया था जिसे पूरा  किया जाना चाहिए।

सेना की कार्मिक लागत -      2019-20

1. क) रक्षा सेवा (वेतन) -             1,19 लाख करोड़ रु

b) रक्षा पेंशन -                                  1.12 लाख करोड़ रु

कुल -                                     2.31 लाख करोड़ रु

अगर हम इसमें केंद्रीय अर्ध सैनिक बलों के वेतन बिल को जोड़ते हैं, जिसे सिपरी (SIPRI) सैन्य खर्च के रूप में मानती है  और 7 वें वेतन आयोग ने जिसे अपने नोट में जिसे ओवरलैप काम  के रूप में माना है।

2. सीपीएमएफ                                0.70 लाख करोड़ रु

  अनुमानित पेंशन -                           0.12 लाख करोड़ रूपए *

* लाख करोड़...

 जोकि गैर-रक्षा पेंशन का एक चौथाई हिस्सा यानी तकरीबन 50 हजार करोड़ रुपए है ..

अगर इन दोनों घटकों को जोड़ दिया जाए तो सैन्य कर्मियों की लागत 3.13 लाख करोड़ रुपये बैठती है और कुल सैन्य आवंटन 5.54 लाख करोड़ रुपये या कुल खर्च 27.84 लाख करोड़ रुपये का 15.7 फीसदी  है।

सेना के कार्यबल की ताकत

1947-62 में सेना की ताकत 530,000 हो गई और 2014-18 तक यह 13 लाख से अधिक हो गई थी। इसमें छह ऑपरेशनल कमांड या क्षेत्रीय कमांड और एक ट्रेनिंग कमांड शामिल है। 14 कोर, 49 डिवीजन और 249 से अधिक ब्रिगेड हैं। एक अनुमान से पता चलता है कि उनके लिए आवंटन का जायज़ा लेने से पता चलता है कि 1.4 मिलियन सेवा कर्मियों को बनाए रखने की लागत कुल रक्षा बजट का 37 प्रतिशत है और अन्य 35 प्रतिशत में रक्षा पेंशन शामिल है।

अब, 14 कोर्प्स में से चार, नॉर्थ ईस्ट में 3 और 4 और जम्मू-कश्मीर में 15 और 16 कोर, बाद में दो कार्यबल काफी बड़े बल हैं, और करीब कुल कार्यबल का 30 प्रतिशत है जिन्हे दशकों से "अशांत क्षेत्रों" में तैनात किया हुआ है। ।

सेना की जनशक्ति वृद्धि में भारी वृद्धि दो मायने में देखी जा सकती है।

सबसे पहले, लेफ्टिनेंट जनरल प्रकाश कटोच [आर्मी के कार्यबल को कम करने, इंडियन डिफेंस रिव्यू, 14/05/16] में कहते हैं कि सेना ने 14 सैन्य कमांड को कारगिल के  "सीमित" युद्ध लड़ने के लिए गठित  किया था और फिर एक नई कमान, दक्षिण पूर्व कमान का गठन किया जो "ऑपरेशन पराक्रम" के जवाब में थी। दोनों का गठन भाजपा-नीत सरकार के अधीन हुआ हैं। और यह सब देश में एक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति या व्यापक रक्षा समीक्षा के बिना हुआ।

भर्ती में एक और उछाल 1992 में आया था जब राष्ट्रीय राइफल्स को एक समर्पित आतंकवाद विरोधी बल के रूप में गठित किया गया था और इसे 75,000-मजबूत बल के रुप में गठित किया था, जिसके लिए वार्षिक बजट 7,000 करोड़ रुपये से अधिक रखा गया था। असम राइफल्स भी अपने लगभग 45,000 कर्मियों के साथ उत्तर पूर्व में इसी तरह की भूमिका निभा रही है। यह जम्मू और कश्मीर में उत्तर पुर्व में लडाई में शामिल नियमित सेना रेजिमेंटों के अलावा है। इसलिए, यह कहना सुरक्षित होगा कि कर्मियों पर सेना का 30प्रतिशत बजट इसकी आंतरिक सुरक्षा 'कर्तव्य' के कारण खर्च होता है।

इस एक महत्वपूर्ण क्षेत्र को उजागर करने के लिए इस पर ध्यान देने की जरूरत है, यदि सेना इस पर कोई विचार करती है, तो परिणाम काफी अच्छे होंगे और यह सोच "पुनर्गठन" की प्रक्रिया में मदद कर सकती है और साथ ही सामाजिक कल्याण के लिए संसाधन प्रदान कर सकती है। इसकी शुरुआत सेना को बाहरी सीमाओं की रक्षा करने और लंबे समय से आंतरिक युद्धों में लगी अपनी प्राथमिक भूमिका से वापस होना होगा।

क्या ऐसा किया जा सकता है?

रक्षा असैनिक कर्मचारियों की लागत में कटौती का एक और तरीका सही होगा जिनकी संख्या 2017 में 42,370 (वास्तविक) से बढ़कर 2019 में अनुमानित 88,117 हो गई है। जबकिरक्षा मंत्रालय में असैनिक की भर्ती में वृद्धि करने के लिए सेना की ताकत में कटौती करने का आग्रह करना का कोई मतलब नहीं होगा यदि वह  76,000 नई भर्तियों के साथ वह आगे बढ़ रहे हैं!

यह तर्क दिया जाता है कि आंतरिक युद्ध नहीं लड़ने की बात करने के लिए बहुत अच्छी तरह से है, जबकि यह  "प्रॉक्सी युद्ध" के लड़ने के सुनिश्चित तत्वों के साथ जम्मू और कश्मीर में मौजूद हैं। निर्विवाद रूप से कुछ विदेशी आतंकवादी और लश्कर ए तैय्यबा जैसे समूह जम्मू-कश्मीर में मौजूद हैं, लेकिन यह एक स्वीकृत तथ्य है कि 191 लोग जो 2018 में उग्रवाद में शामिल हुए थे वे कश्मीरी थे। उनकी संख्या 350 से अधिक उग्रवादियों से ज्यादा नहीं है, इस बात का कोई लाभ नहीं है कि उनमें से अधिकांश स्थानीय हैं। यहां तक कि सेना के कमांडरों ने भी जम्मू-कश्मीर में और साथ ही एक पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने भी उग्रवाद की स्वदेशी प्रकृति को स्वीकार किया है। फिर भी, हमें तर्क के लिए सरकार के दावे को स्वीकार करना चाहिए।

जबकि,उत्तर पुर्व में कोई छद्म युद्ध नहीं है, तो फिर भी "अशांत क्षेत्र" और वहां सेना की तैनाती क्यों होनी चाहिए? वास्तव में, 2016-17 के लिए नवीनतम उपलब्ध गृह मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट में न केवल यह दावा किया गया है कि "स्थिति में काफी सुधार हुआ है" बल्कि यह भी दर्ज किया गया है कि 308 घटनाएँ, वर्ष 2017 में "1997 के बाद से सबसे कम उग्रवाद की घटना देखी गई"।

तालिबान के साथ सीधी वार्ता का प्रस्ताव करने वाले सेना प्रमुख की बात पर विचार करें। फिर हिजबुल मुजाहिदीन के साथ क्यों बात नहीं की जा रही है, जो कि स्थानीय आतंकवादी हैं? भारत सरकार ने नागा भूमिगत नेताओं के साथ प्रधान मंत्री के स्तर पर बातचीत की और वास्तव में तीसरे देश में भी मुलाकात की, जबकि युद्ध जारी रहा और संघर्ष विराम (लेकिन कोई राजनीतिक समाधन) नहीं हुआ है।

एक राजनीतिक प्रस्ताव में सेना को अपने उग्रवाद विरोधी अभियानों में कटौती करने और उत्तर पुर्व और जम्मू कश्मीर में अपने पदचिह्न को कम करने की अनुमति देने का वादा किया गया है। संवैधानिक रूप से, यह केंद्रीय अर्धसैनिक बलों में 76,000 सैनिकों की भर्ती को निलंबित करने की मांग करता है, जो लाभांश देता है जो सेना द्वारा नियोजित किए जा रहे अन्य सुधारों को पूरक और तेज कर सकता है।

 

 

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