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राफेल : बहुत किंतु-परंतु हैं सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में

नियम यह है कि रक्षा सौदे की खरीददारी के लिए सबसे पहले डिफेन्स एक्वीजीशन काउंसिल की सहमति लेनी पड़ती है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से यह सवाल उठता है कि अगर सुप्रीम कोर्ट यह मानता है कि रक्षा सौदे अतिसंवेदंशील होते हैं और रक्षा खरीद नीति की प्रस्तावना भी यह कहती है कि यह जटिल होते हैं तो इसका फैसला प्रधानमंत्री क्यों ले रहे हैं?
राफेल

 

न्याय के सबसे बड़े संस्थान यानी सुप्रीम कोर्ट में आस्था की हद तक भरोसा बनाये रखना हमारे देश की सबसे महत्वपूर्ण खूबियों में से एक है. यह आस्था डगमगाए न इसलिये सुप्रीम कोर्ट खुद कहता है कि उसके फैसले की सही मंशा से जांच-परख की जा सकती है. यानी उसके फैसले की आलोचना की जा सकती है. राफेल से जुड़ी जांच याचिकाओं को ख़ारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा हमने ऐसा कोई कारण नहीं पाया जिसके आधार पर भारत सरकार द्वारा 36 रक्षा लड़ाकू विमान की खरीद से जुड़े संवेदनशील मुद्दे पर हम हस्तक्षेप करें. ऐसे मसलों पर कोर्ट द्वारा निजी रायों के आधार पर जाँच का आदेश नहीं दिया जा सकता है.

यह तो सुप्रीम कोर्ट का दिया हुआ फैसला है. लेकिन इस फैसले पर आने से पहले सुप्रीम कोर्ट ने जिन तर्कों को आधार बनाया है, उन तर्कों की छानबीन करने से के बाद ही हम यह कह सकते है कि सुप्रीम कोर्ट सरकार को क्लीन चिट देता है या नहीं.

सुप्रीम कोर्ट में राफेल से जुड़ी याचिकाएं राफेल खरीद से जुड़े सरकारी फैसले की प्रक्रिया, कीमत में आये अंतर और ऑफसेट पार्टनर के तौर पर रिलायंस डिफेन्स के चुनने से जुड़ी थी. इन याचिकाओं की सुनवाई करने से पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने रक्षा सौदे से जुड़े सरकारी फैसले की न्यायिक छानबीन करने के लिए अपनी हदें तय कर लीं. और हद तय करते हुए यह कहा कि इस तरह के कॉन्ट्रैक्ट से जुड़े मसलों पर न्याय का जो चलन रहा है, उन्हीं सीमाओं में रहते हुए जो तार्किक लगेगा उसी आधार पर इस कॉन्ट्रैक्ट से जुड़े सरकारी फैसले पर छानबीन की जायेगी. इस तरह से सोचने का मतलब ही है कि न्याय की हदों को सीमित कर देना. यानी उसी आधार पर न्याय करना जो परम्परागत है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट इस फैसले में ‘उचित कारणों और गलत मंशा के आधार पर पक्षपात’ (Reasonableness and absence of malafides or favouritism) जैसे सिद्धांत की व्याख्या भी करता है और इस सिद्धांत से तुरंत अलग जाते हुए अगली लाइन में यह भी कहता है कि राफेल से जुड़ा मुद्दा कोई सड़क या पुल बनाने से जुड़ा मुद्दा नहीं है. यह मुद्दा रक्षा खरीद से जुड़ा मुद्दा है इसलिए यह संवेदनशील मसला है और इस पर न्यायिक छानबीन सरकार के फैसले की तरफ झुकी होगी. कहने का मतलब यह है कि सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर किसी भी तरह न्यायिक सक्रियता नहीं दिखाएगी. सुप्रीम कोर्ट को अगर यह लगेगा कि राफेल खरीदने से जुड़े उद्देश्य सही हैं तो सरकार ने इसे किस तरह खरीदा है, इसपर कम जोर दिया जाएगा. क्योंकि सरकार किस तरह से काम करती है यह सरकार के कामकाज का विषय है इस पर सुप्रीम कोर्ट को बहुत कम हस्तक्षेप करना चाहिए.

इसलिए यशवंत सिन्हा, प्रशांत भूषण और अरुण शौरी का यह कहना सही लगता है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में रूढ़िवादी रुख अपनाया है. अब देखते हैं कि सरकारी फैसला लेने की प्रक्रिया, कीमत में अन्तर, और ऑफसेट कम्पनी के तौर पर रिलायंस डिफेन्स कम्पनी को चुनने पर सुप्रीम कोर्ट का क्या कहना है? 

 

फैसला लेने की प्रक्रिया :

सुप्रीम कोर्ट इस पर फैसला लेने से पहले यह डिफेन्स प्रोक्रुमेन्ट की प्रस्तावना का आधार बनाती है कि रक्षा सौदे की खरीददारी आम सामानों की खरीददारी की तरह नहीं होती है. रक्षा सामान सुरक्षा, तकनीक, मेट्रियल, भू-राजनैतिक रणनीतियों और वैश्विक संबंधों के लिहाज से अतिसंवेदनशील मसले होते हैं. इसलिए इनसे जुड़े फैसले के तरीके बहुत अजीब और जटिल हो सकते हैं. इसे ध्यान में रखते हुए ही सरकार के फैसले की जाँच की जानी चाहिए. यानी फैसले लेने की प्रक्रिया में अगर झोल-मोल है तो उसे स्वीकार किया जा सकता है.

अब समझते हैं कि यह झोल-मोल क्या है, जो सुप्रीम कोर्ट के नजरिये में ऐसा झोल- मोल नहीं है जिसकी जांच के आदेश दिए जाएं. प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 10 अप्रैल 2015 के दिन बिना डिफेन्स एक्वीजीशन कौंसिल के सहमति से 36 राफेल विमान का समझौता कर लिया. जबकि नियम यह है कि रक्षा सौदे की खरीददारी के लिए सबसे पहले डिफेन्स एक्वीजीशन काउंसिल की सहमति लेनी पड़ती है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से यह सवाल उठता है कि अगर सुप्रीम कोर्ट यह मानता है कि रक्षा सौदे अतिसंवेदंशील होते हैं और रक्षा खरीद नीति की प्रस्तावना भी यह कहती है कि यह जटिल होते हैं तो इसका फैसला प्रधानमंत्री क्यों ले रहे हैं? क्या प्रधानमंत्री पद की योग्यता ऐसे फैसले लेने में सक्षम होती है? इसकी खरीद का सबसे पहला फैसला तो नियम के तहत डिफेन्स एक्वीजीशन काउंसिल को ही लेना चाहिए. पता नहीं सुप्रीम कोर्ट ने इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया? जबकि इसके पहले 126 राफेल विमान का करार फ्रांस की दसौल्ट कम्पनी से पहले ही चुका था.

कीमतों में अंतर : 36 राफेल विमानों के समझौते के बाद प्रति राफेल विमान की कीमत 1650 करोड़ हो गयी. जबकि इससे पहले हुए समझौते के तहत 126 राफेल विमान के लिए 90 हजार करोड़ रूपये की राशि तय की गयी थी. पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने एक इंटरव्यू में कहा कि पहले के समझौते के तहत प्रति विमान की कीमत 715 करोड़ रूपये हैं. कहने का मतलब यह है कि नये वाले समझौते में राफेल विमान खरीद की संख्या भी कम हो गयी और कीमत में दो गुने से भी अधिक का इजाफा हो गया.

इस पर सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि यह अतिसंवेदनशील मसला है. इसकी जानकारी सरकार से नहीं ली जा सकती है. ऐसा करना देश की सुरक्षा के साथ समझौता करना होगा. यह कहने के  बाद कोर्ट ने अपने फैसले के पैरा 25 में कहा कि राफेल के कीमत का ब्यौरा कॉम्पटरोलर एंड ऑडिटर जनरल के साथ साझा कर दिया गया है और कैग की रिपोर्ट पब्लिक अकाउंट कमिटी ने परख भी लिया है. जबकि असलियत यह है की कैग द्वारा न तो ऐसी कोई जाँच हुई है और न ही कोई रिपोर्ट आई है. यह बात बताती है कि न्यायलय यह मन बना की बैठा हो कि वह इस विषय पर केवल सरकार की बात मानेगा।

ऑफसेट का चुनाव : ऑफसेट यानी वह कौन सी कम्पनी होगी जो दसौल्ट के सहयोगी के तौर पर भारत में काम करेगी. यहाँ अचरज करने वाली बात यह है की भारत और dasault कम्पनी के बीच हुए नये करार में टेक्नोलॉजी ट्रान्सफर का मुद्दा नहीं है और dasault कम्पनी भारत में डिफेंस के कल पुर्जे बनाने के काम में जीरो अनुभव रखने वाली रिलाइंस  डिफेन्स को 22 हजार करोड़ का काम सौंप देती है. इस चुनाव पर सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि यह कमर्शियल कॉन्ट्रैक्ट में यह पक्षकारों पर निर्भर करता है कि वह किसे अपने सहयोगी के तौर पर चुनते हैं. तो यहीं पर सुप्रीम कोर्ट से यह सवाल बनता है कि भले ही इस कॉन्ट्रैक्ट की प्रकृति कमर्शियल हो लेकिन इसमें एक पक्षकार के तौर एक देश की रक्षा से जुड़े मामलें भी शमिल है. इसलिए रक्षा नीति कहती है की किसी भी तरह का ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट रक्षा मंत्री के अनुमोदन के बाद ही किया जा सकेगा. क्या सुप्रीम कोर्ट को इस नियम के तहत की गयी कारवाई की छानबीन नहीं करनी चाहिए थी, जब सुप्रीम कोर्ट सुरक्षा से जुड़े मसले अतिसंवेदनशील होते हैं. क्या रक्षा जैसे अतिसंवेदनशील मसलों के लिए उस कम्पनी से डील किया जाना सही है जिसका अनुभव रक्षा सामग्री के मसले पर अनुभव शून्य है.

इन सब मसलों को एक बार देखने पर मन में यहाँ सवाल उठता है कि सुप्रीम कोर्ट को राफेल के मामलें पर फिर से विचार करना चाहिए और उन सारे अंदेशों को दूर करना चाहिए जिसकी वजह से सुप्रीम कोर्ट पर किया जाने वाला भरोसा न डगमगाए और लोगों की उसके प्रति आस्था कमजोर न हो.

 

 

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