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राष्ट्रपति का चुनाव और सामाजिक दशा के संकेत

राष्ट्रपति पद के चुनाव परिणाम से देश की राजनीति पर सीधे सीधे कोई प्रभाव भले ही नहीं पड़े किंतु इससे देश और समाज की दशा को समझने में मदद जरूर मिलेगी
राष्ट्रपति का चुनाव और सामाजिक दशा के संकेत
राष्ट्रपति पद के चुनाव परिणाम से देश की राजनीति पर सीधे सीधे कोई प्रभाव भले ही नहीं पड़े किंतु इससे देश और समाज की दशा को समझने में मदद जरूर मिलेगी क्योंकि इस चुनाव में व्हिप जारी नहीं हो सकता। स्मरणीय है कि 1969 में यह राष्ट्रपति का चुनाव ही था जिसके सहारे श्रीमती गाँधी ने अपनी सरकार पर अपने ही वरिष्ठ साथियों की कुदृष्टि के संकेत समझे थे और साहसपूर्ण फैसले लेकर अपनी पार्टी के उम्मीदवार को हरवाने के लिए आत्मा की आवाज पर वोट देने का आवाहन किया था। उसी चुनाव में पहली बार वामपंथियों के प्रस्ताव पर उम्मीदवार बने व्ही व्ही गिरि सत्तारूढ काँग्रेस के प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी को हरा कर विजयी हुये थे। इसी दौर में सरकार के अल्पमत में आने के खतरे को देख कर श्रीमती गाँधी ने वामपंथी पार्टियों से समर्थन मांगा था और उसके बदले में बड़े बैंकों व बीमा कम्पनियों के राष्ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवीपर्स व विशेषाधिकार को समाप्त करने की घोषणा की थी। यही वह समय था जब श्रीमती गाँधी को अपनी पार्टी की छवि बदलने के लिए समाजवाद और गरीबी हटाओ का नारा उछालना पड़ा था। इसी के बाद हुये लोकसभा चुनावों में उन्होंने काँग्रेस की गिर चुकी साख को फिर से प्राप्त कर अभूतपूर्व समर्थन पाया था। पाकिस्तान के विभाजन में भारत की भूमिका निभाने में सोवियत संघ का समर्थन व अमेरिका द्वारा सातवें बेड़े का भेजा जाना भी एक बड़ी घटना थी। इसी के बाद श्रीमती गाँधी के खिलाफ देश भर में दक्षिणपंथी शक्तियां सक्रिय हो गयीं थीं जिन्हें श्रीमती गाँधी ने अमेरिका के इशारे पर प्रेरित फासिस्ट ताकतें बताया था और उनके आन्दोलन को दबाने के लिए इमरजैंसी का सहारा लिया था। यह चुनाव भी जिन परिस्तिथियों में हो रहा है उसमें शक्तियों की पहचान, उनके नये गठबन्धनों का निर्माण और पुराने के विघटन देखने को मिल सकते हैं, जिससे शक्ति संतुलनों में उथल पुथल हो सकती है। यह चुनाव भी देश की राजनीति में परिवर्तन ला सकता है।
 
उल्लेखनीय है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी पर समुचित विवाद रहा था और गहरा असंतोष पैदा हुआ था। अडवाणी इस पद के लिए भाजपा में सबसे वरिष्ठ, अनुभवी, सम्मानित व सुपात्र व्यक्ति थे इसके विपरीत नरेन्द्र मोदी की छवि ऐसी थी कि दुनिया के प्रमुख देशों ने उन्हें वीजा देने तक से मना कर दिया था। अनेक विधायकों पर मुसलमानों के नरसंहार से लेकर हत्याओं तक के गम्भीर आरोप थे जिन्हें जानते समझते हुए भी उन्होंने टिकिट ही नहीं दिया था अपितु मंत्रिमण्डल में भी रखा था। दूसरी ओर औद्योगिक राज्य गुजरात के आर्थिक विकास से जुड़ा कार्पोरेट घरानों का समर्थन और उन पर आर्थिक भ्रष्टाचार का कोई आरोप न होना उनके पक्ष में जाता था। हिन्दू साम्प्रदायिकता से प्रभावित एक वर्ग उन्हें नायक की तरह देखता था। नरेन्द्र मोदी ने चुनाव में जीत का कुशल प्रबन्धन करके वह जीत दिलवा दी जिसके लिए भाजपा और उसकी मातृ संस्था आरएसएस बरसों से तरस रही थी। इस जीत के साथ साथ उन्होंने पार्टी की कमान भी सम्हाल ली और अनेक आरोपों से घिरे रहे अपने दाहिने हाथ अमित शाह को पार्टी अध्यक्ष बनवा दिया। जीत के साथ ही उन्होंने भाजपा में पार्टी नाम के अलावा बहुत कुछ बदल दिया। वरिष्ठ नेताओं को मार्ग दर्शक मण्डल के नाम पर मुख्य धारा से किनारे कर दिया। पार्टी के नाम की जगह केवल मोदी मोदी होने लगा। अटल बिहारी वाजपेयी के कथित फील गुड को कभी याद नहीं किया गया और उसे भी काँग्रेस के सत्तर साला शून्य उपलब्धियों के काल में मिला कर प्रचारित किया। अटल अडवाणी के चित्रों को पोस्टर पर छापने की परम्परा समाप्त कर दी गयी। मीडिया को अपने प्रिय कार्पोरेट घरानों से खरीदवा दिया, बाहर वालों को सरकारी विज्ञापन प्रबन्धन से अनुकूल बनाया या साम दाम दण्ड भेद से उन्हें बाजार से बाहर करवा दिया। सोशल मीडिया पर ट्रालर बैठा दिये। विपक्षियों के स्कैम या उन्हें हास्यास्पद बना कर उनकी चरित्र हत्या की जाने लगी। 
 
प्रबन्धन से अर्जित जीत में अनेक सदस्य दूसरे दलों से दल बदल करा के लाये गये थे, तो पुराने सदस्यों में से भी अनेक सत्ता का मतलब वैसा ही निजी आर्थिक हित मान कर चलते थे जैसा कि पिछली सरकारों में होता रहा था। समस्त प्रयासों से गढी गयी अपनी छवि को बचाना था इसलिए मोदी ने उस कीमत पर उनकी इच्छा पूरी नहीं होने दी। सांसद निधि को एक आदर्श गाँव तक सीमित करके उससे होने वाली कमाई पर नियंत्रण लगा दिया। सबको सम्पत्ति की जानकारी देने को कहा गया तथा मंत्रिमण्डल गठन में महात्वाकांक्षी लोगों को दूर रखा गया। जैटली जैसे अपवाद को छोड़ कर मंत्रिमण्डल के शेष सदस्य पीएम कार्यालय से नियंत्रित अधिकारियों द्वारा प्रस्तुत फाइलों पर दस्तखत करने का कार्य करने को विवश हुये। विभाग के फैसले लेना उनका काम नहीं रह गया। नोटबन्दी का गलत फैसला, विदेश नीतियों की असफलता, साम्प्रदायिक तत्वों पर नियंत्रण न कर पाना, कश्मीर जैसी समस्याओं को ठीक से संचालित नहीं करना, तथा ढेर सारी चुनावी घोषणाओं की पूर्ति न होने से सांसदों को जनता से सामना करना कठिन लगने लगा। रोजगार के अवसर नहीं जुटाये जा सके, किसानों को घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं दिया गया। राज्यों में भ्रष्टाचार पर नियंत्रण नहीं लगा जिससे केन्द्र की सावधानी निरर्थक हो गयी। इन सब को टालने के लिए भावुक मुद्दों को छोड़ा जाने लगा। सांसद अपनी सरकार से खुश नहीं हैं। उन्हें विश्वास में नहीं लिया जाता, इसलिए ऐसा लगता है कि केवल वेतन लेने और सदन में समर्थन करने से ज्यादा उनकी कोई जिम्मेवारी नहीं है। उन्हें लगता है कि उनकी कोई विशिष्टता नहीं है।
 
राष्ट्रपति के उम्मीदवार के चयन में अनावश्यक गोपनीयता ही नहीं बरती गयी, अपितु किसी से सलाह ही नहीं ली गयी। नामांकन प्रस्ताव के खाली फार्मों पर दस्तखत करा के मंगा लिये गये। यही हाल नोटबन्दी से लेकर दूसरे अनेक फैसलों में भी किया गया जो असफल रहे। गोल्ड मोनेटाइजेशन स्कीम, वालंटरी डिस्क्लोजर स्कीम, विदेश में जमा धन की वापिसी आदि योजनाएं पूरी तैयारी के बिना लागू किये जाने से असफल हो गयीं। राष्ट्रपति के चयन में दलित उम्मीदवार के चयन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पिछले दिनों रोहित वेमुला की आत्महत्या, गुजरात के ऊना में दलितों की पिटाई का वीडियो, सहारनपुर की भीम सेना, आदि के कारण दलित उम्मीदवार उतारा गया है। आरक्षण के कारण दलित समुदाय के लोग सांसद और मंत्री भले ही हों किंतु उनकी नेतृत्व में भागीदारी नहीं है। इसी असंतोष प्रबन्धन के लिए ऐसा दलित उम्मीदवार उतारा गया जो औपचारिकता की पूर्ति तो करता है किंतु उस वर्ग का नेतृत्व नहीं करता, न ही पक्षधरता करके उनके मुद्दों को सम्बोधित करता रहा है।
 
1975 की इमरजैंसी के बारे में कहा गया था कि लोगों से झुकने के लिए कहा गया तो वे लेट गये। इस अघोषित इमरजैंसी में इसका पुनर्परीक्षण हो सकता है, चुप्पियों के अर्थ निकल सकते हैं। अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार, येदुरप्पा, यशवंत सिन्हा आदि पद के लिए दुखी भले ही न हों किंतु अपने अपमान के लिए अवश्य ही दुखी हैं। आर के सिंह, भगीरथ प्रसाद, सत्यपाल सिंह, आदि दर्जन भर लोग सोचते ही होंगे कि क्या वे इसके लिए अपनी प्रशासनिक सेवाओं को छोड़ कर आये थे। राम जेठमलानी, शत्रुघ्न सिन्हा, कीर्ति आज़ाद, भोला सिंह, आदि तो मुखर होने के बाद चुप्पी ओढे बैठे हैं पर क्या ये चुप्पी साधरण चुप्पी कही जा सकती है। समर्थन घोषित करने वाले दलों में क्या गुटबाजियां नहीं हैं? नवीन पटनायक के खिलाफ कितने षड़यंत्र हो चुके हैं, जेडीयू के अन्य वरिष्ठ नेताओं को नितिश का फैसला हजम नहीं हो रहा। शिवसेना ने नामांकन प्रक्रिया में भाग नहीं लिया। दल की गुटबाजियों में एक दूसरे से बदला लेने के मौके भी तलाशे जा सकते हैं।
 
ऊपर जमी पर्त के नीचे कितना लावा खदबदा रहा है यह इस चुनाव में सामने आ सकता है क्योंकि इससे सत्ता पर सीधे आँच आये बिना भी संकेत दिये जा सकते हैं। 1977 में बहती अंतर्धारा की पहचान किसने कर पायी थी।

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