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रफाल: तर्कहीन, अस्पष्ट और चौंकाने वाला सौदा

रफाल एक निराशाजनक सौदा है और इस जटिलता को जितना लंबा खींचा जाएगा, उतना ही बदतर होगा। ये दुनिया भर में भारत के नाज़ुक पक्ष को उजागर करेगा।
रफाल

रफाल सौदे के संबंध में एयरचीफ सहित एयरफोर्स के उच्च अधिकारियों और खुद रक्षा मंत्री के मीडिया साक्षात्कार ने इस मामले को केवल ख़राब ही किया है। ये बयान पूरी तरह विरोधाभासी हैं, जो जवाब देने की तुलना में ज़्यादा सवाल खड़े करते हैं, साथ ही शक को और गहरा करते हैं।

मानो कि यह कोई ज़्यादा बुरा नहीं था, फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रैंकोइस ओलांद के कार्यकाल के दौरान नरेंद्र मोदी सरकार ने रफाल को सरकार से सरकार के बीच किया गया सौदा बताया था। पूर्व राष्ट्रपति ने इस सौदे का खुलासा करके सभी को चौंका दिया। उन्होंने साफ तौर पर कहा है कि अनिल अंबानी के नेतृत्व वाली रिलायंस एयरोस्पेस को रफाल ऑफसेट लेने के लिए भारत सरकार द्वारा पहले से ही नाम सुझाया गया था और इस मामले में फ्रांस की कोई भूमिका नहीं थी। भारत के रक्षा मंत्री और अन्य सरकारी प्रवक्ता द्वारा किए गए बार-बार के दावाों में स्पष्ट रूप से विरोधाभास है। फ्रांसीसी कंपनी डसॉल्ट एविएशन ने बाद में इन बयानों के जवाब में कहा कि उसने अल्प साख वाली रिलायंस का चुनाव किया था, क्योंकि इस सौदे में डसॉल्ट के लिए यही हितकारी है कि वह सरकार के ख़िलाफ़ जाकर किसी तरह ख़तरा लेना नहीं चाहेगा।

इन नवीनतम घटनाओं के बावजूद, रक्षा मंत्री और आईएएफ के उच्च अधिकारियों द्वारा उठाए गए मुख्य बिंदुओं को स्पष्ट करने की आवश्यकता है ताकि सनसनीखेज और भ्रम के शोर शराबे में महत्वपूर्ण राष्ट्रीय हितों के मुद्दे न खो जाए।

 

उठाए गए मुख्य मुद्दे कुछ इस तरह हैं: (ए) भारतीय वायुसेना (आईएएफ) प्रमुख के मुताबिक़,रफाल बहुत ही अच्छा लड़ाकू विमान है, जिसकी आईएएफ को बेहद जरूरत है, और अनुरोध करते हुए कहा कि इस सौदे को मौजूदा हंगामे के चलते संकट में नहीं डाला जाए; (बी) रक्षा मंत्री और आईएएफ प्रमुख के अनुसार, मूल रूप से टेंडर दिए गए 126 में से 36 विमानों (2 स्क्वाड्रन) को रद्द करना कई कारणों से न्यायसंगत था; (सी) 126 रफाल के लिए एमएमआरसीए टेंडर को अंतर-सरकारी सौदे के पक्ष में रद्द करना था क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र के हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) में "रफाल बनाने की क्षमता नहीं थी" और डसॉल्ट और एचएएल के बीच बातचीत क़ीमत के मुद्दों पर तय नहीं हुई और गुणवत्ता के मुद्दों के कारण एचएएल के बने लड़ाकू विमानों की गारंटी देने से डसॉल्ट का इंकार करना; (डी) रिलायंस को ऑफसेट पार्टनर के रूप में चयन करने में भारत सरकार की कोई भूमिका नहीं थी, विदेशी कंपनी ओईएम डसॉल्ट पर फैसला करने के लिए छोड़ दिया गया।

ये सभी दावे ग़लत हैं, अगर नहीं तो भ्रामक हैं और बताने से ज्यादा छुपाने का काम करते हैं।

रफाल का चयन

यहां जो सवाल अभी भी क़ायम है जिसका जवाब आईएएफ प्रमुख ने नहीं दिया वह ये कि व्यापक क्षेत्र परीक्षणों के बाद आईएएफ के लड़ाकू विमानों की पसंद को बरकरार रखा गया था,लेकिन विमान की संख्या क्यों नहीं थी? क्या 126 (7 स्क्वाड्रन) विमानों के सावधानीपूर्वक कार्य करने की आवश्यकता के बारे में आईएएफ गलत था? किसने फैसला किया कि 36 विमान उचित है? और यदि ऐसा है, तो 110 लड़ाकू विमानों के लिए एक नया एमआरसीए टेंडर क्यों जारी किया गया, जिसमें भारत को फिर से कठिन प्रक्रिया से गुजरने के लिए मजबूर किया गया,जिससे नए विमानों के लिए आईएएफ की सख़्त ज़रूरत में और देरी हुई? यह शर्मनाक है कि सरकार आईएएफ के पीछे छिपकर सार्वजनिक आलोचना से दूर होने का प्रयास कर रही है।

 

केवल 36 विमान क्यों?

आईएएफ प्रमुख और रक्षा मंत्री ने मिग-29 और मिराज-2000 के समान पूर्व अधिग्रहण के उदाहरण देते हुए 'आकस्मिक' आवश्यकता और त्वरित अंतर सरकारी प्रक्रिया का हवाला देते हुए 36 विमानों के प्रतिबंधित आदेश को उचित ठहराने की मांग की। फिर तथ्यों में भिन्नता है। अमेरिका से एफ-16 के पाकिस्तान के अधिग्रहण को लेकर इन विमानों की ख़रीद के लिए भारत ने वास्तव में तत्काल आवश्यकता के तौर पर आदेश दिया था। लेकिन 50 विमान के शुरुआती आदेश के बाद भारत ने नौसेना के वैरिएंट सहित कुल 78 मिग-29 प्राप्त किए। इसी तरह मिराज-2000 के लिए ऑर्डर करना 40 लड़ाकू विमान के लिए था जिसमें चार दो सीट वाले ट्रेनर शामिल थे। हालांकि, आईएएफ ने एचएएल द्वारा लाइसेंस प्राप्त उत्पादन के साथ 150विमानों की आवश्यकता का अनुमान लगाया था, नौकरशाहों के दिशाहीन निरंतर गुटबंदी के चलते ये धीरे-धीरे घटकर 40 तक पहुंच गया। कारगिल के दौरान मिराज की बड़ी सफलता के बाद, भारत ने भी अधिग्रहण करना चाहा, लेकिन इतने लंबे समय तक इसके फैसले में देरी हुई तब तक डसॉल्ट ने अपनी उत्पादन इकाई बंद कर दी थी!

वास्तव में, विशेष रूप से सिविलियन नौकरशाही द्वारा इस तरह के दोषपूर्ण निर्णय लेने के कारण और साथ ही इसमें आईएएफ के अनुरोध और जेहन के अस्पष्ट परिवर्तन तथा रणनीतिक योजना की कमी ने भी योगदान दिया जिससे आईएएफ आज विमान के प्रकारों के दलदल से बाधित है, जैसे मिग -23/27, जगुआर, मिग -29, मिराज -2000 की कम संख्या और अब केवल36 रफाल सैन्य तंत्र में शामिल करना चाहता है!

 

अगर युद्ध अचानक शुरू हो जाता है तो आईएएफ को ईश्वरीय सहायता की आवश्यकता हो सकती है। बड़ी संख्या में शामिल तेजस/एलसीए, सुखोई-30 और रफाल आईएएफ बेड़े के साथ126 रफाल ख़रीदने का मूल एमएमआरसीए निर्णय इस समस्या को सुधारने के लिए एक लंबा सफर तय कर चुका था। लेकिन नहीं!

रक्षा मंत्री ने तर्क दे कर सीमित अधिग्रहण को भी उचित ठहराया कि एक बार में सभी को ख़रीदने से बुनियादी ढांचे और सैन्य तंत्र पर दबाव बढ़ जाएगा। क्या अजीब तर्क है जो मंत्री की तरफ से आ रहा है! कोई वायु सेना खरीदती नहीं है, और कोई भी निर्माणकर्ता एक बार में सैकड़ों विमानों की आपूर्ति नहीं करता है, और गति बनाए रखने के लिए सैन्य तंत्र और बुनियादी ढांचे को हमेशा तैयार किया जाता है। किसी भी मामले में यहां तक कि 'आपातकाल' में रफाल भी अगले तीन वर्षों में धीमी गति से आ रहे हैं, जबकि डसॉल्ट ने आपूर्ति की थी और आईएएफ लगभग एक साल के भीतर लगभग 40 मिराज को शामिल करने में सक्षम था, वह भी कई दशकों पहले!

एचएएल की क्षमता

रक्षा मंत्री का सबसे आश्चर्यजनक दावा यह था कि एचएएल में रफाल बनाने की क्षमता नहीं है! क्या यह वही एचएएल है जिसने डसॉल्ट मिराज-2000 को अपग्रेड किया है, या मिग -29 के लिए200 अपग्रेड आरडी-33 इंजन लाइसेंस के अधीन निर्मित किया, या मूल कच्चे माल से उन्नत सुखोई-30 एमकेआई का निर्माण कर रहा है, या बीएई से मिले लाइसेंस के अधीन लगभग 100हॉक-132 उन्नत जेट ट्रेनर बना रहा है, या बैंगलोर के पास पूरी तरह से नया हेलीकॉप्टर संयंत्र स्थापित किया है जहां यह सैकड़ों हेलिकॉप्टर बनाएगा?

हाल ही में एचएएल के सेवानिवृत्त सीएमडी सुवर्ण राजू ने दावा किया है कि डसॉल्ट के साथ पूर्ण लाइसेंस निर्माण विवरण तैयार किए गए थे, और एचएएल इसके द्वारा निर्मित विमान को पूरी तरह से गारंटी देने के लिए तैयार था। उन्होंने सहमति व्यक्त की कि एचएएल की क़ीमत अधिक थी। हालांकि, इस पर बातचीत की जा सकती थी, सरकार आत्मनिर्भरता के हित में आवश्यक बुनियादी ढांचे के लिए एक बलपूर्वक भूमिका निभा रही थी और वित्त पोषण कर रही थी।

महत्वपूर्ण बात यह है कि आईएएफ और एचएएल लंबे समय से वितरण कार्यक्रम, गुणवत्ता और लागत को लेकर आपस में भिड़े हैं। एचएएल को इस स्थिति और इसकी ख़राब कार्य संस्कृति के लिए ज़िम्मेदारी का वाजिब हिस्सा लेना चाहिए। आईएएफ को भी कभी कभी संदिग्ध प्रेरणा के साथ स्वदेशी एचएएल निर्मित हार्डवेयर की तुलना में आयातित उपकरणों के लिए अपने कई उच्चाधिकारी की सतत तरजीह को काबू करना होगा। लेकिन इसके अलावा रक्षा मंत्रालय के अधीन कार्यरत रक्षा क्षेत्र के सार्वजनिक रक्षा उपक्रमों (डीपीएसयू) में रणनीतिक दृष्टि, और अनुशासन, दक्षता और कार्य संस्कृति का इस्तेमाल करना सरकार और राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका है, और जिसपर उनकी पूरी ज़िम्मेदारी है। डीपीएसयू के लिए यह उत्तरदायित्व पूरी तरह ग़ायब है, न केवल वर्तमान सरकार के अधीन। यह रक्षा मंत्री के लिए कहना उतना आसान नहीं है कि कि एचएएल और डसॉल्ट भारत में निर्माण पर सहमति करने में असमर्थ थे, इस तरह का समझौता करना सरकार का काम है।

इससे भी बुरा यह है कि प्रेस के कुछ हिस्सों को मिले नोट में कथित तौर पर भारत के अमेरिकी राजदूत द्वारा और डसॉल्ट द्वारा एचएएल की क्षमताओं पर सवाल उठाते हुए रिपोर्टों का हवाला दिया है। आज़ादी के बाद से, भारत को पता है कि अमेरिका और अन्य पश्चिमी शक्तियों ने भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी में आत्मनिर्भरता में बाधा डालने की अपनी पूरी कोशिश की है। वास्तव में यह शर्म की बात है कि उन्हीं ताक़तों को अब हमारे स्वयं के डीपीएसयू को बदनाम करने के लिए उद्धृत किए जा रहे हैं!

ऑफसेट और रिलायंस

अंत में, ऑफसेट के बारे में। रक्षा मंत्री और अन्य सरकारी प्रवक्ताओं ने अक्सर रक्षा खरीद से संबंधित विभिन्न प्रक्रियात्मक शर्तों को लगातार छिपाया हैं, उदाहरण के लिए, तर्क देते हैं कि नियमों के मुताबिक़ विदेशी ओईएम (ओईएम-मूल उपकरण निर्माता) ऑफसेट कार्य के लिए अपने स्वयं के भारतीय भागीदारों का चयन करेंगे। सभी प्रक्रियाएं अतिमहत्वपूर्ण सामरिक लक्ष्यों के अधीनस्थ हैं, या होना चाहिए। ऑफसेट का मतलब न केवल भारत में न केवल व्यय का हिस्सा रखना बल्कि उन्नत प्रौद्योगिकी को हासिल करने और आत्मनिर्भर रक्षा उद्योग बनाने के लिए है। इसकी आवश्यकता है कि चयनित क्षेत्रों में तकनीकी आधार का विस्तार करने के लिए रणनीतिक दृष्टि के साथ ऑफसेट गतिविधियों और स्थानीय भागीदारों को सावधानीपूर्वक चयन किया जाता है। इसके बदले में एक सक्रिय सरकारी भूमिका की आवश्यकता होती है, न कि इसे विदेशी और भारतीय भागीदारों के बीच वाणिज्यिक समझौते के लिए छोड़ देना चाहिए।

रक्षा मंत्री का यह बचाव कि पार्टनर और ऑफसेट कार्य के चयन के लिए डसॉल्ट पर छोड़ दिया गया था जिसने इस उद्देश्य के लिए रिलायंस को चुना, जो सामान्य बुद्धि को नकारता है। क्या डसॉल्ट या कोई अन्य ओईएम, जो कथित तौर पर माना जाता है कि वह एचएएल को चाहता है,ने रिलायंस जैसे भारतीय पार्टनर को ख़राब वित्तीय रिकॉर्ड और विमानन या यहां तक कि अन्य निर्माण में कोई अनुभव नहीं होने के बावजूद चयन किया? और यदि उन्होंने किसी भी कारण से ऐसा किया है, तो क्या सरकार को किसी भी तरह के उचित प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर ज़ोर देने के बजाय चुपचाप रहना चाहिए? यह भी महसूस किया जाना चाहिए कि कोई भी विदेशी रक्षा निर्माता एचएएल के बजाय एक छोटे, अनुभवहीन भारतीय साझेदार को लेना पसंद करेगा क्योंकि एचएएल वास्तव में उन्नत प्रौद्योगिकियों को अंतर्लीन कर देगा और संभावित रूप से भविष्य के बाजारों के ओईएम को वंचित कर देगा, जबकि पूर्ववर्ती कंपनी केवल स्क्रू-ड्राइवर ही तैयार कर सकता है और जिससे कुछ भी ख़तरा नहीं है।

रफाल सौदे पर सरकार द्वारा किए गए सभी कार्य, और वास्तव में तर्कसंगतता के बाद इसके सभी प्रयास, इसे एक कमज़ोर प्रकाश में दिखाता है। भारत में रक्षा निर्माण के लिए और आत्मनिर्भर विकास के लिए रक्षा क्षेत्र के लिए कोई रणनीतिक दृष्टि नहीं है। रफाल एक निराशाजनक सौदा है और इस जटिलता को जितना लंबा खींचा जाएगा, उतना ही बदतर होगा। ये दुनिया भर में भारत के नाज़ुक पक्ष को उजागर करेगा।

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