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केन-बेतवा लिंकिंग परियोजना केवल प्रतिष्ठा से है जुड़ी, इसमें जल संकट का समाधान नहीं

केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना की भारी आर्थिक लागत और पारिस्थितिक नुकसान को देखते हुए इससे मिलने वाले लाभ संदिग्ध हैं। इसलिए यह परियोजना उचित नहीं है।
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केन-बेतवा संपर्क परियोजना को कैबिनेट की मंज़ूरी से संरक्षणवादियों में रोष। फोटो सौजन्य: द वायर

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 44,605करोड़ रुपये की लागत वाली विवादास्पद केन-बेतवा नदी लिंक परियोजना (केबीआरएलपी) को अपनी मंजूरी दे दी है। आधिकारिक तौर पर, इस परियोजना से कई लाभ मिलने की बात कही गई है। दावा किया गया है कि इस परियोजना से 103 मेगावाट जलविद्युत शक्ति उत्पन्न होगी, 27 मेगावाट सौर ऊर्जा मिलेगी, 10.62 लाख हेक्टेयर भूमि सिंचित होगी और 60 लाख लोगों को पीने का पानी मिलेगा। इसी परियोजना में केन नदी पर दौधन बांध का निर्माण किया जाना भी शामिल है ताकि इसके घोषित "अधिशेष" पानी में से कुछ 230कि.मी. नहर के जरिए बेतवा नदी में ले जाया जा सके। इस परियोजना को एक विशेष परियोजना वाहन (एसपीवी), केन-बेतवा लिंक परियोजना प्राधिकरण द्वारा आठ वर्षों में पूरा करने की बात कही गई है।

कैबिनेट की मंजूरी मिलने से पहले, केंद्रीय जल शक्ति मंत्री और इसमें शामिल दो राज्यों-मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के बीच 22 मार्च 2021 को एक समझौता हुआ था। समय के साथ, इस परियोजना में लोअर ऑर, कोठा बैराज आदि सहित कुछ परियोजनाओं को भी शामिल किया गया।

सरकार का यह भी दावा है कि केबीआरएलपी और नदियों को आपस में जोड़ने की बड़ी परियोजना का मार्ग प्रशस्त करेगा। सरकार ने इस अत्यधिक विवादास्पद नदी जोड़ परियोजना से संबंधित लगभग 30 परियोजनाओं पर चर्चा की है। लगभग दो दशक पहले, समग्र नदी-जोड़ने की लागत केबीआरएलपी की वर्तमान लागत की लगभग 13गुनी ज्यादा थी। उस समय की तुलना में आज लागत का बढ़ना तय है। इस श्रृंखला की परियोजनाओं की पहली परियोजना के रूप में केबीआरएलपी के लिए सरकार और शक्तिशाली निर्माण लॉबी के लिए दांव बहुत अधिक लगा है।

दुर्भाग्य से, सरकार ने इस परियोजना के गंभीर प्रतिकूल पहलुओं की अनदेखी की है, जिसे स्वतंत्र विशेषज्ञों और यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय की केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति सहित आधिकारिक समितियों ने भी उजागर किया। इनमें से कुछ आपत्तियां इस परियोजना के लिए आवश्यक कानूनी मंजूरी प्राप्त करने के रास्ते में बाधक बनी हुई हैं। इन आपत्तियों पर गौर करने से यह स्पष्ट होता है कि सरकार इस परियोजना के निर्माण को व्यवहार्यता और वास्तविक सुनिश्चित लाभों के आधार पर उचित नहीं ठहरा सकती है। हालांकि अब, यह एक प्रतिष्ठित परियोजना के रूप में, और सभी नदियों को जोड़ने वाली परियोजना के शुरुआती बिंदु के रूप में इंटर-लिंकिंग को बढ़ावा दे रहा है।

केबीआरएलपी को सरकार द्वारा बढ़ावा दिया जाना एक चौंकाने वाला है, जिस परियोजना में लाखों पेड़ों की कटाई किया जाना है, वह भी ज्यादातर पन्ना टाइगर रिजर्व में। इस परियोजना से खतरे में पड़ने वाले पेड़ों की तादाद अनुमान से कहीं अधिक हैं। सुप्रीम कोर्ट (सीईसी) की केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति ने भी इस पर गौर किया है, "वन सलाहकार समिति की उप-समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि 20 सेटींमीटर या इसके भी अधिक की परिधि में चारों ओर लगे पेड़ों को गिराए जाने की कुल तादाद करीब 23लाख होगी।" यहां संदर्भ वृक्षों की परिधि या उसके घेराव का है। इस अनुमान के लागू होने के समय से लेकर इसकी परिधि में पेड़ों की संख्या में काफी वृद्धि होगी।

सीईसी ने भी इस परियोजना के चलते 10,500 हेक्टेयर में फैले पन्ना रिजर्व में रहने वाले वन्यजीवों के आवास के नुकसान का अनुमान लगाया है। इसके मुताबिक यदि इस परियोजना पर आगे काम किया जाता है तो इससे कई संरक्षित वन्यजीव प्रजातियों के आवास के लिए बाधा पहुंचने होने की आशंका है। इन दावों के बावजूद कि परियोजना में इन तथ्यों का ध्यान रखा जाएगा। तो इन भारी पारिस्थितिक कीमतों को देखते हुए इस परियोजना के माध्यम से बुंदेलखंड में पानी की कमी को खत्म करने के दावे भी अत्यधिक संदिग्ध लगते हैं। उम्मीद की जा रही है कि इस परियोजना से केन नदी के "अतिरिक्त" पानी को बेतवा नदी में स्थानांतरित करके पानी की कमी को दूर किया जा सकता है। हालांकि, इस मुद्दे पर पीपल्स साइंस इंस्टीट्यूट के संस्थापक रवि चोपड़ा गहराई से अध्ययन करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे है कि केन और बेतवा बेसिन एक दूसरे के आसपास हैं, उनके मौसम और वर्षा पैटर्न भी समान हैं। वे एक साथ सूखे और बाढ़ का सामना करते हैं। इसलिए, अधिक जल प्रवाह वाली केन नदी से कम जलप्रवाह वाली वेतवा नदी में ले जाने की अवधारणा अर्थहीन है। यह भी कि, इतनी बड़ी परियोजना को सही ठहराने के लिए इस्तेमाल किए गए हाइड्रोलॉजिकल डेटा को भी पारदर्शी तरीके से साझा नहीं किया गया है और यह पुराना भी प्रतीत होता है।

इसके अलावा, केन नदी हाल के दिनों में अवैध रेत खनन की शिकार रही है। स्थानीय लोगों ने, यहां तक कि सरकारी अधिकारियों ने भी इस परियोजना के मूल आधार पर बार-बार सवाल उठाए हैं: कि केन के पास बेतवा में ले जाने के लिए अतिरिक्त पानी है। अपुष्ट दावों पर आधारित कोई भी परियोजना भविष्य की समस्याओं और तनावों के बीज ही बोती है।

बुंदेलखंड क्षेत्र में यात्रा करते हुए, इस आलेख के लेखक ने न केवल केन नदी पर बल्कि इसकी छोटी सहायक नदियों को रेत-खनन से होने वाले भारी क्षरण और नुकसान के बारे में जाना है। इसमें यह महसूस हुआ कि केन नदी से जल हस्तांतरण की नहीं, बल्कि उसे संरक्षण देने की जरूरत है। इसलिए कि उसके ईर्द-गिर्द रहने वाली आबादी की जरूरतें भी बढ़ रही हैं।

यह परियोजना बुंदेलखंड के लिए अत्यधिक लाभकारी के रूप में प्रचारित की जा रही है, जो कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के 13 जिलों में फैला का एक व्यापक क्षेत्र है। हालांकि, बुंदेलखंड में पानी की कमी का कारण जानने के लिए किए गए अध्ययन में वनों की कटाई को इसका एक प्रमुख कारण माना गया है, जबकि केबीआरएलपी की शुरुआत ही 23 लाख पेड़ों की कटाई से होनी है। बुंदेलखंड क्षेत्र में पानी की कमी की वजह जानने के लिए किए गए इन अध्ययनों में विज्ञान शिक्षा केंद्र और आइआइटी, दिल्ली का एक अध्ययन भी शामिल है। इस अध्ययन में शामिल एक प्रमुख व्यक्ति, डॉ भारतेंदु प्रकाश ने विशेष रूप से स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल जल संरक्षण पर आधारित वैकल्पिक दृष्टिकोणों का दस्तावेजीकरण करते हुए एक अद्यतन अध्ययन किया है।

केन-बेतवा लिंकिंग से बुंदेलखंड को क्या फायदा होगा, यह बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं है। इस परियोजना के विवरण के अनुसार लगभग 10 गांवों में फैले लगभग 10 हजार लोगों के विस्थापित होने की आशंका है। बांध बनने से होने वाली व्यापक समस्याओं में गांवों के जलमग्न होने से लेकर वहां रहने वाली बड़ी आबादी की आजीविका में आने वाली दिक्कतें तक शामिल हैं। इन समस्याओं को वीरेंद्र जैन के लिखे और प्रशंसित हिंदी उपन्यास 'डूब' और 'पार' में बेहतर चित्रित किया गया है। इसके अलावा, बुंदेलखंड में विनाशकारी बाढ़ के लिए समय-समय पर बांधों से मनमाने ढंग से अतिरिक्त पानी के छोड़े जाने को दोषी ठहराया गया है, जैसा कि इस आलेख के लेखक ने खुद इसको चित्रकूट और उसके आसपास देखा है।

बुंदेलखंड को पारंपरिक जल स्रोतों की एक समृद्ध विरासत के लिए जाना जाता है, जिसमें महोबा में चंदेल राजाओं द्वारा निर्मित तालाब भी शामिल हैं। पारंपरिक जल स्रोतों की संपत्ति, विशेष रूप से महोबा, छतरपुर और टीकमगढ़ में, स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप जल प्रबंधन की योजना और निर्माण पर चर्चा हुई है। इन स्रोतों की मरम्मत और उनके रख-रखाव पानी की कमी को दूर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। आज भी, चित्रकूट से इलाहाबाद की यात्रा करते हुए जल संरक्षण के इन प्रयासों को देखा जा सकता है, जिन्होंने दशकों से लोगों को जल संकट से निपटने में मदद की है।

इनमें से कुछ परियोजनाएं सृजन के समर्थन से बांदा, महोबा और चित्रकूट जिलों में चल रही हैं। कुछ परियोजनाएं एक्शन इंडिया, नाबार्ड और ऑक्सफैम के समर्थन से पाठा क्षेत्र में चलाई जा रही हैं। सरकार बिना किसी प्रतिकूल पर्यावरणीय प्रभाव के केबीआरएलपी की लागत से भी कम पर ऐसी हजारों पहल कर सकती है।

इस परियोजना के विरोध में और इसके कार्यान्वयन में की जा रही मनमानी का कड़ा विरोध दर्ज कराते हुए 30 विशेषज्ञों और कार्यकर्ता का हस्ताक्षरित एक पत्र पहले ही सुर्खियों में रहा था। इस पत्र में कहा गया है कि "ये परियोजना हर कदम पर लापरवाही से ग्रस्त, जानबूझकर भ्रामक और दुष्प्रभावों के अपर्याप्त आकलन, प्रक्रियात्मक उल्लंघन और गलत सूचना से ग्रस्त रही है।" पत्र में हस्ताक्षर करने वालों में वन सलाहकार समिति की पूर्व सदस्य अमिता बाविस्कर और भारत सरकार के पूर्व सचिव ईएएस सरमा शामिल हैं। इस पत्र में कहा गया है कि परियोजना से पीड़ित लोगों को दो नदियों में पानी की उपलब्धता के बारे में बुनियादी जानकारी नहीं दी गई और न उनसे ली गई है।

(भारत डोगरा पत्रकार और लेखक हैं। उनकी हालिया किताबों में मैन ओवर मशीन (गांधीयन आइडियाज फॉर आवर टाइम्स) और प्रोटेक्टिंग अर्थ फॉर चिल्ड्रेन शामिल हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत है।)

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

River Linking is a Prestige Project, will not Solve Water Crisis

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