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नए वन (संरक्षण) नियम 2022—आदिवासियों और पर्यावरण पर हमला

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि वन (संरक्षण) नियम 2002 सरकार के अपने जलवायु लक्ष्यों के विपरीत हैं। और इसी के साथ इससे आदिवासियों और अन्य वनवासियों का व्यापक विस्थापन हो सकता है।
Tribals and Environment
Image courtesy : Down To Earth

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने 28 जून 2022 को नए वन (संरक्षण) नियम 2022 को अधिसूचित किया।

ये वन (संरक्षण) नियम 2022 स्थानीय आदिवासियों और अन्य वनवासियों की ग्राम सभाओं से अनुमोदन लिये बिना, बहुत ही आसान तरीके से 1000 हेक्टेयर तक जंगलों को गैर-वन (non-forest) उद्देश्यों के लिए उपयोग का प्रावधान करते हैं। पहले के वन कानून में ग्राम सभाओं से अनुमोदन एक पूर्वशर्त थी।

पर्यावरण पर बहुआयामी हमले

सबसे महत्वपूर्ण बात:  ये वन (संरक्षण) नियम 2002 सरकार के अपने जलवायु लक्ष्यों के विपरीत हैं।

दूसरी बात, चूंकि हमारे वन समृद्ध जैव विविधता (rich bio-diversity) और पुष्प संपदा (floral wealth) का प्रतिनिधित्व करते हैं, यह जैव विविधता संरक्षण की दिशा में सरकार के अपने प्रयासों के विपरीत हैं।

तीसरे, चूंकि भारत के वन करीब 92,000 पक्षियों और जानवरों/कीटों की प्रजातियों के लिए आश्रय हैं और जीव-जंतुओं के धन में समृद्ध हैं, ये नियम वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 के विपरीत हैं।

चौथी महत्वपूर्ण बात, यह स्थानीय जल विज्ञान चक्र (local hydrological cycle) पर प्रतिकूल प्रभाव लाएंगे- स्थानीय वर्षा स्तर को नीचे लाएंगे, भूजल पुनर्भरण (groundwater recharging) में कमी लाएंगे और बाढ़ नियंत्रण के प्राकृतिक साधनों को कमजोर कर सकते हैं तथा बाढ़ का कारण बन सकते हैं। इससे आसपास की खेती वाली भूमि में फसलों को नुकसान पहुंचा सकता है।

पांचवां, वनों के विनाश (deforestation) से वायु प्रदूषण भी बढ़ सकता है क्योंकि एक हरा पेड़ प्रति वर्ष औसतन 260 पाउंड ऑक्सीजन पैदा करता है।

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इन सब से अधिक, यह संशोधन प्रकृति पर होने वाले नुकसान के अलावा एक मानव टोल (human toll) भी ले सकता है। इससे आदिवासियों और अन्य वनवासियों का व्यापक विस्थापन हो सकता है। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि सरकार ने आदिवासी वोटों पर नजर रखते हुए एक आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू को भारत का पहला नागरिक (President) बनाया है। साथ ही यह वन संरक्षण कानून के तहत नियम बना रही है, जो आदिवासी आजीविका को तबाह कर सकते हैं।

आइए एक-एक करके इन पहलुओं की जांच करें।

हाल के वर्षों में वन भूमि का बड़े पैमाने पर व्यपवर्तन (diversion)

वन (संरक्षण) अधिनियम 1980, जो वन भूमि के डायवर्जन को प्रतिबंधित करने वाला होता था, के बावजूद भारत में गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि का अंधाधुंध व्यपवर्तन चल रहा है। पर्यावरण, वन, और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) की वार्षिक रिपोर्ट 2019-2020  के अनुसार, हाल के दिनों में भी, 22 राज्यों में 1 जनवरी से 6 नवंबर, 2019 के बीच कुल 11,467.83 हेक्टेयर (114.68 वर्ग किलोमीटर) वन भूमि को 932 गैर-वन परियोजनाओं के लिए डायवर्ट किया गया था ।

मान लें कि हर तीन मीटर पर एक पेड़ है, तो एक हेक्टेयर वन भूमि में 1111 पेड़ हो सकते हैं और इसलिए, मोटे तौर पर अनुमान के मुताबिक 2019 के पहले दस महीनों में ही 1.27 करोड़ पेड़ों को काटा और हटाया गया है। भारत में साल-दर-साल अपूरणीय प्राकृतिक हरित आवरण का इतना बड़ा नुकसान हो रहा है।

MoEFCC की वेबसाइट कहती है कि जुलाई 2022 में अब तक गैर-वन परियोजनाओं के लिए वन मंजूरी हेतु 7821 आवेदन स्वीकार किए गए हैं और अन्य 8430 अभी भी संसाधित (process) किए जा रहे हैं। अब भारत माता की गोद से और कितने करोड़ पेड़ छीने जाएंगे?

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वन आवरण का क्षरण

भारत का वन आवरण खतरनाक रूप से नष्ट हो रहा है। इस वर्ष जनवरी में पर्यावरण मंत्री श्री भूपेंद्र यादव द्वारा जारी राज्य वन रिपोर्ट के अनुसार 2019 और 2021 के बीच प्राकृतिक वनों में भारत ने 1600 वर्ग किमी खो दिया। यह ज्यादातर लकड़ी माफिया द्वारा पेड़ों की कटाई और वन भूमि को गैर-वन गतिविधियों में बदलने के कारण है। इन दोनों प्रवृत्तियों को रोकने के बजाय, नए नियम केवल दोनों को प्रोत्साहित करेंगे।

राष्ट्रीय वन नीति 1988 के अनुसार, भारत ने अपने कुल भौगोलिक क्षेत्र का 33% वन कवर के तहत रखने की परिकल्पना की थी। अब, 33 वर्षों के बीतने के बाद, 2021 में भारत का केवल 21.71% वन आच्छादित है। वन (संरक्षण) नियम 2022 इस लक्ष्य को प्राप्त करने में और देरी कर सकता है या वन क्षेत्र को समग्र रूप से और भी नीचे ला सकता है।

जलवायु लक्ष्यों के विपरीत

Cop21 जलवायु समागम में, भारत ने 2.5 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने की क्षमतानुसार वन क्षेत्र को बढ़ाने का लक्ष्य घोषित किया। यह 70 वर्षों में कार्बन तटस्थता (यानी नेट शून्य कार्बन उत्सर्जन) प्राप्त करने के वृहद् लक्ष्य का हिस्सा है। वन (संरक्षण) नियम 2022 इन लक्ष्यों की प्राप्ति को और अधिक कठिन बना देगा।

इंटर-गवर्नमेंट पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि 2013 में वनों की कटाई की वजह से 10% अतिरिक्त कार्बन उत्सर्जन हुआ था। दूसरे शब्दों में, यदि वनों की कटाई नहीं होती है, तो कार्बन उत्सर्जन स्तर को 10% तक कम किया जा सकता है क्योंकि इतना कार्बन हरित आवरण द्वारा निष्प्रभावी किया जा सकता है। इस प्रकार 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 45% की कमी के भारत के लक्ष्य का लगभग एक-चौथाई हिस्सा पूरा किया जा सकता है। लेकिन किसी भी कीमत पर देश के विकास को पुनर्जीवित करने की अपनी हताशा भरी सोच में, भारत अपने पर्यावरण और जलवायु संबंधी चिंताओं से समझौता करता नज़र आ रहा है।

संयुक्त राष्ट्र की पहल के हिस्से के रूप में, 2014 में वनों पर न्यूयॉर्क घोषणा (New York Declaration on Forests) ने 2020 तक वनों की कटाई को आधा करने का लक्ष्य निर्धारित किया, और फिर से इस लक्ष्य को, 2021 में, वनों पर ग्लासगो घोषणा में दोहराया गया। हालांकि भारत वन संपदा में शीर्ष दस देशों में शामिल है और हालांकि वह गंभीर वनोन्मूलन का सामना कर रहा है, इसने इन घोषणाओं पर हस्ताक्षर नहीं किए।

क्योटो प्रोटोकॉल ने अपने अनुच्छेद 3.3 और 3.4 में वातावरण से ग्रीनहाउस गैसों को अवशोषित करने के लिए वनीकरण (afforestation) को "सिंक" (”sink”) के रूप में प्रस्तावित किया। लेकिन भारत ने 40 देशों द्वारा हस्ताक्षरित इस प्रोटोकॉल पर भी हस्ताक्षर नहीं किए। एक एकड़ वन एक वर्ष में 2 टन कार्बन डाइऑक्साइड का प्रच्छादन करता है। पेरिस डील द्वारा भी यही प्रस्ताव दोहराया गया था और भारत इसके लिए एक हस्ताक्षरकर्ता था। जबकि सुश्री निर्मला सीतारमण गर्व से घोषणा कर रही थीं कि भारत पेरिस के लक्ष्यों को हासिल करने की राह पर है, फिर कैसे MoEFCC ऐसे नियमों को अधिसूचित कर रहा है जो रास्ते में रोड़ा बन जाएंगे।

जैव विविधता को नुकसान पहुंचाता है

जीवन विज्ञान ने स्थापित किया है कि जैव विविधता पारिस्थितिक रूप से सतत विकास, खाद्य सुरक्षा, जलवायु और सामान्य रूप से लोगों की भलाई के लिए केंद्रीय प्रश्न है। जैव विविधता संपदा का 80% हिस्सा वनों का ही है। विशेष रूप से, उष्णकटिबंधीय (tropical) वन जैव विविधता में समृद्ध हैं। हिमालयी क्षेत्र और पश्चिमी घाट भारत में प्रमुख जैव विविधता हॉटस्पॉट हैं। वन (संरक्षण) नियम 2022 सौराष्ट्र या राजस्थान के अवक्रमित (degraded) जंगलों और पश्चिमी घाट या भारतीय पूर्वोत्तर में प्राचीन उष्णकटिबंधीय जंगलों के बीच फ़र्क नहीं करता है। यह सभी क्षेत्रों में 1000 हेक्टेयर तक के वनों को डायवर्ट का प्रावधान करता है। वनों के अंधाधुंध विनाश, जैसे, साइलेंट वैली के संरक्षित वन, जैव विविधता को अपूरणीय क्षति पहुंचा सकते हैं । यह अन्यथा एक आपराधिक कृत्य माना जाना चाहिए, लेकिन यहां राज्य स्वयं कानूनी नियमों के माध्यम से इस पर्यावरणीय अपराध को अंजाम देने वाला बन रहा है।

स्थानीय जल विज्ञान चक्र (local hydrological cycle) को बाधित करता है

बाढ़ को नियंत्रित करने में वन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे स्थानीय वर्षा के स्तर को बढ़ाने में भी मदद करते हैं और इसलिए स्थानीय आबादी की पानी की आवश्यकता को पूरा करते हैं। यदि वनों को साफ कर दिया जाए, तो यह भूजल स्तर को कम कर देगा और जल विज्ञान चक्र को बाधित कर देगा। साथ ही, यह कभी-कभी आकस्मिक बाढ़ (flash floods) का कारण भी बन सकता है।

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आपदाओं का कारण

वनों की कटाई से पर्वतीय क्षेत्रों में भारी भूस्खलन हो सकता है। हम पहले से ही भूस्खलन की परिघटना देख रहे हैं, जिससे पूर्वोत्तर, उत्तराखंड, केरल और देश के अन्य पहाड़ी क्षेत्रों में जान-माल का भारी नुकसान हुआ। जिन लोगों ने इन वन (संरक्षण) नियम 2022 का मसौदा तैयार किया है, उन्हें इस प्राकृतिक आपदा के परिणाम की तनिक भी परवाह नहीं है।

वनोन्मूलन वायु प्रदूषण को तेज करती है

वन वायु से कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण करने के अलावा वायुमंडल में जलवाष्प भी छोड़ते हैं, जिसका शीतलन (cooling) प्रभाव पड़ता है। वन धूल भरी आंधी और गर्मी की लहरों को भी नियंत्रित करते हैं। वनों की कटाई की स्वास्थ्य लागत (health cost) भयानक रूप से विनाशकारी है। यह वन भूमि को उद्योग या खनन जैसी गैर-वन परियोजनाओं में बदलने से जो आर्थिक लाभ होने वाला है, उससे से कई गुना अधिक हो सकता है।

पशु धन और वन्य जीवन को नुकसान

एक हेक्टेयर जंगल कुछ दुर्लभ प्रजातियों सहित वनस्पतियों की 2000 प्रजातियों तक का आश्रय हो सकता है। और वन भारत के वन्यजीव संपदा के घर हैं। वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम में वन्यजीवों को नुकसान पहुंचाने के लिए 7 साल की कठोर सजा का प्रावधान है। लेकिन यहां सरकार खुद ही कानून के तहत नियमों की एक श्रृंखला ला रही है जो वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 का माखौल बनाएगी।

आदिवासियों पर हमला

आदिवासी शोधकर्ता वाल्टर फर्नांडीस द्वारा केस-बाय-केस अध्ययन के अनुसार भारत में विकास परियोजनाओं ने 85.39 आदिवासियों को विस्थापित कर दिया था। फादर स्टैन स्वामी, जिन्होंने अपना पूरा जीवन आदिवासियों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया था, और जिन्हें भारतीय राज्य द्वारा क्रूरता से हिरासत में मरने पर मजबूर किया गया, ने वाल्टर फर्नांडीस को समर्थन दिया था। ये नियम आदिवासियों को उनके वन आवासों से विस्थापित करने की प्रक्रिया को बढ़ावा  देंगे, यह जगजाहिर है।

पेड़ों की कटाई को अपराध से मुक्त करना

ऐसे जनविरोधी और पर्यावरण विरोधी नियम बनाने के अलावा, वनों में पेड़ों की कटाई को अपराध से मुक्त करने के लिए MoEFCC के पास एक प्रस्ताव भी है। रिपोर्टों के अनुसार मंत्रालय द्वारा इस आशय के लिए तैयार किए गए एक नोट में कहा गया है कि पेड़ों की कटाई या गिरे हुए पेड़ों को खींच कर ले जाना जैसे "मामूली उल्लंघन" के लिए भारतीय वन अधिनियम में निर्धारित छह महीने के कारावास और जुर्माने के बजाय केवल 500 रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा। वे इस आशय से भारतीय वन अधिनियम में संशोधन करने की योजना बना रहे हैं। और यह सब वन समुदायों की सेवा के नाम पर हो रहा है! वनों के विनाश के लिए आदिवासी और अन्य वन समुदाय जिम्मेदार नहीं हैं। बल्कि, वे लकड़ी माफिया के संगठित गिरोह हैं जो सत्ताधारी पार्टियों के राजनीतिक संरक्षण का आनंद ले रहे हैं और जंगलों को नष्ट कर रहे हैं।

प्रकृति के साथ सामंजस्य और पर्यावरण को बचाना एक बढ़ता ग्लोबल ट्रेंड है। हालाँकि, पारिस्थितिकी के संरक्षण पर विचार करने के लिए सत्ता में बैठे लोगों में कुछ मिजाज़ और संस्कृति संबंधी परिष्कार की आवश्यकता होती है। अफसोस की बात है कि सत्ता में रहने के आठ साल बाद भी, वर्तमान शासकों में परिपक्वता का भारी अभाव दिखता है। यही कारण है कि ऐसे नियम बनाए जाते हैं!

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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