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कच्चे तेल की क़ीमतों में बढ़ोतरी से कहां तक गिरेगा रुपया ?

जब डॉलर रुपए से अधिक मज़बूत होता है तब 1 डॉलर के लिए पहले से ज़्यादा रुपये देना पड़ता है तो इसका असर उन पर भी पड़ता है जिन्होंने अपनी ज़िंदगी में कभी डॉलर में लेन-देन नहीं किया होता है।
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पैसे के दम पर लड़ा गया पांच राज्यों का चुनाव ख़त्म हो चुका है। पैसे का हाल यह है कि पैसा अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुका है। खबर लिखने तक एक डॉलर के मुकाबले भारत का रुपया गिरकर 76.97 रुपए तक पहुंच चुका है। जानकारों का कहना है कि जब तक रूस और यूक्रेन लड़ाई चलती रहेगी और डॉलर के मुकाबले रुपया वैसे ही गिरता रहेगा। जब लड़ाई खत्म हो जाएगी उसके बाद भी रुपया लंबे समय तक गिरेगा। यह तब तक गिरता रहेगा जब तक दुनिया की टूटी हुई माल सप्लाई फिर से मुकम्मल नहीं हो जाती। रही बात रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया की तो वह रुपया का गिरना नहीं रोक पाएगी क्योंकि आरबीआई को पता है कि आने वाले दिनों में कच्चे तेल की कीमतों के साथ स्टील सहित कई सामानों की कीमत बढ़ने वाली है। कीमतों में होने वाली इस बढ़ोतरी को ध्यान में रखकर बाजार के लोग सामान इकट्ठा करने की कोशिश में लगे होंगे। और अगर आरबीआई डॉलर के मुकाबले रुपया का विनिमय दर नियंत्रित करती है तो विदेशी मुद्रा भंडार से डॉलर बाहर निकलेगा। विदेशी मुद्रा भंडार में बहुत अधिक कमी के हालात से आरबीआई बचना चाहती है।

अब रुपए के गिरावट का सारा तार रुस और यूक्रेन की लड़ाई की वजह से टूट रहे माल सप्लाई से जुड़ा है। इसमें सबसे बड़ा कारण कच्चे तेल की बढ़ती हुई कीमत है। आकार के लिहाज से रूस दुनिया का सबसे बड़ा देश है। भारत के आकार से पांच गुना बड़ा है। अमेरिका और चीन से दो गुना बड़ा है। इंग्लैंड से 70 गुना बड़ा है। लेकिन रूस की आबादी पाकिस्तान की आबादी के आसपास महज 14 करोड़ है। इतनी कम आबादी और इतना बड़ा आकर वाला रूस दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक और तीसरा सबसे बड़ा प्राकृतिक गैस उत्पादक देश है। यह बताता है कि रूस तेल और प्राकृतिक गैस का बहुत कम घरेलू इस्तेमाल और बहुत अधिक निर्यात करता है। रूस से हर रोज तकरीबन 50 लाख बैरल तेल का निर्यात होता है। इसमें से 48% खरीद यूरोप की होती है। तो तकरीबन 42% खरीद एशिया की होती है। रूस और यूक्रेन की लड़ाई का असर यह हुआ है कि जब से लड़ाई शुरू हुई है तब से कच्चे तेल की कीमत में 40 फीसदी का इजाफा हुआ है। कच्चे तेल की कीमत बढ़कर 140 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गयी है। भारत अपने जरूरतों का तकरीबन 84 फीसदी कच्चा तेल आयात करता है।

कच्चे तेल की कीमतों में इजाफा की वजह से डॉलर की मांग बढ़ेगी। यानी सरकार को एक बैरल कच्चे तेल के लिए पहले के मुक़ाबले ज्यादा पैसा देना पड़ेगा। डॉलर लेने के लिए रुपया की मारमारी बढ़ेगी। आर्थिक जानकार भी यही बात कहते हैं कि रुपया डॉलर के मुकाबले गिरता क्यों है? इसके कई कारण है? लेकिन एक कारण जो साफ-साफ सामने दिखता है, वह यह है कि जब रुपया रखने वालों के पास डॉलर खरीदने के लिए मारामारी बढ़ जाती है, तो डॉलर की रुपए के मुकाबले कीमत बढ़ जाती है। सामान्य अर्थशास्त्र की भाषा में कहें तो जब डॉलर की सप्लाई कम और डिमांड ज्यादा होती है, तो डॉलर की कीमत बढ़ जाती है। रूस से आयात पर प्रतिबंध लगने के बाद तो कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस की सप्लाई कम हो जाएगी लेकिन डिमांड जस की तस बनी रहेगी। यानी प्रति बैरल कीमतों में इजाफा लंबे समय तक चलता रहेगा। भारत की पहले से बर्बाद अर्थव्यवस्था से बन रहे रुपए की कीमत आगे और भी कमजोर होती रहेगी।

जब देश के बाहर से तेल महंगा आएगा तब तेल की कीमतें बढ़ेंगी। चुनाव खत्म हो चुका है। तो आज नहीं तो कल तेल की कीमतें बढ़ेंगी ही बढ़ेंगी। पहले से ही भारत में महंगाई बढ़ने का कारण पेट्रोल और डीजल है। अब इनकी कीमतें और अधिक बढ़ेंगी। पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ने की वजह से मशीन से लेकर यातायात और परिवहन सब कुछ महंगा होगा। यह सब महंगा होने का मतलब है की रोजमर्रा के कई सामान और सेवाएं महंगी होंगी। यानी कच्चे तेल की बढ़ी हुई कीमत रुपया की कमजोरी से लेकर आम आदमी के लिए महंगाई का कहर बनकर आ रही है।

भारत की अर्थव्यवस्था चालू खाता घाटे वाली व्यवस्था है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था से कमजोर अर्थव्यवस्था है। भारत में आयात, निर्यात से अधिक होता है। यानी भारत से कॉफी, मसाले जैसे सामान और तकनीकी सेवाओं का जितना निर्यात होता है, उससे कई गुना अधिक आयात होता है। भारत में विदेशी व्यापार हमेशा नकारात्मक रहता है। कच्चे तेल की कीमत बढ़ने वजह से यह और अधिक नकरात्मक होगा। एक डॉलर के मुकाबले रुपया और अधिक गिरेगा।

रुपया कमजोर होने की वजह से कम मुनाफे की उम्मीद कर विदेशी निवेशक लगातार भारतीय बजार से अपना निवेश किया हुआ पैसा बाहर निकाल रहे हैं। केवल मार्च में फॉरेन पोर्टफोलियो इन्वेस्टमेंट स्टॉक मार्केट से अब तक तकरीबन 14721 करोड़ रुपया बाहर निकाल चुके हैं। आगे और भी विदेशी निवेश की बिकवाली होगी। इसलिए डॉलर और रुपए का अंतर और अधिक बढ़ेगा।

खाने के तेल का भी बड़ा हिस्सा विदेशों से मंगवाया जाता है। फर्टिलाइजर में इस्तेमाल होने वाले रसायन भी विदेशों से आते हैं। इसलिए डॉलर के मुकाबले रुपए में गिरावट की मार उन किसानों पर भी पड़ेगी जिन किसानों के लिए डॉलर किसी सपने के सरीखे है। यही हाल इलेक्ट्रॉनिक सामानों के साथ भी होने वाला है। कोरोना और ओमिक्रॉन की वजह से पहले से ही दुनिया में सामानों का उत्पादन कम हो रहा है। सप्लाई साइड की कमी दुनिया के बाजार को महंगा करेगी। ऐसे में भारत की सरकार और व्यापारियों को विदेशी बाजार से सामान और सेवा लेने के लिए ज्यादा पैसा देना पड़ेगा।

कुल मिलाकर बात यह है कि जब डॉलर रुपए से अधिक मजबूत होता है तब 1 डॉलर के लिए पहले से ज्यादा रुपये देना पड़ता है तो इसका असर उन पर भी पड़ता है जिन्होंने अपनी जिंदगी में कभी डॉलर में लेन-देन नहीं किया होता है। अपने ही देश में वह सारे सामान और सेवा उपलब्ध नहीं हो पाते जिनकी जरूरत जिंदगी को चलाने के लिए जरूरी है। इसके लिए दूसरे देशों पर भी आश्रित होना पड़ता है। दूसरे देश डॉलर में व्यापार करते हैं। डॉलर का महंगा होने का मतलब है फैक्ट्रियों में उत्पादन का महंगा होना। कामकाज की लागत का बढ़ना। लागत के बढ़ने का मतलब महंगाई का होना। लोगों की आमदनी का कम होना और रोजगार की स्थिति पैदा ना होना।

 

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