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सहभागिता का लोकतंत्र

सरकार की नीतियों अथवा कामों के प्रति नाराज़गी का कारण यह है कि दो चुनावों के बीच के समय में जनता के पास शासन-प्रशासन को प्रभावित करने का कोई ज़रिया नहीं है।
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Image Courtesy : Indian Express

चालू वर्ष समाप्त होने से पहले तीन राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में विधानसभा चुनाव होंगे। राजस्थान के बारे में कहा जाता है कि वहां सरकारें दोबारा चुनाव नहीं जीततीं और विपक्षी दल सत्ता में आ जाता है। कहा जाता है कि एंटी-इनकंबेंसी फैक्टर के कारण ऐसा होता हैI क्या आपने कभी सोचा है कि एंटी-इंनकंबेंसी फैक्टर यानी सत्तासीन दल से जनता की नाराज़गी होती ही क्यों है? साधारण सी बात है कि जनता की आशाओं के अनुरूप काम न करने या वायदे पूरे न करने के कारण लोग सरकार से ऊब जाते हैं और उसके खिलाफ वोट देते हैं। मैं इस बात को दोहराना चाहूंगा कि चुनाव में मतदाता सरकार के खिलाफ वोट देते हैं, यानी, हम असल में विपक्ष को वोट देने के बजाए सरकार की नीतियों के प्रति अपनी नाराज़गी जाहिर करते हैं। थोड़ा और गहराई में जाएंगे तो समझ आएगा कि सरकार की नीतियों अथवा कामों के प्रति नाराज़गी का कारण यह है कि दो चुनावों के बीच के समय में जनता के पास शासन-प्रशासन को प्रभावित करने का कोई ज़रिया नहीं है।

मतदान हुआ, परिणाम आया, कोई एक दल या गठबंधन विजयी हुआ, उसका नेता मुख्यमंत्री बन गया, मंत्रिमंडल का गठन हुआ और काम शुरू हो गया। यहां से सारी गड़बड़ शुरू हो जाती है। सुविधापूर्ण जीवन जी रहे मंत्रिगण और नौकरशाह जनता की आवश्यकताएं, इच्छाएं, आकांक्षाएं समझ नहीं पाते या उनकी उपेक्षा कर देते हैं और ऐसे नियम-कायदे बना देते हैं जो जनहितकारी नहीं होते। जनता के पास उन नियम-कायदों के बारे में अपनी राय देकर सरकार को प्रभावित करने का कोई ज़रिया नहीं होता। लोग अजि़र्यां लिखते हैं, विरोध करते हैं, प्रदर्शन और हड़ताल करते हैं और जब फिर भी सरकार नहीं सुनती तो थक कर चुप हो जाते हैं, पर इससे गुस्सा दूर नहीं होता, वह अंदर ही अंदर बढ़ता रहता है और पांच साल के बाद जब मौका आता है तो वह गुस्सा फूट कर बाहर निकलता है और सत्तासीन दल को बाहर का रास्ता दिखा देता है।

भारतीय लोकतंत्र के दो और पहलुओं को समझना आवश्यक है। पहला यह कि कानून सिर्फ सरकार बनाती है और दूसरा यह कि सरकार असल में हमारी प्रतिनिधि है ही नहीं। आइये, इस पर नज़रसानी करें।

विधानसभा के लिए चुने गए जनप्रतिनिधियों को विधायक कहा जाता है, यानी जो विधि अथवा कानून बनाए। कानून बनाना तो दूर, हमारे अधिकतर जनप्रतिनिधि कानून समझने की योग्यता भी नहीं रखते। लेकिन यह छोटी बात है, इससे भी बड़ी बात यह है कि कानून समझने या बनाने की योग्यता होने के बावजूद भी विधायकों का एक बड़ा भाग कानून बनाने की प्रक्रिया में कोई रचनात्मक भूमिका नहीं निभाता। इसका कारण यह है कि सत्तासीन दल, सत्ता में इसीलिए आ पाता है क्योंकि उसके पास बहुमत होता है। बहुमत होने के कारण विधानसभा में वही बिल कानून बन पाता है जिसे सरकार का समर्थन प्राप्त हो। विपक्ष द्वारा पेश किये गए बिलों को कुचल दिया जाता है। कानून बनाने में विपक्ष की भूमिका सिर्फ आलोचना करने तक सीमित है, वह न कोई कानून बनवा सकता है और न रुकवा सकता है। इससे विपक्ष की भूमिका एकदम अप्रासंगिक हो जाती है। इससे भी ज़्यादा बुरी बात यह है कि हाईकमान के डर से सत्तासीन दल के सदस्य सरकारी बिलों का विरोध नहीं करते चाहे वे उनसे सहमत हों या नहीं, यानी कानून बनाने की प्रक्रिया में सत्तासीन दल के विधायकों की भूमिका भी नगण्य है। परिणाम यह है कि कानून विधायक नहीं बनाते, कानून सिर्फ सरकार बनाती है जिसका जनता से कोई संपर्क हो या न हो, यह आवश्यक नहीं होता।

हमारे देश में अक्सर 60-70 प्रतिशत मतदान होता है, यानी चुनी गई सरकार को 30 प्रतिशत जनता ने वोट नहीं दिया। जिन लोगों ने मतदान किया उनमें से भी बहुत से लोग विपक्षी अथवा स्वतंत्र उम्मीदवारों को वोट देते हैं। विजयी उम्मीदवार सिर्फ इसलिए चुन लिया जाता है क्योंकि उसे सबसे ज़्यादा वोट मिले। कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि कोई उम्मीदवार सिर्फ एक वोट के अंतर से जीता। यानी, जिन लोगों ने विजयी उम्मीदवार के खिलाफ वोट दिया, उनके वोट बेकार चले गए क्योंकि उनके मनपसंद का उम्मीदवार विधायक नहीं बन पाया। इसे  "फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट" का नियम कहा जाता है। इस प्रकार सिर्फ एक वोट ज़्यादा पाने वाला व्यक्ति सभी शक्तियों का स्वामी बन जाता है और हारा हुआ उम्मीदवार एकदम अप्रासंगिक हो जाता है। परिणाम यह है कि चुनाव जीतना ही सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है इसलिए उम्मीदवार जीत सुनिश्चित करने के लिए हर तरह के जायज़ और नाजायज़ तरीके अपनाते हैं। इसके विपरीत "प्रपोर्शनल रिप्रेज़ेंटेशन" यानी आनुपातिक प्रतिनिधित्व के सिस्टम में विभिन्न दलों को उनके वोट प्रतिशत के हिसाब से सीटें दी जाती हैं और उनकी सूची के वरीयता क्रम के अनुसार उम्मीदवारों को सदन में जगह मिलती है। यानी, अगर सदन में कुल 100 सीटें हों और भाजपा को सारे प्रदेश में 34 प्रतिशत मत मिलें तो विधानसभा में उसके 34 सदस्य होंगे। यही नियम चुनाव लड़ रहे शेष दलों पर भी लागू होगा।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि सन् 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को 31.3 प्रतिशत मत मिले थे और उसके 282 उम्मीदवार विजयी रहे थे। जबकि यदि आनुपातिक प्रतिनिधित्व का नियम लागू होता तो उसके केवल 169 उम्मीदवार ही सांसद हो पाते। कांग्रेस को 19.5 प्रतिशत मत मिले थे और उसके 44 उम्मीदवार विजयी रहे थे जबकि आनुपातिक प्रतिनिधित्व के नियम के अनुसार उसके 105 उम्मीदवार सांसद बन जाते। तेलुगु देशम पार्टी को 2.5 प्रतिशत मत मिले और उसके 16 उम्मीदवार विजयी रहे जबकि बहुजन समाजवादी पार्टी को 4.3 प्रतिशत मत मिले लेकिन लोकसभा में उसका खाता भी नहीं खुल पाया।

इन सब कमियों का मिला-जुला असर यह है कि केवल कुछ वोट अधिक लेकर भी सत्तासीन दल को अधिक सीटें मिल जाती हैं चाहे उसका वोट प्रतिशत उतना अधिक न रहा हो। कानून बनाने में विपक्ष की भूमिका तो होती ही नहीं, सत्तासीन दल के उन सदस्यों की भी कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं होती जो सरकार में शामिल नहीं हैं, यानी मंत्री नहीं हैं। यहां तक कि एक शक्तिशाली प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल की भी उपेक्षा करके सिर्फ अपनी मर्ज़ी के कानून बनवाता रह सकता है। इस प्रकार प्रधानमंत्री और उसके विश्वस्त दो-तीन साथियों का छोटा सा गुट ही देश का पूरा शासन संभालता है। इतने छोटे गुट के लिए सभी राज्यों के सभी वर्गों के लोगों की आकांक्षाओं को समझ पाना और उसके अनुरूप नियम-कानून बना पाना संभव नहीं है। एंटी-इनकंबेंसी का कारण केंद्र में भी यही है और राज्य में भी यही है। यदि हम चाहते हैं कि सरकारें ठीक से काम करें तो हमें सहभागितापूर्ण लोकतंत्र की अवधारणा को स्वीकार करना होगा जिसमें न केवल विपक्ष को प्राप्त मतों के अनुसार आनुपातिक प्रतिनिधित्व मिले बल्कि प्रशासनिक निर्णयों में जनता की सहभागिता के भी पर्याप्त अवसर हों। उसके लिए संविधान में जो भी संशोधन आवश्यक हों, किये जाएं ताकि हमारा लोकतंत्र मजबूत होकर सचमुच जनता की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व कर सके। 

डिस्क्लेमर: यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं और अनिवार्य नहीं कि यह न्यूज़क्लिक के विचारों का प्रतिनिधित्व करते होंI

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