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भारत
राजनीति
सीजेआई यौन उत्पीड़न मामला : दूसरे पक्ष के सुने बिना कैसे होगा इंसाफ?
जस्टिस गोगोई ने एक मामले में खुद फैसला सुनाते हुए कहा था कि कोई भी खुद अपने मामले में जज की भूमिका में नहीं आ सकता और बिना दूसरे पक्ष को सुने न्याय नहीं सुनाया जा सकता।
अजय कुमार
23 Apr 2019
cji
image courtesy- the print

चुनावों के बीच अचानक से भारत के मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न का गंभीर आरोप लगा। न्याय के आधारभूत सिद्धांत के तहत मुख्य नयायधीश को इस मामले की सुनवाई की प्रक्रिया से बाहर होना चाहिए था ताकि यह न कहा जाए कि आरोपी खुद जज थे तो न्याय कैसे मिलता! लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई की अगुवाई में तीन जजों की बेंच इस मसले पर सुनवाई के लिए बैठी। मुख्य न्यायधीश ने कहा, “आरोप भरोसे के लायक नहीं हैं। यह अविश्वनीय है। मुझे नहीं लगता कि इन आरोपों का खंडन करने के लिए मुझे इतना नीचे उतरना चाहिए। जज के तौर पर 20 साल की निस्वार्थ सेवा के बाद मेरा बैंक बैलेंस 6.80 लाख रुपये है।  कोई मुझे पैसों के मामले में नहीं पकड़ सकता, लोग कुछ ढूंढना चाहते हैं और उन्हें यह मिला। इसके पीछे कोई बड़ी ताकत होगी, वे सीजेआई के कार्यालय को निष्क्रिय करना चाहते हैं लेकिन मैं इस कुर्सी पर बैठूंगा और बिना किसी भय के न्यायपालिका से जुड़े अपने कर्तव्य पूरे करता रहूंगा।”सीजेआई ने कहा, “महिला द्वारा लगाए गए सभी आरोप दुर्भावनापूर्ण और निराधार हैं।” उन्होंने कहा, “इसमें कोई शक नहीं है कि ये दुर्भावनापूर्ण आरोप हैं और न्यायपालिका की स्वतंत्रता ‘बेहद खतरे’ में है।”

अदालत ने साथ ही कहा कि वह इस बात को मीडिया के विवेक पर छोड़ती है कि सीजेआई के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोपों के संबंध में ज़िम्मेदार ढंग से पेश आना है।  

 इस तरह से यह साफ़ है कि इस मसले पर आरोपी ने ही फैसला सुना दिया। ध्यान से देखा जाए तो फैसला भी नहीं सुनाया बल्कि ऐसी बातें कहीं जिसका व्यक्ति की निजी प्रतिष्ठा से तो सम्बन्ध है लेकिन न्याय से नहीं। दिल्ली हाई कोर्ट के भूतपूर्व  जस्टिस ढींगरा इस पर कहते हैं कि इस मामलें में चूँकि मुख्य न्यायधीश खुद आरोपी थे। इसलिए उन्हें इस मामलें की सुनवाई में शामिल नहीं होना  चाहिए था। उन्हें सुप्रीम कोर्ट के सारे जजों के सामने यह मामला सौंपना चाहिए था और कहना चाहिए था कि चूँकि वह मामले में खुद आरोपी हैं इसलिए इस मामले से अलग हटते हैं,आप लोग एक कमेटी बनाकर इसकी जांच करें। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने ऐसा नही किया। उन्होंने बिना दूसरे पक्ष को सुनें 'अटैक ऑन  जुडिशरी' कहते हुए  अपना फैसला सुना दिया। यह गलत था। 

न्याय का आधारभूत  सिद्धांत होता है कि आरोपी  को तब तक दोषी नहीं माना जाएगा, जब तक उस पर आरोप सिद्ध न हो जाए। मामले से जुड़े हर पक्ष की सुनवाई होगी। और मामले से जुड़ा कोई भी पक्ष ऐसी भूमिका में नहीं होगा, जिससे न्याय मिलने के बाद भी लगे कि न्याय नहीं हुआ है। जैसे कि  इस मामले में हुआ है। 

न्याय की गलियारों में यह कहा जाता है कि यौन उत्पीड़न के मामलें को गंभीरता से लिया जाएगा।  लेकिन बहुत सारे लोग ऐसा भी कहते है कि कोई भी कुछ भी कह सकता है इसलिए यह भी जरूरी है कि यह देखा जाए कि प्रथम दृष्टया (prima facia ) आरोपों में दम है कि नहीं। इसलिए यह भी जरूरी है कि महिला के मामले को समझा जाए।  

स्क्रॉल वेबसाइट पर महिला का आरोप पत्र छपा है।  सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश के लिए जूनियर कोर्ट असिस्टेंट की तौर पर काम करने वाली 35 साल की महिला ने 19 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट के22 जजों को पत्रों लिखा। पत्र में आरोप लगाया कि भारत के मुख्य न्यायधीश रंजन गोगई ने अपने आवासीय कार्यालय पर दिनांक 10 और 11 अप्रैल 2018 को  उसके साथ यौन शोषण किया। 

 इस आरोप पर कई मीडिया घरानों ने सुप्रीम कोर्ट को ई मेल लिखकर जवाब माँगा। इसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी जनरल ने ईमेल लिखकर जवाब दिया कि यह सारे आरोप फर्जी है। बहुत संभव है कि इसके पीछे कोई शातिर ताकतें हों, जिनका उद्देश्य संस्था को बदनाम करना हो।

यहां समझने वाली बात है कि यह बहुत गलत प्रक्रिया है, सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी जनरल को जवाब नहीं देना चाहिए था।  ऐसा इसलिए क्योंकि आरोप सुप्रीम कोर्ट के एक जज पर लगा था और सेक्रेटरी जनरल केवल एक चीफ जस्टिस से जुड़ा पद नहीं है बल्कि यह पद सुप्रीम कोर्ट के सारे जजों से जुड़ा पद है।  इसलिए इस तरह का जवाब देने का हक़ सुप्रीम कोर्ट के सक्रेटरी जनरल  का नहीं बनता है। 

पत्र में महिला ने आगे  लिखा है '' उन्होंने मुझे दोनों तरफ से कमर पकड़कर गले लगाया, अपने हाथों से मेरे पूरे शरीर को छुआ, अपने शरीर को मेरे शरीर की तरफ दबाया और मुझे जाने नहीं दिया। मैंने अपने शरीर को उसकी जकड़ से बाहर निकालने की पूरी कोशिश की।''

जजों को लिखे अपने एफिडेविट यानी शपथ पत्र में महिला ने उल्लेख किया कि भारत के मुख्य न्यायाधीश को फटकार लगाने के बाद, उसने निवास स्थान का कार्यालय छोड़ दिया, जहां वह अगस्त2018 में तैनात हुई थी। इसके दो महीने बाद, 21 दिसंबर को, उसे सेवा से बर्खास्त कर दिया गया। बर्खास्तगी के तीन आधारों में से एक यह था कि उसने बिना मंजूरी के एक दिन के लिए अचानक अवकाश ले लिया था।

एफिडेविट में पूर्व जूनियर असिस्टेंट ने आरोप लगाया कि उसका उत्पीड़न बर्खास्तगी पर जाकर ही नहीं रुका। उसने आरोप लगाया कि इसने उसके परिवार को निगल लिया। उसके पति और देवर, जो दोनों दिल्ली पुलिस में हेड कांस्टेबल हैं, को 28 दिसंबर, 2018 को एक आपराधिक मामले के लिए निलंबित कर दिया गया। जबकि यह मामला बहुत पुराना साल 2012 के कॉलोनी के एक विवाद से जुड़ा था, जिसे आपसी सहमति से निपटा लिया गया था।  

महिला ने एफिडेविट में लिखा कि 11 जनवरी को एक पुलिस अधिकारी महिला को चीफ जस्टिस के आवास पर ले गया। यहां पर न्यायमूर्ति गोगोई की पत्नी ने उसे फर्श पर लिटाकर और उसके पैरों पर अपनी नाक रगड़कर माफी मांगने को कहा। उसने निर्देशों का पालन किया, लेकिन इस समय वह नहीं जानती थी कि उसे किस बात की माफ़ी के लिए कहा जा रहा है।

उनके पति का एक और भाई, जो अन्यथा अक्षम हैं, को 9 अक्टूबर 2018 को सीजेआई ने अपने विशेषाधिकार से सुप्रीम कोर्ट में नौकरी दिलवाई थी, उन्हें भी जनवरी 2019 में नौकरी से निकाल दिया गया। इसके लिए कोई वजह नहीं दी गयी।

एफिडेविट में लिखा है कि इसके बाद 9 मार्च 2019 को जब वह (पीड़िता) राजस्थान में अपने पति के गांव में थीं, तब दिल्ली पुलिस धोखाधड़ी के एक मामले में पूछताछ करने के लिए उसे लेने पहुंची। उस पर आरोप था कि उसने 2017 में शिकायतकर्ता से सुप्रीम कोर्ट में नौकरी दिलाने के एवज में 50 हज़ार रुपये की रिश्वत ली थी, लेकिन नौकरी नहीं मिली।

महिला ने एफिडेविट में बताया है कि अगले दिन न केवल उन्हें और इनके पति को, बल्कि उनके पति के भाई, उनकी पत्नी और एक अन्य पुरुष रिश्तेदार को तिलक मार्ग थाने में हिरासत में लिया गया। उन्होंने आरोप लगाया है कि थाने में न केवल उनके साथ गाली-गलौज और मारपीट हुई, बल्कि उनके हाथ और पैरों में हथकड़ी लगाई गई और लगभग 24 घंटों तक भूखा-प्यासा रखा गया। इसके बाद महिला को एक दिन के लिए तिहाड़ जेल भी भेजा गया था।

12 मार्च 2019 को उन्हें ज़मानत मिली। उन्होंने बताया कि हाल ही में इस मामले को क्राइम ब्रांच को सौंपा गया है और उन्होंने पटियाला हाउस कोर्ट में उनकी जमानत ख़ारिज करने की अर्जी दी है। मामले में अगली सुनवाई 24 अप्रैल 2019 को होनी है।

महिला का आरोप है कि रिश्वत के मामले में उनके पति पर भी आरोप तय किए गए हैं, लेकिन इसमें कथित रिश्वत देने वाले शिकायतकर्ता का नाम नहीं है।

महिला द्वारा एक हलफनामे में आपबीती बताने के साथ कई दस्तावेज भी दिए गए हैं। इनमें दिए गए वीडियो फुटेज में दिखता है कि पुलिस थाने में बैठे महिला के पति के हाथ में हथकड़ी लगी है। यह वीडियो रिकॉर्डिंग स्क्रॉल वेबसाइट को सौंपी गयी है। स्क्रॉल वेबसाइट ने लिखा है कि इस वीडियो में तिलक नगर थाने के स्टेशन हॉउस पुलिस अफसर की बातचीत रिकॉर्ड की गयी है। इस वीडियो में  स्टेशन अफसर कह रहे हैं कि उनका शोषण रुक सकता है अगर महिला चीफ जस्टिस की पत्नी से माफ़ी मांग ले। जब स्टेशन अफसर ने पूछा कि मामला क्या है तो पति ने संक्षेप में अपनी पत्नी के साथ हुए उत्पीड़न का जिक्र किया। पत्नी ने रोते हुए जिक्र किया कि सर, मेरा पूरा परिवार परेशान है। मैं खुद को अपराधी की तरह महसूस कर रही हूँ। एक तरफ मैंने कोई अपराध नहीं किया और दूसरी तरफ मुझे बहुत अधिक  प्रताड़ित किया  जा रहा है। तब पुलिस अफसर ने सहानुभूति से कहा कि जब बड़े लोग गलती करते हैं तो क्या वह अपनी गलती  मानते हैं? साथ ही कई आधिकारिक दस्तावेजों की प्रति और फोटोग्राफ भी हैं, जिन्हें शीर्ष अदालत के करीब दो दर्जन जजों के पास भेजा गया है।

महिला के इन आरोप पत्र को पढ़कर प्रथम दृष्ट्या लगता है कि इन आरोपों में गंभीरता है और इस पर सुनवाई की जानी चाहिए।

इतना सारा जानने और समझने के बाद भी केवल इसी आधार पर यह समझने कि भूल नहीं करनी चाहिए कि चीफ जस्टिस दोषी हैं।  लेकिन वे निर्दोष हैं ये भी साबित नहीं होता है। और यह सवाल भी जरूर उठता है कि एक गलत प्रक्रिया अपनाकर फैसला सुनाया गया है। जस्टिस गोगोई ने एक मामले में खुद फैसला सुनाते हुए कहा था कि कोई भी खुद अपने मामले में जज की भूमिका में नहीं आ सकता और बिना दूसरे पक्ष को सुने न्याय नहीं सुनाया जा सकता। यह अफ़सोस की बात है कि जस्टिस गोगोई ने खुद ऐसा नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड के सदस्यों ने भी इस फैसले के लिए अपनाई गई न्यायिक प्रक्रिया की निन्दा की है।

संवैधानिक कानूनों के विशेषज्ञ गौतम भाटिया कहते हैं कि यह यौन उत्पीड़न से जुड़े मसलों की सुनावाई के लिए कैसी प्रक्रिया अपनाई नहीं जानी चाहिए उसका परफेक्ट उदाहरण है। इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट रवैया कंगारू कोर्ट का है, जिसमें आरोपी ही जज की भूमिका में निभा रहे हैं।

कुछ ऐसी बातें भी हो रही हैं कि  चीफ जस्टिस आने वाले दिनों में महत्वपूर्ण फैसले सुनाने वाले हैं इसलिए उन्हें फंसाने की कोशिश की जा रही है। साथ में  सुप्रीम कोर्ट के वकील उत्सव बैंस ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर पोस्ट किया है कि उन्हें चीफ जस्टिस रंजन गोगोई के खिलाफ यौन उत्पीड़न की ऐसी जबरदस्त कहानी गढ़ने का ऑफर आया था, जिससे सीजेआई को इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़े। इसके साथ चाहे जितनी भी बात की जाए, इन सारी बातों से यह साफ नहीं होता कि न्यायाधीश सही हैं या गलत हैं।  किसी भी तरह का षड्यंत्र हो या कुछ भी हो इन सभी से मुक्त तभी हुआ जा सकता है जब यथोचित-प्रक्रिया अपनाकर सुनवाई हो। इसकी पहली शर्त यही है कि चीफ जस्टिस सुनवाई में शामिल नहीं हों और दोनों पक्षों को सुना जाए।

Chief justice of India
CJI Ranjan Gogoi
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