स्मृति शेष : मुशीरुल हसन का जाना...
किस जीवन का किस्सा बनता है? इस सवाल के अनंत जवाब हो सकते हैं, लेकिन मुशीरुल हसन के शब्दों में कहें तो इसका जवाब यह है कि हम जैसे अकादमिक दुनिया के लोग अपने काम से बहुत सारे सवालों और जवाबों का उधेड़-बुन करते हैं। कोई हमारी जवाबों को माने या न माने इससे हमारे जीवन का किस्सा नहीं बनता। बल्कि हमारे जीवन का किस्सा इससे बनता है कि जिन सवालों और जवाबों पर हमने गुफ्तुगू की, वह गुफ्तुगू हमारे इस दुनिया से अलविदा कहने के बाद भी जारी रहे। इसी गुफ्तुगू के बदलौत हम इस दुनिया के हसीन इतिहास का हिस्सा बन जाते हैं और मुझे फख्र है कि मैंने इतिहास के क्षेत्र में ऐसे काम किये हैं, जिस पर आने वाली पीढ़ियां भी गुफ्तुगू करेंगी।
आज इस प्रख्यात इतिहासकार और जामिया मिलिया के पूर्व कुलपति मुशीरुल हसन का 71 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। प्रोफ़ेसर मुशीरुल हक का जन्म 15 अगस्त 1949 में हुआ था। लिखने-पढ़ने का माहौल प्रोफेसर हसन को उनके घर से ही मिला। उनके पिता बड़े इतिहासकार थे। मुशीरुल हसन का शुरूआती जीवन कलकत्ता (कोलकाता) के गलियों में गुजरा और अपनी पढाई के लिए उन्हें अलीगढ़ के माहौल का सहारा मिला। यहाँ अलीगढ के माहौल का जिक्र इसलिए क्योंकि मुशीरुल हक का मानना था कि अलीगढ़ के माहौल ने उनके भीतर इतिहास से लगाव पैदा किया। मुशीरुल कहते थे कि घर का माहौल जरुर इतिहास की तरफ झुका हुआ था लेकिन मेरे जीवन में इतिहास से लगाव अलीगढ़ के माहौल से पैदा होना शुरू हुआ। मुशीरुल कहते हैं कि अलीगढ़ से डिग्री मिलने के बाद हर नौजवान की तरह मेरा जीवन भी संघर्ष के दौर से गुजरा। बहुत अधिक संशय था कि किस शहर की तरफ रुख किया जाए और किस तरह की नौकरी का चुनाव किया जाए। इसी समय तकरीबन साढ़े 19 साल की उम्र में दिल्ली के रामजस कॉलेज में मुझे पढ़ाने का मौका मिला। मैं रामजस कॉलेज में पहला मुस्लिम शख्स था, जिसे पढ़ाने का मौका मिला था। इसके बाद मुझे कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में डॉक्टरेट की पढ़ाई करने का मौका मिला। कैम्ब्रिज की पढ़ाई ने मेरी दुनिया बदल दी। यहाँ के नोबेल सम्मानित प्रोफेसरों के रहन-सहन से मैंने सीखा कि बड़ा बनने के साथ बड़ा होने का स्वाभाव पैदा नहीं होता बल्कि झुकाने का स्वाभाव पैदा होता है।
वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार की शैक्षिक पृष्ठभूमि इतिहास विषय की रही है। इनके देहांत पर रवीश कुमार ने अपने फेसबुक पोस्ट पर लिखा है- “अलविदा प्रोफ़ेसर मुशीरूल हसन...एक ज़माना था मुशीरूल हसन साहब का। उन्हें सुनने के लिए भीड़ लगती थी। उनका लिखा अंडरलाइन कर पढ़ा जाता था। उनकी किताबें लाँच होती थीं। ख़बरें बनती थी। टीवी की बहस बग़ैर मुशीर साहब के कहाँ पूरी होती थी। अख़बार और जर्नल उनके लेख से भरे रहते थे। एक दुर्घटना के बहाने ज़िंदगी उन्हें पर्दे के पीछे ले गई। ज़माने तक उनका लिखा पढ़ने को नहीं मिला। लोग भूलने लगे। आज सुबह वे इस दुनिया को ही छोड़ गए। मगर जो लिख कर गए हैं उससे एक आलमारी भर जाए। आधुनिक भारत के बड़े और क़ाबिल इतिहासकारों में से रहे हैं। एक शानदार इतिहासकार हमारे बीच से गया है। अपने विषय के इस क़द्दावर शख़्स को अलविदा। काफ़ी कुछ सीखा। जाना। उसके लिए आभार।“
मुशीरुल हसन का इतिहास विषय पर कहना रहा कि भारतीय इतिहास के साथ सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इसे सबसे पहले अंग्रेजों ने लिखा। अंग्रेजों ने इसे एक ख़ास मकसद से लिखा। इस मकसद को पूरा करने के लिए अंग्रेजों ने भारतीय इतिहास के साथ बहुत अधिक छेड़छाड़ की, जैसे कि मध्यकालीन इतिहास के बारें में यह बताया गया कि यह इस्लामी इतिहास है। यहीं से साम्प्रदायिकता की सारी जड़े निकलती हैं। इन जड़ों को काटने का तरीका यही है कि इसपर जमकर वैचारिक और तार्किक बहस और शोध किए जाए। इसी सोच से सजे दिमाग की वजह से मुशीरुल हसन ने भारत-पाक विभाजन, इस्लामी इतिहास और साम्प्रदायिकता जैसे विषयों पर कई किताबें लिखीं और भारत सरकार ने उन्हें उनके कामों के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया।
प्रोफेसर मुशीरुल ने 1992 से 1996 के बीच जामिया मिलिया इस्लामिया के उपकुलपति और 2004 से 2009 के बीच संस्थान के कुलपति के रूप में अपनी सेवाएं दी। इस समय को याद करते हुए जामिया के पूर्व छात्र कहते हैं ‘बटाला हाउस काण्ड के समय जब दिल्ली पुलिस शक के आधार पर जामिया के छात्रों को निशाना बना रही थी, तब प्रोफेसर मुशीरुल ने जामिया के अंसारी सभागार में छात्रों के साथ खड़े होते कहा था कि किसी भी छात्र को गिरफ्तार करने से पहले पुलिस को मुझे गिरफ्तार करना पड़ेगा। प्रोफेसर मुशीरुल को याद करते हुए आए वक्त जामिया की गलियों में इस बात पर चर्चा होती रहती है।’
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