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संघ का ‘भविष्य का भारत’ नए चेहरे और नए मुखौटे के सिवा कुछ भी नहीं

भागवत के इस नरम रुख और संघ परिवार के सदस्यों के आचरण में कोई संगति नहीं दिखती। यह भी शंका होती है कि यह नए चेहरे और मुखौटे लोगों को भ्रम में डालने की अब तक सफल रही रणनीति का विस्तार तो नहीं हैं।
संघ प्रमुख मोहन भागवत
Image Courtesy: DNA India

यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा आयोजित ‘भविष्य का भारत’ कार्यक्रम को ‘भविष्य का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ की संज्ञा दी जाती तो यह उन गतिविधियों और व्याख्यानों से अधिक संगत होती जो इस त्रिदिवसीय आयोजन के दौरान देखने-सुनने को मिले। संघ बदल रहा है अथवा नहीं? इस प्रश्न पर विचार करने से पूर्व उस रणनीति को समझना आवश्यक है जिसका प्रयोग हिन्दूवादी शक्तियां सफलतापूर्वक करती रही हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इर्दगिर्द घूमने वाले समान विचारधारा वाले संगठनों की एक पूरी टीम हमें कार्य करती दिखाई देती है। इन संगठनों के विषय में संघ द्वारा यह कहा जाता है कि ये स्वतंत्र संगठन हैं, इनका नेतृत्व और विचारधारा आरएसएस से बिल्कुल पृथक है और कई बार यह आरएसएस से मतवैभिन्य भी रखते हैं। बिल्कुल यही बात भारतीय जनता पार्टी के विषय में भी संघ कहता रहा है।

हिन्दूवादी संगठनों की इस सूची में अनेक नाम सम्मिलित किए जा सकते हैं- धार्मिक क्षेत्र में कार्य करने वाले आक्रामक विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल, छात्र राजनीति में सक्रिय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, श्रमिक-कर्मचारी वर्ग के मुद्दों में हस्तक्षेप करने वाला भारतीय मजदूर संघ, किसान आंदोलनों को प्रभावित करने वाला भारतीय किसान संघ,  स्वदेशी और कुटीर उद्योगों की वकालत करने वाला स्वदेशी जागरण मंच, आदिवासी क्षेत्रों में सक्रिय भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम, ग्रामीण क्षेत्रों की योजनाओं से सम्बद्ध दीनदयाल शोध संस्थान आदि आदि। यह संगठन संघ परिवार का निर्माण करते हैं। अनेक क्षेत्रों को प्रभावित करने वाले यह संगठन कई बार यह आभास देते हैं कि जिस वर्ग से यह सम्बद्ध हैं उस वर्ग की समस्याओं के निराकरण के लिए ये ईमानदारी से प्रयासरत हैं। किन्तु अंततः यह अपने वैचारिक पोषण के लिए संघ पर आश्रित होते हैं और इनकी सारी गतिविधियां भारतीय जनता पार्टी को लाभ पहुंचाने वाली होती हैं। हिन्दू राष्ट्र की स्थापना इन सभी संगठनों का साझा लक्ष्य है और इस लक्ष्य को लेकर उनके मन में कोई संशय या दुविधा नहीं है। ये हर बिंदु पर समझौता कर सकते हैं किंतु हिन्दू राष्ट्र की स्थापना को लेकर यह संगठन दृढ़ हैं।

हिन्दूवादी संगठनों की इस टीम की विशेषता यह है कि इसके कुछ सदस्य आक्रामक भूमिका में होते हैं और कुछ रक्षात्मक। कुछ संकीर्ण और उग्र रूप धारण करते हैं तो कुछ उदार और समावेशी।

इन संगठनों के अतिरिक्त पिछले साढ़े चार साल में गोरक्षा और लव जिहाद विरोध जैसे अनेक मुद्दों को लेकर सुनियोजित हिंसा करने वाले छोटे मोटे कट्टरपंथी स्थानीय संगठनों की संख्या और सक्रियता असाधारण रूप से बढ़ी है। इन संगठनों द्वारा अल्पसंख्यक वर्ग को भयभीत करने का कार्य निरन्तर जारी है। इन संगठनों ने संघ के कर्ताधर्ताओं को यह सहूलियत प्रदान कर दी है कि वे जब चाहें इन संगठनों की निंदा कर सकते हैं और इनसे दूरी बना सकते हैं, इनकी हिंसात्मक गतिविधियों को बहुसंख्यक समाज के सहज आक्रोश के रूप में परिभाषित कर सकते हैं और इन पर नियंत्रण स्थापित करने में स्वयं को असमर्थ बता सकते हैं।

भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार में भी नेताओं के दो समूह दिखाई देते हैं। यद्यपि यह विभाजन आभासी है। एक ओर गिरिराज सिंह, उमा भारती, योगी आदित्यनाथ, कैलाश विजयवर्गीय, अनंत कुमार हेगड़े जैसे फायर ब्रांड नेता हैं जो उग्र हिंदुत्व की वकालत करते हैं दूसरी ओर सरकार का सुलझा हुआ बौद्धिक चेहरा दिखता है जिसका प्रतिनिधित्व स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा उनकी मंत्रिपरिषद के वरिष्ठ सदस्य राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, रविशंकर प्रसाद, सुषमा स्वराज आदि करते हैं। यही आभासी विभाजन भाजपा प्रवक्ताओं में भी दिखता है।

ह्यूमन राइट्स वॉच के अनुसार पिछले 2 वर्षों में गोरक्षकों की हिंसा में तेजी से वृद्धि हुई है। इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट बताती है कि 2017 में भीड़ के हिंसक आक्रमण की घटनाओं में 4.5 गुना और इन हमलों से होने वाली मृत्यु के मामलों में दो गुना वृद्धि हुई है। सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बावजूद मॉब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ी हैं। इन घटनाओं के अपराधियों को महिमामण्डित कर राज्याश्रय देने की प्रवृत्ति में वृद्धि हुई है। महेश शर्मा, जयंत सिन्हा और गिरिराज सिंह जैसे मंत्री भीड़ की हिंसा के आरोपियों को सम्मान देते सार्वजनिक रुप से देखे गए हैं। अल्पसंख्यक वर्ग में भय व्याप्त है। 

ऐसे समय में संघ प्रमुख का यह कथन कि बिना मुसलमानों के हिंदुत्व का समावेशी स्वरूप अधूरा है, भयभीत हो चुके अल्पसंख्यक समुदाय के लिए एक ऐसे अंतिम शांति प्रस्ताव के रूप में भी देखा जा सकता है जिसे न स्वीकारने पर उनकी स्थिति बदतर हो सकती है। इस कथन में नया कुछ नहीं है। भागवत के अनुसार- जो भी भारत में निवास करता है उसकी एक ही पहचान है, उस पहचान को हम हिंदुत्व कहते हैं। किन्तु हमें उन लोगों से कोई समस्या नहीं है जो खुद को हिन्दू कहलाना पसंद नहीं करते। यहां वे दीनदयाल उपाध्याय का अनुसरण करते दिखते हैं। इस विचारधारा का सार यही है कि हिन्दुत्व वह आधारभूत अवधारणा है जो इस देश को एक सूत्र में बांधे हुए है और अन्य सभी को इसे स्वीकार करना होगा तथा अपनी पहचान मिटानी होगी, अन्यथा उनकी स्वाभाविक नियति दूसरे दर्जे के नागरिकों की होगी। इस विचारधारा में प्रशिक्षित एक बड़ा वर्ग अल्पसंख्यकों को देश की बदहाली के लिए उत्तरदायी समझता है और उसके मन के किसी अंधकारमय कोने में इनके उन्मूलन का भयानक विचार छिपा हुआ है। कई हिन्दूवादी भारतीय अल्पसंख्यकों को समान प्रजाति के जबरन धर्मांतरित हिन्दुओं के रूप में देखते हैं और उन्हें घर वापसी का विकल्प देते हैं। जब हिन्दूवादी शक्तियों के उग्र समर्थक अल्पसंख्यकों में हिंसा और भय फैलाने में सफल रहे हैं और सरकार का मौन समर्थन इन्हें प्राप्त है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पास यह सुविधा मौजूद है कि वह इन डरे हुए अल्पसंख्यकों को शरणागत होकर अभयदान प्राप्त करने हेतु प्रोत्साहित करे। 

गोलवलकर ने वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड में लिखा था - हिंदू राष्ट्र पर अभी विजय नहीं हुई है। युद्ध जारी है। वह अशुभ दिन जब मुसलमानों ने हिंदुस्तान की जमीन पर अपने पैर धरे तब से अब तक इनको भगाने के लिये हिंदू राष्ट्र वीरतापूर्वक युद्ध कर रहा है। युद्ध में कभी पलड़ा इस तरफ झुकता है और कभी उस तरफ। पर युद्ध जारी है और इसका परिणाम अभी तक नहीं निकला है। गोलवलकर ने बंच ऑफ थॉट में लिखा- यह सोचना आत्मघाती होगा कि पाकिस्तान बनने के बाद मुसलमान रातों रात देशभक्त हो गए हैं, इसके विपरीत पाकिस्तान के निर्माण के बाद मुस्लिम खतरा सैकड़ों गुना बढ़ गया है। संघ और संघ परिवार के अनेक सदस्यों के मुसलमानों के प्रति दृष्टिकोण और व्यवहार की बुनियाद गोलवलकर के इन विचारों पर आधारित है। वे मुसलमानों को संदेह की दृष्टि से देखते हैं और बारंबार उन पर अपनी राष्ट्र भक्ति सिद्ध करने का दबाव बनाते हैं। संघ प्रमुख ने यद्यपि गोलवलकर के विचारों से दूरी बनाने का प्रयास किया किन्तु उनके विचारों का प्रभाव स्वयं संघ प्रमुख पर तब स्पष्ट रूप से दिखाई दिया जब उन्होंने राम मंदिर के संबंध में कहा- राम जन्म भूमि पर राम का भव्य मंदिर बनना ही चाहिए। किन्तु यदि मुसलमान स्वयं इसे पहल कर बनवाते हैं तो बरसों से उन पर उठ रही उंगलियां झुक जाएंगी। यहां संघ प्रमुख स्वयं मुसलमानों की राष्ट्र भक्ति के प्रति सशंकित और इसे कसौटी पर कसने का प्रयास करते नजर आते हैं।

भागवत ने हिंदुत्व के तीन आधार बताए- देश भक्ति, पूर्वज गौरव और संस्कृति। सावरकर ने एसेंशियलस ऑफ हिंदुत्व(1923) (जो  हिंदुत्व : हू इज हिन्दू के नाम से 1928 में पुनः प्रकाशित हुई)  में समान राष्ट्र, समान प्रजाति और समान संस्कृति के आधारों का जिक्र किया था। उन्होंने उन सभी को हिन्दू माना जो भारत को अपनी पितृ भूमि और पुण्य भूमि मानते हैं। हेडगेवार हमेशा सावरकर से प्रेरणा प्राप्त करते रहे। चाहे वह भागवत की हिंदुत्व की समावेशी लगने वाली परिभाषा हो या सावरकर का संकीर्ण हिंदुत्व हो- मूल प्रश्न यह है कि हिंदुत्व के इन आधारों को निर्धारित करने का अधिकार संघ परिवार किस प्रकार हस्तगत कर सकता है? देशभक्ति, संस्कृति और पूर्वज गौरव को परिभाषित करने की स्वतंत्रता अवश्य संघ प्रमुख को भारत किसी भी सामान्य नागरिक की भांति उपलब्ध है। किन्तु इस परिभाषा को पूर्ण मानने और अन्य समुदायों को तदनुसार आचरण करने के लिए बाध्य करने का अधिकार तो उनके पास नहीं है।

संघ प्रमुख की विनम्रता तब ओढ़ी हुई लगने लगती है जब हिंदुत्व की इस परिभाषा को आधार बनाकर संघ परिवार के सदस्य किसी को देश में रहने की योग्यता का प्रमाणपत्र देते और कभी उसे देश से बाहर जाने की सलाह देते नजर आते हैं।

संघ प्रमुख ने आरक्षण का समर्थन किया। उन्होंने एससी-एसटी एक्ट को भी ठीक ढंग से लागू करने की बात कही। किन्तु जब उन्होंने कहा कि अस्पृश्यता किसी शास्त्र या कानून के कारण नहीं आई है बल्कि यह समाज में दुर्भावना के कारण ही आई है जिसे सद्भावना से ही दूर किया जा सकता है तो वे गोलवलकर की याद दिला गए। गोलवलकर के अनुसार – समाज में यह जो ऊंच और नीच जैसी असमानता का भाव वर्णाश्रम व्यवस्था में घर कर गया है वह हाल की बात है। अंग्रेजों ने इसमें और जहर घोला है। बांटो और राज करो की अपनी नीति के तहत अंग्रेजों ने इस जातिभेद को बढ़ावा दिया है लेकिन वर्णाश्रम व्यवस्था में मूल रूप से कोई भेद भाव नहीं है। (बंच ऑफ़ थॉट्स,वन्स द ग्लोरी, पृष्ठ 98)। गोलवलकर चातुर्वर्ण्य का समर्थन करते रहे और अस्पृश्यता को एक ऐसी कुरीति मानते रहे जो बाहर से वर्ण व्यवस्था में प्रवेश कर गई है। जब भागवत कहते हैं कि अस्पृश्यता किसी शास्त्र या कानून के कारण नहीं आई है तो उनका परोक्ष संकेत यह है कि सामाजिक असमानता के लिए मनु स्मृति जैसे ग्रंथों को उत्तरदायी मानना ठीक नहीं है। मनुस्मृति हिंदूवादियों को अत्यंत प्रिय रही है। हाल ही में संभाजी भिड़े ने जुलाई 2018 में मनुस्मृति की शिक्षाओं को संत ज्ञानेश्वर और संत तुकाराम की शिक्षाओं से बेहतर बताया। राजस्थान की राजधानी जयपुर में 10 दिसंबर 2017 को मनु प्रतिष्ठा समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शिरकत कर रहे आरएसएस विचारक इंद्रेश कुमार ने मनु को जातिवाद, अस्पृश्यता और असमानता का घोर विरोधी बताया और कहा कि इतिहासकारों ने दबाव में उनकी गलत छवि प्रस्तुत की। जब भागवत ने समाज के सभी वर्गों के बीच रोटी बेटी के संबंधों पर जोर दिया और अंतर्जातीय तथा अंतर्धार्मिक विवाहों की वकालत की तब न केवल उन्हें लव जिहाद के नाम पर हो रही हिंसा की निंदा करनी चाहिए थी बल्कि भाजपा शासित राज्यों में दलितों पर बढ़ते अत्याचार पर भी सवाल उठाने चाहिए थे। उन्हें मनु स्मृति पर भी अपनी बेबाक राय देनी चाहिए थी।

सुभाष गाताडे अम्बेडकर के उस कथन को उद्धृत करते हैं जिसके अनुसार नीत्शे ने एन्टी क्राइस्ट में मनु स्मृति की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए कहा था कि वह तो केवल मनु का अनुसरण कर रहे हैं। अम्बेडकर आगे यह भी बताते हैं कि नाज़ी अपनी वंश परंपरा नीत्शे से ग्रहण करते हैं और उन्हें अपना आध्यात्मिक पिता मानते हैं।

हिटलर नीत्शे से बहुत प्रभावित थे। गोलवलकर हिटलर के प्रशंसक थे। उन्होंने 1939 में वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड में लिखा-  प्रजाति और उसकी संस्कृति की शुद्धता को बनाए रखने के लिए यहूदियों की अशुद्धि को हटाकर कर जर्मनी ने पूरी दुनिया को चकित कर दिया। यहां अपनी प्रजाति के प्रति गौरव को सर्वश्रेष्ठ रूप में अभिव्यक्त होते देखा जा सकता है। जर्मनी ने यह भी बता दिया कि आधारभूत असमानता रखने वाली प्रजातियों और संस्कृतियों का एकीकृत होना असंभव है। यह हिंदुस्तान के लिए एक अच्छा सबक है जिससे हमें लाभ लेना चाहिए।

इन परिस्थितियों में यह संदेह स्वाभाविक है कि भागवत की संविधान के प्रति आस्था की यह ध्यान खींचने वाली अभिव्यक्ति रणनीतिक तो नहीं है। उन्होंने कहा कि संविधान में नागरिक अधिकार, कर्त्तव्य और प्रस्तावना सभी कुछ है सबको इसे मानकर ही चलना चाहिए। संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेकुलर बाद में आया सबको पता है, लेकिन अब ये है। यदि हमने अम्बेडकर का कहा बन्धु भाव उत्पन्न नहीं किया तो हमें कौन से दिन देखने पड़ेंगे, बताने की जरूरत नहीं। हिंदुत्व ही बन्धुभाव लाने की कोशिश करता है। 

संविधान के अंतिम रूप लेने के चार दिवस बाद ही 30 नवंबर 1949 का आर्गेनाइजर कहता है-  किन्तु हमारे संविधान में प्राचीन भारत में हुए अद्वितीय संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु स्मृति में वर्णित मनु के नियम और कानून आज भी पूरी दुनिया की प्रशंसा प्राप्त करते हैं और इनका सहज अनुपालन होता है। किन्तु हमारे संविधान के पंडितों के लिए इसका कोई अर्थ नहीं है। गोलवलकर मनु को दुनिया का प्रथम, सर्वोत्तम और सबसे मेधावी विधि निर्माता मानते हैं। सावरकर भी मनु स्मृति के बड़े प्रशंसक थे। उन्होंने लिखा- आज भी करोड़ों हिन्दू अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का पालन करते हैं वे मनु स्मृति पर आधारित हैं। आज मनु स्मृति हिन्दू विधि है। महाड़ सत्याग्रह में 1927 में मनु स्मृति की प्रतियां जलाते भारत के संविधान निर्माता बाबा साहब अम्बेडकर से संघ की गहन असहमति रही है। वर्तमान सरकार के मंत्री अनंत कुमार हेगड़े यह कह चुके हैं कि बीजेपी संविधान बदलने हेतु सत्ता में आई है। योगी आदित्यनाथ 2017 में ही सेकुलरिज्म को भारत में फैला सबसे बड़ा झूठ बता चुके हैं। मोदी सरकार का 2015 के गणतंत्र दिवस पर जारी एक विज्ञापन चर्चा में रहा जिसमें मुद्रित संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेकुलर शब्द नहीं थे। 

संघ प्रमुख ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में कांग्रेस की भूमिका का प्रशंसात्मक उल्लेख किया। किन्तु उन्हें उन मतभेदों पर विस्तार से प्रकाश डालना चाहिए था जिन्होंने हेडगेवार को कांग्रेस तथा महात्मा गांधी से अलग विचारधारा को अपनाने के लिए प्रेरित किया। उन्हें खिलाफत आंदोलन और मोपला विद्रोह पर हेडगेवार की राय की चर्चा भी करनी चाहिए थी। उन्हें सावरकर द्वारा रचित मोपला उपन्यास का भी जिक्र करना चाहिए था। उन्हें मौलाना आज़ाद और शाहनवाज़ खान जैसे स्वाधीनता संग्राम के नायकों पर अपनी राय भी स्पष्ट रूप से रखनी चाहिए थी। 

मोहन भागवत ने आरक्षण, समलैंगिकता, संविधान तथा हिन्दुत्व के विषय में अपनी और संघ की पहले की राय से अलग हटकर एक लचीला रुख प्रदर्शित करने का प्रयास किया। भागवत के इस नरम रुख और संघ परिवार के सदस्यों के आचरण में कोई संगति नहीं दिखती। यह भी शंका होती है कि यह नए चेहरे और मुखौटे लोगों को भ्रम में डालने की अब तक सफल रही रणनीति का विस्तार तो नहीं हैं। पिछले साढ़े चार वर्षों में कट्टर हिन्दुत्व पर विश्वास करने वाली शक्तियां अधिक उग्र और उच्छृंखल हुई हैं। इसके बावजूद भी देश की राजनीति को व्यापक रूप से प्रभावित करने वाले और भारतीय जनता पार्टी की सफलता के लिए उत्तरदायी समझे जाने वाले संघ द्वारा अपने दरवाजे खोलने की पहल ध्यान खींचती है। क्या यह मीडिया मैनेजमेंट का एक कुशल नमूना है जिसमें सच को बदलने के बजाय देखने वाले के नजरिये को बदलने पर ज्यादा जोर है? क्या यह एथनिक नेशनलिज्म से टेरीटोरियल नेशनलिज्म और सिविक नेशनलिज्म की ओर किसी शिफ्ट की आहट है? क्या यह प्रगतिशील शक्तियों द्वारा बनाए गए दबाव और उनके प्रखर विरोध का नतीजा है कि समाज में बढ़ती अस्वीकार्यता के मद्देनजर संघ रक्षात्मक हो गया है? क्या यह 2019 के आम चुनावों को दृष्टि में रखकर उछाला गया एक जुमला है? क्या संघ भारतीय जनता पार्टी की बढ़ती शक्ति से चिंतित है और अपनी ताकत तथा जनाधार बढ़ाने के लिए प्रयासरत है? क्या संघ के अंदर कट्टरपंथी शक्तियां कमजोर पड़ रही हैं? क्या मोहन भागवत अधिक महत्वाकांक्षी हो रहे हैं और इस बदलाव का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ेगा? क्या संघ विरोध को केंद्र में रखकर अपनी रणनीति तैयार कर रहे वाम दलों, कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय ताकतों को चौंकने, हड़बड़ाने और गड़बड़ाने के लिए भागवत ने मजबूर कर दिया है? इन प्रश्नों के उत्तर आने वाला समय ही देगा।

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