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संकट : ग्रामीण मज़दूरी में भारी गिरावट

बुरी ख़बर यह है कि राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव आने के साथ ग्रामीण मज़दूरी वृद्धि दरें, सकल राष्ट्रीय आय वृद्धि दरों के मुकाबले काफी नीचे आ चुकी हैं जिससे यह सामने आया है कि सकल राष्ट्रीय आय दरों और औसतन वास्तविक मजदूरी दरों में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है।
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy: votergiri.com

भारत में ग्रामीण कार्यबल मुख्य रूप से कृषि गतिविधियों जैसे की जुताई/तिलिंग/ बुआई (रोपण/प्रतिरोपण/ निराई आदि), फसल कटाई / ओसाई /तितुण/ चुनना (जिसमें चाय, कपास, तम्बाकू तथा अन्य वाणिज्यिक फसल भी शामिल है), बागवानी, मछली पकड़ना (देशीय और तटीय समुद्र आदि) पशुपालन में पाए जाते है अथवा बढ़ई, लोहार, मिस्त्री, बुनकर, बीड़ी कर्मकार, नलसाज, बिजली मिस्त्री, निर्माण कर्मकार, हल्के मोटर वाहन एवं ट्रेक्टर चालक, सफाई कर्मकार जैसे व्यवसायों में पाए जाते है।

भारत सरकार का श्रम ब्यूरो हर महीने 25 व्यवसायों की मजदूरी दरों का डेटा एकत्रित करता है (12 कृषि और 13 गैर-कृषि)। यह डेटा राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) के क्षेत्र संचालन डिवीज़न द्वारा 600 गावों से जो देश के 20 राज्यों में NSS के 66 क्षेत्रों में फैले हुए हैं, से एकत्रित किया जाता है। वर्ष 2014 से पहले, मजदूरी दरों का डेटा 11 कृषि व 7 गैर-कृषि व्यवसायों के लिए उपलब्ध था। परन्तु वर्तमान के लिए हम केवल 4 कृषि (जुताई, बोआई, कटाई, और चुनना) और 5 गैर कृषि (बढ़ई, लोहार, मिस्त्री, हल्के मोटर वाहन एवं ट्रेक्टर चालक और सफाई कर्मचारी) पुरुष कार्यकर्ताओं की मजदूरी दरों का विश्लेषण करेंगे क्योंकि इन व्यवसायों के लिए जुलाई 2008 से अक्तूबर 2018 (10 वर्ष) तक का लगातार मासिक डेटा उपलब्ध है।

अन्य व्यवसायों में महिलाओं की वार्षिक मजदूरी वृद्धि दरें भी लगभग पुरुष की मजदूरी वृद्धि दरों के आसपास ही पाई गई है। हालांकि महिला कर्मचारियों की मजदूरी दरों की वृद्धि की प्रवृत्ति पुरुष कर्मचारियों की मजदूरी दरों की वृद्धि के साथ पाई गई परन्तु इसके बावजूद भी लिंग के आधार पर आय में अंतर आज भी मौजूद हैं। वर्तमान समाचार यह है कि राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव आने के साथ ग्रामीण मजदूरी वृद्धि दरें, सकल राष्ट्रीय आय वृद्धि दरों के मुकाबले काफी नीचे आ चुकी हैं जिससे यह सामने आया है कि सकल राष्ट्रीय आय दरों और औसतन वास्तविक मजदूरी दरों में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है।

यदि नियोजित लोगों की संख्या में कोई बदलाव न हो (हालांकि बहुत लोगों का कहना है कि हाल ही के इतिहास में बेरोजगारी में वृद्धि हुई है), और अधिकांश कर्मचारियों की मजदूरी दरें सकल राष्ट्रीय आय की मजदूरी दरों से कम दरों पर वृद्धि करें तब भी निश्चित रूप से अर्थव्यवस्था में असामनता में बढ़ोतरी होगी। हालांकि यह तो बात रही पुरुष कर्मचारियों की ग्रामीण मजदूरी दरों की, यदि शहरी इलाकों की बात की जाये तो यह विश्वास करने का कोई कारण नहीं है कि वहाँ असामनता कम है। असंगठित क्षेत्रों में ज्यादातर लोगों को इसी तरह की मजदूरी मिलती है (जैसे कटाई में 324 रुपये, मछुआरों को 350 रुपये, बढ़ई को 424 रुपये, बीड़ी कर्मचारी को 202 रुपये और सफाई कर्मचारी को 231 रुपये आदि) और 92 प्रतिशत से भी ज्यादा भारतीय कर्मचारी असंगठित क्षेत्रों में काम करते पाए जाते हैं, तो ज्यादातर भारतीयों की आय का अनुमान हम इन्हीं दैनिक मजदूरी दरों को देखकर लगा सकते हैं। यह मजदूरी दरें शहरी इलाकों में उच्चतर हो सकती हैं परन्तु यह जरुरी नहीं है की औसतन मजदूरी वृद्धि दरें शहरी इलाकों में ग्रामीण इलाको की तुलना में उच्चतर हो।

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पैनल 1 में, पुरुष कर्मचारियों की वार्षिक मासिक ग्रामीण नकदी मजदूरी वृद्धि दरों (जिसे मई 2014 की मजदूरी की औसतन वृद्धि दरों को मई 2013 की मजदूरी की औसतन वृद्धि दरों से भाग करके निकला जा सकता है) को वार्षिक नकदी सकल राष्ट्रीय आय की वृद्धि दरों के साथ जुलाई 2009 से अक्तूबर 2018 की समय सीमा के लिए दर्शाया गया है। राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव (मई 2014) को लम्बरूप कलि (Vertical) रेखा द्वारा दर्शाया गया है। स्पष्ट रूप से यह देखा जा सकता है कि UPA-11 की शासन प्रणाली में ग्रामीण मजदूरी कि औसतन वृद्धि सकल राष्ट्रीय आय की वृद्धि से अधिक है। हालांकि UPA-1 और पिछले NDA शासन प्रणाली में ऐसा नहीं था। नवम्बर 2014 के बाद से (अक्टूबर 2018 तक) राष्ट्रीय आय नकदी रूप में 10 प्रतिशत प्रतिवर्ष से बढ़ी है जबकि ग्रामीण दरों में औसतन 5 प्रतिशत से वृद्धि देखी गई।

यहाँ नवम्बर 2013 से अक्टूबर 2014 तक दैनिक मजदूरी दरों की वार्षिक वृद्धि दरों (पुरुषों के लिए) में तीव्र वृद्धि उल्लेखनीय है जो कि सैंपल गाँवों में बदलाव के कारण हुआ है। यदि हम इसे छोड़ दे तब भी नकदी मजदूरी दरों में सीधा 15% से 5% तक की गिरावट को नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता है। 2009-10 से 2013-14 में नकदी सकल राष्ट्रीय आय 2014-15 से 2017-18 की तुलना में उच्चतर पाई गई है, तब भी ग्रामीण मजदूरी की औसतन वृद्धि पूर्व काल में उच्चतर थी। परन्तु यह भी ध्यान देने योग्य है कि UPA-2 के शासन काल में औसतन महंगाई दरे NDA शासन काल की तुलना में ज्यादा थी (मूल्य रूप से तेल की उच्चतर अंतरराष्ट्रीय कीमतों और तेल कीमतों की अविनियमन के कारण)। पैनल-2 का  रेखाचित्र उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) एवं ग्रामीण मजदूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI RL पूर्व महीनों  के लिए) पर आधारित कीमतों की वृद्धि के प्रभाव को हटाकर हमे असली तस्वीर दिखता है।

पैनल-2 में ग्रामीण वास्तविक मजदूरी की वार्षिक वृद्धि दरों को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई दरों और वास्तविक सकल राष्ट्रीय आय की प्रतिवर्ष वृद्धि दरों के साथ दर्शाया गया है (लगातार कीमत पर)। यहाँ यह भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि वास्तविक मजदूरी (ग्रामीण) की औसतन वृद्धि पिछली सरकार में उच्चतर थी जो की वर्तमान में चल रहे सरकार में काफी गिर चुकी है। 2016 और 2018 में लगभग शून्य ही हो चुकी है। वर्ष 2017 में नकदी वृद्धि दरें भी समान रूप से ही कम थी (पैनल-1 देखें) परन्तु अपेक्षाकृत कम महंगाई दरे होने के कारण वास्तविक वृद्धि 2.5% प्रतिवर्ष रही (मूल रूप से समग्र स्तर पर मांग संकुचन जो कि नोटबंदी के कारण देखा गया)।

कुछ रुढ़िवादी अर्थशास्त्रियों का मानना है मजदूरी की धीमी वृद्धि उत्पादन लागत की वृद्धि दरों को घटाएगी और अंत में यह लाभप्रदता और वृद्धि के लिए अच्छा होगा। हालांकि यदि ज्यादातर लोगों की आय की वृद्धि दरें राष्ट्रीय आय की वृद्धि दरों से कम रहती हैं तो अर्थव्यवस्था में उत्पादक क्षमता की वृद्धि कुल मांग की वृद्धि से बढ़ जाएगी (देशीय बाज़ार का समग्र स्तर पर वास्तविक आकार) जो कि लोगों की खरीदनें की क्षमता पर निर्भर करता है। फलस्वरूप, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मिशाल कालेकी का अनुसरण करते हुए यह कहा जा सकता है कि उत्पादक क्षमता की प्रति इकाई लाभ दरें घटेंगी। यदि दूसरे घटकों को निरंतर रखा जाये तो लाभ दरों के घटने के अलावा कम प्रत्याशी लाभ दरों के कारण मौजूदा पूंजी भंडार में बढ़ोतरी भी घटेगी।

इसके फलस्वरूप निवेश दरों में गिरावट आएगी। दी गई प्रौद्योगिक अवस्था के साथ, और इसका भुगतान भविष्य की वृद्धि दरों को करना पड़ेगा। इसलिए असमानता की बढ़ोतरी, सकल देशीय बाज़ार के आकर की वृद्धि दरों को रोक कर कुल वृद्धि दरों के लिए बाध्यता साबित हो सकती है।

मजदूरी की वृद्धि दरें कम से कम सकल देशीय उत्पाद की वृद्धि दरों के समान बढ़ा देनी चाहिए। यह न सिर्फ असमानता को स्तर की ओर बढ़ने से रोकती है बल्कि प्रत्याशी लाभ दरों में गिरावट के कारणों कोपकदने में भी मदद करेगा। गिरती लाभ दरें और अर्थव्यवस्था व समाज की स्थिरता के लिए गंभीर चेतावनी देते हैं। यह सामाजिक विज्ञान का एक बहुत ही रोचक प्रश्न है कि देश में राजनीतिक बदलाव के साथ क्यों और किस तरह ग्रामीण मजदूरी की वृद्धि दरें दुर्घटनाग्रस्त हुई। हालांकि उपलब्ध सरकारी आँकड़े स्पष्ट रूप से यही दर्शाते हैं की यह गिरावट ऊपर कहे गए राजनीतिक बदलाव के ठीक बाद हुई।

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