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ज़मीन की कमी नहीं, शासकों के वर्ग हित हैं देश में भूमिहीनता का मुख्य कारण

वितरण के लिए ज़मीन उपलब्ध होने और भूमि वितरण के लिए कई क़ानून होने के बावजूद भी अगर आबादी का बड़ा हिस्सा भूमिहीन है तो यह शासकों के वर्ग हितों को साधने वाली सरकारों की नीतियों के कारण है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : AP

ग्रामीण भारत में लोगों के जीवन में ज़मीन का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। भूमि उत्पादन का मुख्य साधन है, जिसका एकाधिकार एक ओर तो बड़े ज़मींदारों के लिए पूंजी संचय का स्रोत बनता है और दूसरी ओर असंख्य भूमिहीन लोगों में निर्धनता लाता है। केवल आर्थिक ही नहीं बल्कि ग्रामीण भारत में ज़मीन के संबंध, सामाजिक रिश्ते भी निर्धारित करते है। स्वाभाविक है कि हर दौर में शासक वर्ग भूमि पर नियंत्रण करने की कोशिश करता है। हमारे देश में भी ज़मीन अपने नियंत्रण में रखकर खेत मजदूरों और किसानों की मेहनत से अतिरिक्त पैदा कर भूस्वामी ने न केवल अथाह मुनाफा अर्जित किया बल्कि अपनी सामाजिक श्रेष्ठता भी घोषित की है। परिणामस्वरूप देश में आबादी का ज्यादातर हिस्सा ज़मीन के स्वामित्व से वंचित ही रहा।

अंग्रेजी शासन में भी ज़मीन का हक़ कुछ लोगों तक ही सीमित था और किसानों और खेत मजदूरों के रूप में देश की विशाल मेहनतकश जनता की मेहनत का शोषण ज़मींदार और अंग्रेजी सरकार मिलकर करते थे। ज़मीन पर मेहनत कर अनाज उत्पन्न करने वालों का जीवन कठिनाईयों और अनिश्चिततायों से भरा रहता था। इसलिए आज़ादी की लड़ाई में ग्रामीण भारत में उत्पादक वर्ग की भागीदारी का एक बड़ा सपना ज़मीन का मालिकाना हक था। स्वतंत्रता संग्राम के नेतृत्व ने भी इस बात को समझा और ज़मीन के मुद्दे को महत्वपूर्ण नारा बनाया। परंतु आज़ादी से पहले ही तब की कांग्रेस में नेतृत्व के रवैये से ज़मीन के बंटवारे के बारे में उनकी समझ का पता किसानों और खेत मज़दूरों को चल गया था। नेतृत्व के अपने वर्ग हित ही थे कि ज़मीन के मुद्दे को केवल नारों तक सीमित रखा गया और ज़मीन के बंटवारे की मांग को पुख्ता तरीके से कभी उठाया नहीं गया।

आज़ादी के बाद ग्रामीण सर्वहारा को अपनी सरकार से बड़ी आशा थी कि अब तो भूमि बंट के रहेगी और उनको अपने हिस्से की ज़मीन का मालिकाना हक़ मिलेगा। इस भूमि पर वह गर्व और मेहनत से किसानी करेंगे। अब उनकी मेहनत को कोई लूट नहीं ले जायेगा। यह केवल भूमिहीनों की इच्छा या सम्मान की बात नहीं थी कि भूमि सुधार आज़ाद भारत में एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन कर उभरा बल्कि हमारे देश की आर्थिक उन्नति के लिए भी एक महत्वपूर्ण सवाल था। यह तो सर्वविदित है कि भूमि सुधार से कृषि उत्पादन बढ़ता, जिससे कृषि से जुड़े केवल कुछ जमींदारों की नहीं बल्कि अधिकतर ग्रामीण जनता की आमदनी बढती। इसी समझ के साथ योजना आयोग ने भी भूमि सुधारों को चाहे काग़ज़ों में ही सही प्राथमिकता पर रखा था।

लेकिन हमारे देश में तो सत्ता देशी पूंजीपति और सामंतों के पास ही आई थी और बाकी दुनिया में मज़दूरों की समाजवादी क्रांतियों से सबक लेकर उन्होंने आपस में समझौते से सत्ता बांट ली थी। आज़ादी की लड़ाई में देश की महान जनता की भागीदारी और कुर्बानियों से आम इंसान को बहुत कुछ हासिल हुआ। आज़ादी की लड़ाई के मूल्यों का देश के शासन में भी प्रभाव रहा। परिणामस्वरुप देश को एक समानता के मूल्यों पर आधारित संविधान मिला। कई कल्याणकारी योजनाएं शुरू हुईं। लेकिन शासक वर्ग ने मज़बूती से अपने वर्ग हितों की भी रक्षा की। इसका मुख्य साधन बना क़ानून बनने के बावजूद भी भूमि सुधारों को लागू न करना। केरल, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा यहां किसानों और मज़दूरों के वर्ग हितों की रक्षा करने के संकल्प के साथ वामपंथी राज्य सरकारें थी तथा जम्मू-कश्मीर को छोड़ कर देश में कहीं भी ढंग से भूमि सुधार लागू ही नहीं हुए। एक तो राज्यों में जो क़ानून बने वो बहुत ही कमज़ोर थे, जो थे उनको भी राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में लागू ही नहीं किया गया। ग़ज़ब तो यह है कि शासक वर्ग ने क़ानून और राष्ट्रीय सरकार की दुहाई देकर अनन्य तरीक़ों से भूमिहीन लोगों को आंदोलन से रोकने की सफल साजिश भी की। परिणामस्वरूप देश के ज़्यादातर भूमिहीनों का अपनी ज़मीन का सपना कभी पूरा नहीं हुआ।

आज़ादी के 75 वर्षों के बाद भी एक तरफ बड़ी जमींदारी और दूसरी तरफ भूमिहीनता का उच्च स्तर भारत के कृषि प्रधान समाज की विशेषता है। यह केवल दावा नहीं है बल्कि देश की सच्चाई है जिसकी पुष्टि भारत सरकार और इसके द्वारा गठित स्वतंत्र संस्थानों के विभिन्न सर्वेक्षण करते है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) के सर्वेक्षण के अनुसार देश में वर्ष 2018-19 में लगभग 41 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास कृषि योग्य भूमि नहीं थी। इसी तरह राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) से सामने आया कि वर्ष 2015-16 में हमारे देश के लगभग 47 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास कृषि भूमि नहीं थी। वर्ष 2011 की सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी) के अनुसार भी देश के 56 प्रतिशत ग्रामीण परिवार भूमिहीन थे। इन सब सर्वेक्षणों में भूमिहीन परिवारों के आंकड़ो में कुछ फर्क हो सकता है परंतु एक बात तो तय है कि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा भूमिहीन है ।

सामाजिक और जातीय भेदभाव से ग्रस्त हमारे देश में भूमिहीनता दलितों, आदिवासियों और मुस्लिमों में ही सबसे अधिक है। हालांकि यह कोई चकित करने वाली बात नहीं है। एनएसएसओ के अनुसार, वर्ष 2018-19 में 57.3 प्रतिशत दलित परिवार, 53.1 प्रतिशत मुस्लिम परिवार और 32.8 प्रतिशत आदिवासी परिवार भूमिहीन थे। वर्ष 2015-16 के एनएफएचएस के आंकड़े भी इन समूहों में भूमिहीनता के उच्च स्तर को दिखाते हैं; जो कि दलित परिवारों में 61.7 प्रतिशत, मुस्लिम परिवारों में 61.3 प्रतिशत और आदिवासी परिवारों में 40.8 प्रतिशत थी। असल स्थिति को पहचानने के लिए इस बात पर भी ग़ौर करना होगा कि जिनके पास ज़मीन है उनमें भी एक बड़ी खाई है। असमान वितरण के चलते ज़मीन का अधिकतर हिस्सा देश के कुछ मुट्ठीभर परिवारों के पास है और बाकियों के पास नाममात्र ज़मीन है। 2018-19 के एनएसएसओ आंकड़ों के अनुसार देश के शीर्ष 20 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास कुल भूमि का 76 प्रतिशत हिस्सा है। वहीँ वर्ष 2015-16 के एनएफएचएस के सर्वेक्षण दिखता है कि शीर्ष 20 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास कुल भूमि का 83 प्रतिशत हिस्सा है।

वर्तमान में ज़मीन का मुद्दा राजनीतिक विमर्श से ग़ायब हो गया है। उल्टा समाज में इस समझ को बढावा दिया जा रहा है कि भूमिहीनों को देने के लिए देश में पर्याप्त भूमि है ही नहीं। यह एक सुनियोजित प्रचार है जिसकी जद में भूमिहीन खेत मजदूर वर्ग भी सामान्यता आ जाता है और भूमि संघर्ष को असंभव समझ बैठता है। शासक वर्ग के इस ख़तरनाक प्रचार का भूमिहीनों को मज़बूती से सामना करना होगा। हमारे इस विशाल देश में संसाधनों की कोई कमी नहीं है और यह बात ज़मीन के लिए भी लागू होती है। इस लेख के अगले हिस्से में इसी बात पर थोड़े विस्तार से चर्चा करेंगे।

देश में भूमिहीनों की इतनी बड़ी संख्या अपने आप में भूमि सुधारों के असफलता का सबसे बड़ा सबूत है। स्वतंत्रता के बाद के 60 वर्षों यानी 1947 से 2007 के बीच पूरे देश में केवल 54 लाख परिवारों को भूमि मिली जिनमें केवल 48.9 लाख एकड़ भूमि का पुनर्वितरण किया गया। कुल मिलाकर पुनर्वितरित भूमि का कुल रकबा देश में कुल उपलब्ध भूमि का 2 प्रतिशत से भी कम है। तीन राज्यों केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा को छोड़कर, प्रत्येक राज्य में पुनर्वितरित भूमि का रकबा कुल उपलब्ध भूमि के 1 प्रतिशत से भी कम था।

एक अनुमान के अनुसार 1950 और 1960 के दशक में देश में हदबंदी के बाद भूमिहीन परिवारों के बीच वितरण के लिए कुल 63 लाख एकड़ से ज़्यादा भूमि उपलब्ध थी। हालांकि अभी तक 50 लाख एकड़ से ज्यादा जमीन का वितरण नहीं किया गया है। मतलब कि कुल उपलब्ध ज़मीन भी भूमिहीनों में नहीं बांटी गई। हाल ही में भारत सरकार द्वारा जारी किए गए आंकड़े स्थिति को और ज़्यादा स्पष्ट करते हैं। आंकडे बताते है कि 2015 तक देश में 68.45 लाख एकड़ क्षेत्र को अधिशेष घोषित किया गया था, जिसमें से 61.4 लाख एकड़ भूमि को क़ब्ज़े में लिया गया है और 57.25 लाख लाभार्थियों को 50.94 लाख एकड़ क्षेत्र वितरित किया गया है। मतलब लगभग 7 लाख एकड़ भूमि अभी तक सरकारों द्वारा क़ब्ज़े में ही नहीं ली गई है। इससे भी अहम बात यह है कि 10 लाख एकड़ से ज़्यादा ज़मीन सरकारों ने अपने क़ब्ज़े में ली है, लेकिन अब तक वितरित नहीं की गई है। कुल मिलाकर लगभग 18 लाख एकड़ अधिशेष घोषित भूमि भूमिहीनों में बांटी जा सकती है।

इसके आलावा सरकारी बंजर भूमि की श्रेणी में एक बड़ा क्षेत्र आता है जो राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति 2013 के प्रारूप के अनुसार देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 20 प्रतिशत से अधिक है। वहीँ भारत के बंजर भूमि एटलस, 2019 में बताया गया है कि 2015-16 में कुल बंजर भूमि का क्षेत्रफल लगभग 5.6 करोड़ हेक्टेयर था। इसमें से हम केवल कृषि योग्य बंजर भूमि पर ग़ौर करेंगे। 1950-51 में, लगभग 2.3 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य बंजर भूमि थी, जो 2018-19 में घटकर लगभग 1.2 करोड़ हेक्टेयर रह गई। हालांकि, वर्ष 2015 तक, देश में केवल 62 लाख हेक्टेयर बंजर भूमि का वितरण किया गया था। दूसरे शब्दों में, शेष लगभग 60 लाख हेक्टेयर बंजर भूमि को संभावित रूप से भूमिहीन परिवारों के बीच वितरित किया जा सकता है।

कृषि के भूमि आंदोलनों से अपने वर्ग हितों की रक्षा के लिए हुक्मरानों ने भूदान आंदोलन को देश में काफ़ी प्रचारित किया था लेकिन इसमें जो ज़मीन दान में मिली थी वह भी भूमिहीनों तक नहीं पहुंची। एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 1950 के मध्य तक भूदान आंदोलन के तहत लगभग 21.7 लाख एकड़ भूमि जुटाई गई थी। लेकिन वर्ष 2015 तक सभी राज्यों में लगभग केवल 16.66 लाख एकड़ भूदान भूमि भूमिहीनों में बांटी गई है। बाक़ी की 5 लाख एकड़ भूमि पर रहस्य बना हुआ है।

अब बात करते है आदिवासियों के लिए ज़मीन की। आदिवासी और अन्य पारंपरिक वन निवासियों के लिए तो ज़मीन चिन्हित करने की ज़रूरत ही नहीं है। वह तो अपनी ज़मीन पर रह रहे है और उनको केवल ज़मीन का अधिकार देना है। इसके लिए वन अधिकार क़ानून भी है लेकिन सरकार तो अपने वर्ग के कोर्पोरेट हितों के लिए आदिवासी और अन्य पारंपरिक वन निवासियों को उनकी ज़मीन से विस्थापित कर रही है। 30 जून 2022 तक, भारत में 44.46 लाख दावे वन अधिकार क़ानून के तहत दायर किए गए थे और उनमें से केवल 22.35 लाख दावों को स्वीकार किया गया था। मतलब कुल दावों में से 50 प्रतिशत को ज़मीन से बेदखल किया जायेगा।

हालांकि सरकारी अभिलेखों में ख़ाली दर्शाई गई और बंजर भूमि के कुछ भाग पर भूमिहीन दलित और आदिवासी लोग खेती करते हैं। इन जमीनों पर उन्हें भूमि स्वामित्व का अधिकार दिया जाना चाहिए। लेकिन हाल ही में ज़्यादातर राज्य सरकारें, ख़ासकर बिहार और महाराष्ट्र, अतिक्रमण के नाम पर इन ज़मीनों से लोगों को बेदख़ल कर रही हैं। वितरण के लिए ज़मीन उपलब्ध होने और भूमि वितरण के लिए कई क़ानून होने बावजूद भी अगर आबादी का बड़ा हिस्सा भूमिहीन है तो यह शासकों के वर्ग हितों को साधने वाली सरकारों की नीतियों के कारण है।

नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद तो हमारे देश की मेहनतकश जनता पर वर्ग हमला तीखा हुआ है। इसी के चलते प्रचार किया जा रहा है कि भूमि सुधार की संभावनाएं समाप्त हो गई हैं और भविष्य का विकास ग्रामीण क्षेत्रों में भी केवल निजी निवेश से ही हो सकता है। इसी नीति से देश में भूमि सुधारों को पलटा जा रहा है जिसके चलते देश में भूमिहीन परिवारों की संख्या में बढ़ौतरी हुई है। एनएसएसओ के 1987-88 में 43वें दौर के सर्वेक्षण और 2011-12 के 68वें दौर के सर्वेक्षण के बीच ग्रामीण इलाकों में भूमिहीन परिवार 35 प्रतिशत से बढ़कर 49 प्रतिशत हो गए हैं।

नई आर्थिक नीतियों के दौर में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया गया कि निजी पूंजी का प्रवाह उन क्षेत्रों या राज्यों की ओर जाएगा, जहां लागत कम हो या उत्पादन अधिक कुशल हो। परिणामस्वरुप निजी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए राज्यों के बीच एक अराजक और तर्कहीन प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई। इसके लिए राज्य सरकारों ने कई तरह की रियायतें दी। निजी निवेशकों ने संभावित रियायतों पर एक समय में एक से अधिक राज्य सरकारों के साथ सौदेबाज़ी करके, इस अवसर का अपने लाभ के लिए उपयोग किया। निजी निवेश के लिए सबसे बड़ा आकर्षण बना कम क़ीमतों में अच्छी ज़मीन चाहे वह कृषि और उपजाऊ भूमि ही क्यों न हो। इसके चलते बड़े स्तर किसानों की बेदख़ली हुई और ज़मीन का केंद्रीयकरण हुआ।

भूमि सुधार की विफलता और बड़े ज़मींदारों की निरंतर उपस्थिति का केवल आर्थिक प्रभाव ही नहीं था। स्वतंत्रता के बाद ग्रामीण इलाक़ों में भू-स्वामित्व सामाजिक भेदभाव और राजनीतिक प्रभुत्व के लिए एक महत्वपूर्ण भौतिक आधार बना। प्रभुत्वशाली जाति के जमींदार गांवों में दलितों, आदिवासियों और अन्य सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े समूहों का शोषण जारी रखे थे, क्योंकि भूमि के स्वामित्व पर उनके प्रभुत्व ने उन्हें एक निश्चित सामाजिक स्वीकृति प्रदान की थी।

हमें यह समझने की ज़रुरत है कि देश का ग्रामीण भूमिहीन मेहनतकश किसी के हिस्से की नहीं बल्कि अपने हक़ की ज़मीन मांग रहा है। हज़ारों वर्षों से बल और हिंसा के प्रयोग, वर्गीय शोषण पर आधारित क़ानूनों और भेदभावयुक्त सामाजिक मान्यतायों (धार्मिक सहित) से उसको दूर रखा गया था। इतिहास गवाह है कि शोषण पर आधारित व्यवस्था में शोषित वर्ग को अपना हक़ और हिस्सा मांगने से नहीं बल्कि संघर्ष से ही मिलता है। 

(लेखक अखिल भारतीय खेतिहर मज़दूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं। इससे पहले वे छात्र आंदोलन से संबद्ध थे। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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