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ग्रामीण भारत में कोरोना-38: मज़दूरों की कमी और फ़सल की कटाई में हो रही देरी से हरियाणा के किसान तकलीफ़ में हैं

जमालपुर शेखां में गेंहूँ की कटाई से पहले ही बेमौसम बारिश और कटाई के लिए तैयार खड़ी फ़सलों के खेतों में ही बर्बाद हो जाने की आशंका को देखते हुए किसानों को स्थानीय स्तर पर उपलब्ध कटाई की मशीनों को किराये पर लेने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
ग्रामीण भारत में कोरोना
प्रतीकात्मक तस्वीर| साभार: विकिपीडिया

यह जारी श्रृंखला की 38वीं रिपोर्ट है जो ग्रामीण भारत के जीवन पर कोरोनावायरस से संबंधित नीतियों से पड़ रहे प्रभावों की झलकियाँ प्रदान करती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च की ओर से जारी इस श्रृंखला में विभिन्न विद्वानों की रिपोर्टों को शामिल किया गया है, जो भारत के विभिन्न हिस्सों में गाँवों के अध्ययन को संचालित कर रहे हैं। यह रिपोर्ट उनके अध्ययन में शामिल गांवों में मौजूद प्रमुख उत्तरदाताओं के साथ चली टेलीफोनिक साक्षात्कार के आधार पर तैयार की गई है।

यह रिपोर्ट हरियाणा के तीन गांवों (i) भिवानी जिले के चेहर कलां गाँव (ii) सोनीपत जिले के खंदराई और (iii) फतेहाबाद जिले के जमालपुर शेखां गाँव में लॉकडाउन से पड़ रहे असर को दर्शाती है।

चेहर कलां

रबी के सीजन में यहाँ पर मुख्य तौर पर गेहूँ और सरसों की फसल उगाई जाती है जबकि ख़रीफ़ के सीजन में कपास, बाजरा और ग्वार की खेती की जाती है। चेहर कलां की आबादी में जाट, खाती, धानक, चमार, बनिया, कुम्हार, ब्राह्मण और नाई जातियों के समूह शामिल हैं। सामाजिक-आर्थिक लिहाज से जाट यहाँ के प्रभावी जाति समूह के तौर पर हैं और अधिकांश खेती लायक जमीनों के मालिक हैं। चमार और धानक घर अनुसूचित जाति की सूची में आते हैं और उनमें से ज्यादातर या तो भूमिहीन हैं या जमीन के बेहद मामूली हिस्से के मालिक हैं। इन घरों के ज्यादातर लोग खेतिहर या गैर-खेतिहर गतिविधियों में दिहाड़ी मजदूर के बतौर कार्यरत हैं। इन भूमिहीन और छोटी जोत के भू-स्वामी परिवारों के श्रमिक अक्सर गाँव के बड़े जमींदारों के साथ दीर्घावधि के लिए श्रम अनुबंध पर नियुक्त किये जाते हैं। इस प्रकार के अनुबंध को सिरी या मुज़रा सिस्टम के नाम से जाना जाता है।

इसके अंतर्गत आमतौर पर श्रमिक (मुज़रा) अपने घर के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर जमींदार के खेतों के हिस्से पर खेतीबाड़ी के कार्यों को संपन्न करते हैं। बदले में इस दीर्घकालिक मजदूर को इस उपज से एक हिस्सा प्राप्त होता है। कई बार उत्पादन में प्रयुक्त लागत सामग्री के एक हिस्से को भी मुज़रा को साझा करना पड़ता है। गाँव में उत्पादित होने वाली उपज में हिस्सेदारी और खर्चे का अनुपात अलग-अलग हो सकता है, और यह सब जमीन की किस्म,  सिंचाई के लिए आवश्यक सुविधा और मुज़रा और जमींदार के बीच के आपसी सामाजिक संबंधों पर निर्भर करता है। उत्पादन के लिए जहाँ मुज़रा को हर प्रकार के श्रम को मुहैया कराना होता है, वहीं फसल सम्बंधी सभी फैसले जिसमें क्या बुवाई की जानी है, या कौन से इनपुट इस्तेमाल में लिए जाने हैं और कहाँ और कैसे उपज को बेचा जाना है, ये सभी फैसले जमीन के मालिक द्वारा लिए जाते हैं।

खन्दराई

यहाँ पर जो फसलें मुख्य तौर पर उगाई जाती हैं उनमें गेहूँ, धान, कपास और गन्ने की खेती प्रमुख हैं। गाँव के निवासियों में चमार, धानक, जाट, झिमार, कुम्हार, और खाती आदि शामिल हैं। यहाँ के ग्रामीण दिहाड़ी खेतिहर मजदूरी करने के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के गैर-खेतिहर कार्यों जैसे कि कंस्ट्रक्शन, लोडिंग/अनलोडिंग और पशुपालन जैसे कार्यों में दिहाड़ी मजदूर के तौर पर कार्यरत हैं। कई मजदूर यहाँ से 5 किमी की दूरी पर स्थित गोहाना शहर में भी काम के सिलसिले में जाते हैं।

जमालपुर शेखां

गाँव में रबी की फसल में गेहूं की खेती प्रमुखता से की जाती है, जबकि खरीफ के सीजन में धान और कपास की खेती की जाती है। गाँव में ज़मीन का ज्यादातर मालिकाना हक़ जिन जातियों के पास है उनमें मेहता और जाट सिख परिवार प्रमुख हैं और उनके बाद कम्बोज (पिछड़ी जाति) के घरों के पास जमीनें हैं। पिछड़ी जाति के कई सैनी घरों के पास भी छोटी-मोटी जोते हैं। जबकि ओढ़, चमार और बाजीगर समुदायों (अनुसूचित जाति) से जुड़े परिवार भूमिहीन कृषक की श्रेणी में आते हैं। जमींदार परिवारों में खेती-किसानी और पशुपालन का कामकाज मुख्य व्यवसाय के बतौर पर किया जाता है, जबकि भूमिहीन परिवारों के लोग मुख्य रूप से दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करते हैं। भूमिहीन घरों के कई वयस्क सदस्य भी काम के सिलसिले में नजदीकी शहर टोहाना जाया करते हैं।

खेतीबाड़ी के काम पर असर

जब कोरोनावायरस की वजह से पहली बार राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन लागू हुआ था तो उस दौरान गेहूं की फसल खेतों में कटने के लिए तैयार खड़ी थी। इन गांवों में गेहूं की कटाई का काम हाथ से संपन्न करने के साथ-साथ कंबाइन हार्वेस्टर के इस्तेमाल का भी चलन है। छोटे किसान बिना मशीनों की मदद के ही फसलों की कटाई को तरजीह देते हैं क्योंकि इसके जरिये उन्हें अपने पशुओं को खिलाने के किये कहीं अधिक सूखा चारा मिल जाता है। मशीनों से कटाई के दौरान चारे की गुणवत्ता में कमी आने के साथ-साथ प्रति एकड़ कम मात्रा में ही चारा उपलब्ध हो पाता है। बड़े और मझौले स्तर के किसान मुख्यतया कंबाइन हार्वेस्टर को ही इस्तेमाल में लाते हैं, लेकिन अपने स्वयं के पशुओं के लिए पर्याप्त चारे की व्यवस्था करने के लिए वे भी खेत के छोटे हिस्से पर हाथों से फसल की कटाई करते हैं। गेंहूँ की कटाई के दौरान ज्यादातर खेतिहर मजदूरों की कमी को आमतौर पर राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार से आने वाले प्रवासी मजदूरों से भरपाई करा ली जाती रही है। लेकिन लॉकडाउन की वजह से इस सीजन हरियाणा में प्रवासी श्रमिकों की हर साल की तरह होने वाली आवक नहीं हो पाई है, और इसकी वजह से इन तीनों गावों को खेतिहर मजदूरों की कमी का जबर्दस्त संकट झेलना पड़ा है।

लॉकडाउन की वजह से चेहर कलां में खेतीबाड़ी से संबंधित सभी काम-काज में तकरीबन 25 दिनों का विलम्ब हो चुका है। लॉकडाउन के शुरुआती दौर में किसानों को कटाई समेत खेतीबाड़ी के किसी भी काम को करने की अनुमति नहीं दी गई थी। बाद में जाकर इन प्रतिबंधों में ढील दे दी गई। लेकिन कटाई से पहले हुई बेमौसम बरसात और हवा के थपेड़ों ने गेहूं की फसल को काफी नुकसान पहुँचा दिया था, जिसके चलते कई जगह बालियाँ एक ओर झुक गई थी (इस परिघटना को ’लॉजिंग’ कहते हैं)। इसकी वजह से मशीनों से कटाई का काम और भी ज्यादा मुश्किल हो गया था, और खेतिहर मजदूरों की माँग पहले से कहीं ज्यादा बढ़ चली थी। खेतिहर मजदूरों की कमी को थोडा बहुत गैर-खेतिहर कार्यों में लगे दिहाड़ी मजदूरों की उपलब्धता ने पूरा कर दिया था, जो लॉकडाउन की वजह से बेरोजगार बैठे थे।

हालांकि जितनी संख्या में खेत मजदूरों की आवश्यकता थी उतने के लिए यह संख्या पर्याप्त नहीं थी। इस कमी के चलते इस लॉकडाउन के दौरान चेहर कलां में खेतीबाड़ी के कामकाज के लिए मजदूरी की दरों में भी इजाफा हुआ है। पहले जहाँ प्रति एकड़ गेंहूँ की कटाई और उन्हें इकट्ठा करके रखने के लिए प्रवासी मजदूरों को प्रति एकड़ के हिसाब से दो कुंतल गेहूँ का भुगतान किया जाता था, वहीं अब इन कामों के लिए मजूरों को प्रति एकड़ के हिसाब से ढाई से लेकर तीन कुंतल गेंहूँ का भुगतान करना पड़ रहा है। पीस रेट पर थ्रेशिंग के काम में लगने वाले मजदूरों के एक समूह को भी अब 1,500 रुपये के बजाय 3,000 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से मजदूरी दी जा रही है।

लेकिन जहाँ मजदूरों की अनुपलब्धता और मजदूरी की ऊँची दरों के कारण छोटे और मझौले स्तर के किसानों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है, वहीं चेहर कलां के बड़े किसानों को इसकी वजह से कोई परेशानी नहीं हुई है क्योंकि मुज़रा नियमों के तहत उनके लिए श्रम की कोई समस्या नहीं उठ खड़ी हो पाई है। लॉकडाउन के दौरान जब खेतीबाड़ी के कामकाज पर से प्रतिबंधों को उठा लिया गया था तो मुज़रा अपने निर्धारित काम को कर सकने के लिए स्वतंत्र थे। हालांकि जहाँ दूसरे खेतिहर मजदूरों को अपनी मजदूरी में कुछ समय के लिए बढ़ोत्तरी का फायदा मिला है, मुज़राओं को उपज की हिस्सेदारी में उसी अनुपात में कोई वृद्धि नहीं मिलने जा रही है।

खंदराई में दिहाड़ी पर काम करने वाले गैर-खेतिहर मजदूरों ने कटाई के दौरान खेतीबाड़ी के कामकाज को संभाल लिया था। हालांकि कटाई और थ्रेशिंग के काम के लिए मजदूरों को दिए जाने वाले अनाज की मात्रा में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की गई है, लेकिन लोडिंग/अनलोडिंग जैसे दूसरे कामों के लिए मजदूरी की दर 500 रुपये से बढ़कर 700 रुपये प्रतिदिन की कर दी गई है। यहां के कई किसान हर साल फसल की कटाई के सीजन में पंजाब से आने वाले कंबाइन हार्वेस्टरों पर निर्भर रहा करते थे। खंदराई के उत्तरदाताओं ने बताया कि इस साल लॉकडाउन की वजह से कंबाइन हार्वेस्टर के आने में करीब 20 दिन की देरी हो गई थी। इसका मतलब यह हुआ कि पूरी तरह से पक कर कटने के लिए तैयार खड़ी गेंहूँ की फसल खेतों में खड़ी रही, क्योंकि हाथ से कटाई के लिए आवश्यक श्रम शक्ति उपलब्ध नहीं थी। लेकिन उनके आने में इस देरी के बावजूद कृषि उपकरण और मशीनों के किराये की दर में कोई परिवर्तन देखने को नहीं मिला है।

वहीं जमालपुर शेखां में गेंहूँ की कटाई से पहले हुई बेमौसम बारिश ने और खेतों में कटने के लिए तैयार खड़ी फसल को होने वाले संभावित नुकसान ने किसानों को स्थानीय स्तर पर उपलब्ध हार्वेस्टिंग मशीनों को किराए पर इस्तेमाल करने के लिए मजबूर किया है। लेकिन इसके कारण प्रति एकड़ पशुओं के लिए उपलब्ध होने वाले चारे की मात्रा में गिरावट हुई है। इस गाँव में मजदूरी की दरों में कोई बदलाव देखने को नहीं मिला है।

रबी की फसल की कटाई में होने वाली देरी के कारण कपास की बुवाई में इस साल 20 से 25 दिनों की देरी हो चुकी है। किसानों के लिए कपास की बुआई का आदर्श समय 15 अप्रैल के आस-पास का होता है। रबी की फसल की कटाई के बाद किसान अपने खेतों में खाद का छिड़काव भी किया करते हैं, ताकि मिट्टी की उर्वरता और पोषक तत्वों में वृद्धि हो सके। लेकिन चूँकि इस बार कटाई देरी से पूरी हो पाई है, इसलिए किसान इस बार इस प्रक्रिया को ही छोड़ने के लिए मजबूर कर दिए गए। चेहर कलां स्थित एक उत्तरदाता के अनुसार, जो इस बात का इन्तजार कर रहे थे कि फसलों की कटाई के तत्काल बाद वे खेतों में कपास की बुवाई शुरू कर सकें, का अनुमान है कि इसकी वजह से इस बार फसल की पैदावार में 30-40% की गिरावट देखने को मिल सकती है।

छोटे किसान आम तौर पर खेतों में अपनी उपज की कटाई के बाद इसे सीधे मंडियों में बेचने के लिए ले जाया करते थे। लेकिन इस बार लॉकडाउन की वजह से मंडियां बंद पड़ी थीं और उन्हें अपनी उपज को या तो खेतों में ही या अपने घरों में भंडारण करके रखने के लिए मजबूर होना पड़ा है। जमालपुर शेखां के लिए मंडी इस बार मई के पहले हफ्ते चालू हो पाई है और खान्दराई के लिए मई के दूसरे हफ्ते में इसका संचालन हो सका है। लेकिन मण्डियों में एक समय में कितने लोग होने चाहिये, इसकी आवक को नियंत्रित करने के लिए जो नए नियम-कानून क्रियान्वयन में लाये गए हैं, उसका लुब्बोलुबाव यह है कि ज्यादातर किसान मण्डियों में अपनी उपज को ले जाने की अपनी बारी के इन्तजार में ही अटके पड़े हैं। सामाजिक दूरी के नियम के लक्ष्य को हासिल करने के लिए कमीशन एजेंटों को प्रति दिन गेंहूँ की मात्र चार से पाँच ट्राली की ही खरीद की अनुमति हासिल है। इसे देखते हुए सरकार ने चेहर कलां में सार्वजनिक स्थल पर अस्थाई मंडी की स्थापना की है। 15 मई से इसने अपना कामकाज शुरू कर दिया है और आख़िरकार अब जाकर आम लोगों से खाद्यान की खरीद का काम जोर पकड़ सका है।

लॉकडाउन के दौरान खेती से सम्बंधित इनपुट की बिक्री से जुडी दुकानों को रोजाना कुछ निश्चित घंटों के लिए ही खोले रखने की अनुमति मिली हुई थी। फिलहाल इन दुकानों में कृषि इनपुट अधिकतम खुदरा मूल्य से 10-20% अधिक की कीमतों पर बेचीं जा रही हैं।

छोटे और मझौले किसान अपनी उपज को बेच पाने में असमर्थता और कृषि इनपुट वाली वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि ने उनकी दुश्चिंताओं को बढ़ा दिया है। इनमें से कईयों के पास आज की तारीख में खरीफ की फसल के लिए आवश्यक कृषि इनपुट की खरीद के लिए नकदी नहीं बची है।

पशुधन अर्थव्यवस्था पर पड़ता प्रभाव

इन तीनों गाँवों में पशुधन के प्रबंधन और दूध की बिक्री बेहद महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधियों में से एक है। भारी तादाद में छोटे और मझौले किसान पशुपालन के क्षेत्र में कार्यरत हैं और खेती से होने वाली अपनी आय की कमी को इसके जरिये पूरा किया करते हैं। लॉकडाउन के दौरान जिन लोगों के पास पशुधन है, उन्हें अपने जानवरों के लिए चारे का इंतजाम करने में काफी दिक्कतें पेश आई हैं। पशुओं के चारे की बिक्री करने वाली दुकानें दिन में केवल तीन से चार घंटों के लिए ही खुलती थीं, और वे उत्पादों को काफी ऊँचे दरों पर बेच रहे हैं।

इन तीनों गावों में लॉकडाउन के बाद से पशुओं के चारे की कीमतों में काफी वृद्धि देखने को मिली है। उदाहरण के लिए खल (कपास के बीजों से निर्मित टुकड़े) की कीमतों में 500 से लेकर 600 रूपये प्रति कुंतल की वृद्धि हुई है। पशुओं के चारे में जहाँ बढ़ोत्तरी हुई है वहीँ चेहर कलां और जमालपुर शेखां में दोनों जगहों पर दूध की कीमतें गिर चुकी हैं। लॉकडाउन के पहले 20-25 दिनों के दौरान इन दोनों गाँवों से दूध की खरीद में काफी गिरावट देखने को मिली। जमालपुर शेखां में जहाँ दूध की खरीद 75 रुपये प्रति लीटर की हुआ करती थी, लॉकडाउन के दौरान यह गिरकर 50 रूपये प्रति लीटर रह गई थी। मई के पहले हफ्ते तक यही हाल बना हुआ था। जबकि चेहर कलां में उत्पादित होने वाले अधिकतर दूध की खरीद का काम एक निजी डेयरी और सहकारी डेयरी द्वारा संपन्न होता था। लॉकडाउन के दौरान खरीद में गिरावट के साथ ही उसकी खरीद को भी धक्का लगा था, और इसकी खरीद मूल्य 60 रूपये से घटकर 50 रूपये प्रति लीटर रह गई थी। अप्रैल के दूसरे हफ्ते से डेयरियों की ओर से खरीद में सुधार देखने को मिला है, लेकिन अभी भी कीमतें लॉकडाउन से पहले की तुलना में 3 से 4 रुपये कम पर ही बनी हुई हैं।

जबकि खंदराई में गांव के भीतर ही दूध की खरीद और आपूर्ति होने के कारण कोई व्यवधान देखने को नहीं मिला है क्योंकि यहाँ पर दूध की खरीद-बिक्री का काम मुख्य तौर पर गाँव के भीतर ही संपन्न हो जाता है। जिस दौरान लॉकडाउन चल रहा था गाँव के दूध वाले पहले की ही तरह ही गांव के भीतर पहले वाली कीमतों पर ही दूध की खरीद और बिक्री कर रहे थे।

गैर-खेतिहर काम-काज पर असर

तीनों गाँवों में खेती के अलावा सभी गैर-खेतिहर कार्य पूरी तरह से ठप पड़े हैं। जिसका नतीजा यह हुआ कि जो मजदूर गैर-कृषि गतिविधियों में लगे थे, उन्होंने पाया कि अचानक से उनके पास कोई कामकाज नहीं रह गया था। चेहर कलां और खंदराई के दिहाड़ी मजदूरों के लिए फसलों की कटाई काम रोजगार के एक स्रोत के रूप में रह गया था। फसल कटाई के सीजन में खेती से सम्बन्धित जो भी कामकाज उपलब्ध था उसने लॉकडाउन के दौरान इन श्रमिकों के लिए आय का एक स्थाई स्रोत मुहैया करा दिया है। हालांकि इस सीजन के खत्म होते ही उनके पास एक बार फिर से कोई काम-धाम नहीं रह जाने वाला, जबतक कि लॉकडाउन को पूरी तरह से हटा नहीं लिया जाता। कटाई के सीजन के खत्म होने के साथ ही अचानक से मजदूरी की दरों में जो वृद्धि देखने को मिली थी, जिसका उल्लेख उपर किया जा चुका है उसके आगे बने रहने की कोई संभावना नहीं है। वहीँ जमालपुर शेखां में अधिकतर कटाई का काम-काज मशीनों के जरिये संपन्न किये जाने की वजह से गैर-खेतिहर मजदूरों को इसका कोई फायदा नहीं मिल सका है।

जो श्रमिक शहरी इलाकों में गैर-कृषि कार्यों से सम्बद्ध थे, वे लोग लॉकडाउन के दौरान काम के लिए शहरों में नहीं आ-जा पाये थे। नौकरी अभी बची हुई है या नहीं इसको लेकर भी उनमें अनिश्चय की स्थिति बनी हुई है। खंदराई में रहने वाले एक उत्तरदाता के पास गोहाना शहर में डिलीवरी बॉय के बतौर नौकरी थी। मार्च तक की तनख्वाह उसे दे दी गई थी, लेकिन अप्रैल की तनख्वाह को देने से उसके ठेकेदार ने इंकार कर दिया था। उत्तरदाता ने सूचित किया है कि टीवी पर प्रधानमंत्री द्वारा सभी नियोक्ताओं को लॉकडाउन के दौरान अपने कर्मचारियों को पूरी तनख्वाह देने का अनुरोध किया गया था। जिसने उसे और दो अन्य सहकर्मियों को इस बात के लिए उकसाया कि वे ठेकेदार से अप्रैल की तनख्वाह भी दिए जाने की दरख्वास्त करें। नतीजे के तौर पर वे तीनों ही नौकरी से बर्खास्त कर दिए गए हैं।

दिहाड़ी मजदूरों को सरकार की ओर से किसी भी प्रकार की वित्तीय सहायता नहीं मिली है और मनरेगा का काम भी इस लॉकडाउन के दौरान पूरी तरह से ठप पड़ा हुआ था।

खाद्य पदार्थों की कीमतों और खाद्य सुरक्षा पर असर

इन तीनों गांवों में खाद्य पदार्थों की कीमतों में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई है। लॉकडाउन के दौरान आलू की कीमतों में दोगुने से अधिक की वृद्धि देखने को मिली है और अधिकतर हरी और पत्तेदार सब्जियों की कीमतों में 20 से लेकर 30% की बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है। सरसों के तेल की कीमत में 20-25% की वृद्धि हुई है। खंदराई में मौजूद उत्तरदाताओं ने बताया है कि नजदीक के शहर (गोहाना) में कीमतें अपेक्षाकृत कम हैं, लेकिन सड़कों पर आवाजाही अवरुद्ध होने की वजह से वे लोग वहां नहीं जा पा रहे हैं। जिसके फलस्वरूप या तो उन्हें गाँव में ही महँगे दामों पर वस्तुओं की खरीद के लिए मजबूर होना पड़ रहा है या फिर उन्होंने अपनी सब्जियों की खपत को ही कम कर लिया है। कीमतों में आई इस बेतहाशा वृद्धि ने इन गाँवों के निवासियों की खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न कर दिया है।

तीनों गांवों के उत्तरदाताओं ने इस तथ्य से अवगत कराया है कि सभी राशन-कार्ड धारक परिवारों को उनके मार्च और अप्रैल के अनाज का नियमित कोटा मिल चुका है। साल के इस समय तक ज्यादातर ग्रामीणों का साल भर का स्टॉक किया हुआ अनाज का कोटा खत्म होने की कगार पर होता है और वे एक बार फिर से गेंहूँ की फसल के भंडारण के लिए प्रतीक्षारत रहते हैं। लेकिन चूँकि लॉकडाउन की वजह से सारे कामकाज पूरी तरह से ठप पड़े थे इसलिए लोग समय पर अनाज के वितरण पर काफी हद तक निर्भर थे।

हमारे उत्तरदाताओं के कथनानुसार इन तीनों गांवों में से किसी को भी अभी तक राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के तहत मुफ्त में वितरित किये जाने वाले अतिरिक्त पांच किलो खाद्यान्न, और प्रति व्यक्ति के हिसाब से एक किलो दाल की आपूर्ति नहीं हुई है, जिसे एनएफएसए के तहत आने वाले सभी घरों में तीन महीनों के लिए मुफ्त वितरित किया जाना था।

तीनों गांवों में जो बच्चे सरकारी प्राइमरी स्कूलों में नामांकित हैं, उनके घरों में सूखे राशन के पैकेट आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं द्वारा वितरित कर दिए गए हैं। प्राथमिक स्तर पर प्रत्येक पैकेट में छात्रों के लिए एक किलो गेहूं और दो किलो चावल की व्यवस्था की गई थी। ये पैकेट सिर्फ अप्रैल माह में ही वितरित किये गए थे।

कुलमिलाकर इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि गाँवों में रह रहे लोग इस महामारी की विभीषिका के प्रति जागरूक हैं और जो भी ज़रूरी एहतियात इस सम्बन्ध में लिए जाने की आवश्यकता है उसे अपना रहे हैं। लेकिन साथ ही साथ वे जिन्दा रहने के लिए वे अपनी आजीविका की क्षमता को लेकर भी बेहद चिंतित हैं। हमारे उत्तरदाताओं ने इस बाबत अवगत कराया है कि इस लॉकडाउन के दौरान भोजन एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं की खरीद के कारण उनके पास जो कुछ भी थोड़ी-बहुत बचत थी, उससे वे हाथ धोने की कगार पर खड़े हैं।

दिहाड़ी मजदूरों को इस लॉकडाउन के दौरान फसलों की कटाई के दौरान आकस्मिक तौर पर बढ़ी हुई दरों पर मजदूरी का फायदा मिल गया था, जो मुख्यतया मजदूरों की कमी के चलते बढ़े हुए रेट पर मजदूरी की दरों में उन्हें प्राप्त हो सका। हालाँकि जैसे-जैसे फसलों की कटाई का सीजन अपने खात्मे की ओर है, लेबर मार्केट में आये इस माँग की उछाल के भी खात्मे की पूरी संभावना है, और दिहाड़ी मजदूरों के पास एक बार फिर से कोई काम नहीं रहने वाला है। उनके अस्तित्व के लिए आय और भोजन सहायता कार्यक्रम काफी महत्वपूर्ण होने जा रहे हैं। यदि इनके लिए आवश्यक कार्य के अवसर या भोजन सहायता कार्यक्रम से जल्द मदद नहीं पहुँचाई जायेगी तो इन दिहाड़ी मजदूरों के पास खुद के लिए भोजन की खरीद के लिए आवश्यक क्रय शक्ति नहीं बची है।

[2018 में इन तीनों गांवों के सर्वेक्षण का काम सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च के शोधकर्ताओं और विद्वानों के एक समूह द्वारा यहाँ के निवासियों द्वारा अपनाई जा रही खेतीबाड़ी की पद्धतियों और आजीविका पर अध्ययन के लिए संचालित की गई थी। यह रिपोर्ट 3 मई से 16 मई 2020 के बीच संचालित टेलीफोनिक साक्षात्कारों पर आधारित है।]

उमेश कुमार यादव ट्राइकांटिनेंटल: इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च में एक शोधकर्ता हैं।

वैशाली बंसल, सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में एक रिसर्च स्कॉलर हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

COVID-19 in Rural India-XXXVIII: Haryana Farmers Under Distress Due to Labour Shortage and Delay in Harvesting

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