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विज्ञान व तकनीक के विकास से मज़दूरों की सुरक्षा में सुधार क्यों नहीं?

जिस दिन चंद्रयान-3 के लैंडिंग की तैयारी चल रही थी उसी दिन सुबह में मिजोरम पहाड़ी दर्रे पर निर्माणाधीन रेल पुल पर बन रहा गैंट्री गिरने से क़रीब 26 मज़दूरों की मौत हो गई।
workers safety
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : गूगल

जिस समय देश में चंद्रयान-3 की चंद्रमा पर सफल लैंडिंग की महान तकनीकी कामयाबी का इंतजार हो रहा था, उसी दिन सुबह 10 बजे मिजोरम की राजधानी आइजोल से 21 किलोमीटर दूर भैरबी-सैरांग रेलवे लाइन के लिए एक पहाड़ी दर्रे पर निर्माणाधीन रेल पुल के पिलर्स के ऊपर बनाया जा रहा प्लेटफॉर्म या गैंट्री नीचे जमीन पर आ गिरा। मौके पर लगभग 40 श्रमिक मौजूद थे। अब तक 26 की मृत्यु की खबर है। प्रधानमंत्री और रेल मंत्री ने दुख और संवेदना व्यक्त की है और मृतकों के आश्रितों व घायलों के लिए एक्स ग्रेशिया सहायता की घोषणाएं की हैं।

अभी तक कोई आधिकारिक बयान नहीं है कि पुल क्यों गिरा। पर भारत में निर्माण कार्यों के दौरान पुल गिरने जैसी दुर्घटनाएं कोई दुर्लभ खबरें नहीं है। जून में बिहार में गंगा नदी पर बन रहा एक पुल एक साल के अंदर ही दूसरी बार गिर गया था। पिछले साल अक्टूबर में मोरबी, गुजरात में मरम्मत के बाद खोला गया झूलता पुल गिर जाने से 135 व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी।

पुलों के गिरने की ही नहीं निर्माणाधीन मेट्रो लाइन गिर जाने, सड़क धंस जाने, इमारतों के ढह जाने, कारखानों में मशीनों के लुढ़क जाने, बांधों के बह जाने, आदि निर्माण के दौरान होने वाले ऐसे हादसों में श्रमिकों की मौत की खबर भारत में इतनी आम है कि इस पर कोई खास नोटिस तक नहीं लिया जाता कि रॉकेट, मिसाइल व उपग्रह इंजीनियरिंग, परमाणु रिएक्टर से लेकर युद्धक विमान, पनडुब्बी आदि निर्माण की आधुनिक तकनीक में इतनी उन्नति हासिल करने वाले देश में इमारत, सड़क, पुल निर्माण जैसा मनुष्य द्वारा हजारों साल से बहुत भारी तादाद में किये जा रहे बुनियादी काम की तकनीक में आखिर ऐसी क्या समस्या है कि इसमें हादसे व श्रमिकों की मौतें इतनी आम हैं? इस सवाल की उपेक्षा कर उन्नत आधुनिक तकनीकी विकास के सारे दावों में क्या एक बडा खोखलापन नहीं है?

भारत सरकार, अकादमिक शोधों व इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन के अध्ययनों के आंकड़ों के आधार पर रिपोर्ट है कि भारत में सालाना 45 से 48 हजार मजदूर काम से जुड़े हादसों में जान गंवाते हैं। हालांकि भारत सरकार इसके आधिकारिक आंकड़े उपलब्ध नहीं कराती पर विभिन्न शोधों का अनुमान है कि भारत में प्रति वर्ष एक लाख मजदूरों पर 8,700 चोट लगने वाली दुर्घटनाएं होती हैं और इनमें प्रति एक लाख श्रमिक सालाना 11.4 की मृत्यु होती हैं। इसमें से लगभग एक चौथाई अर्थात 24.20% मौतें मात्र निर्माण क्षेत्र के मजदूरों की होती हैं। निर्माण क्षेत्र भारत में रोजगार से सबसे बड़े क्षेत्रों में से एक है किंतु इसमें कानूनों-नियमों का पालन भी अत्यंत कम होता है। मजदूर असंगठित हैं और मालिक जो थोड़ा बहुत मुआवजा दे या न दे अक्सर उससे ही उन्हें संतुष्ट होने को मजबूर होना पड़ता है।

कार्य स्थल पर सुरक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली ब्रिटिश सेफ़्टी काउंसिल (इसका दफ्तर भारत में भी है) की रिपोर्ट है कि अन्य सभी क्षेत्रों में तकनीकी विकास के बावजूद भारत में निर्माण क्षेत्र में सुरक्षा की मौजूदा स्थिति वैसी ही है जैसी ब्रिटेन में 60 साल पहले थी और अनुमानतः मात्र 20% मजदूर ही ऐसे क्षेत्र में काम करते हैं जहां सुरक्षा व मुआवजा के कुछ नियमों का पालन किया जाता है। नतीजा यह है कि निर्माण क्षेत्र में हर रोज 38 घातक दुर्घटनाएं होती हैं।

नियमों का पालन न होने की बड़ी वजह है कि अधिकांश निर्माण कार्य असंगठित क्षेत्र में है या श्रमिकों की औपचारिक संख्या कम रखकर दिखाया जाता है। वैसे औपचारिक क्षेत्र में भी नियमन की स्थिति बेहद खराब ही रही है क्योंकि 2017 में औसतन 506 पंजीकृत इकाइयों पर एक ही इंस्पेक्टर नियुक्त था। इंडिया स्पेन्ड वेबसाइट द्वारा श्रम व रोजगार मंत्रालय के डायरेक्टर जनरल फैक्ट्री अड्वाइस सर्विस एंड लेबर इंसटीट्यूट्स से सूचना के अधिकार के अंर्तगत प्राप्त जानकारी के अनुसार 2018 से 2020 के बीच पंजीकृत कारखानों में 3,331 श्रमिकों की मृत्यु हुईं, किंतु 1948 के फैक्ट्री कानून के तहत किए गए सुरक्षा व लापरवाही संबंधी प्रावधानों के बावजूद मात्र 14 व्यक्तियों की गिरफ्तारी हुई। जुलाई 2022 में राजधानी दिल्ली के मुंडका के उद्योगों के लिए प्रतिबंधित लाल डोरा क्षेत्र में बिना फायर ब्रिगेड अनुमति के चलाई जा रही इलेक्ट्रॉनिक फैक्ट्री में आग से 27 मजदूरों की मृत्यु हो गई थी। पुलिस ने वैसे तो गैर इरादतन हत्या का मुकदमा दर्ज किया है लेकिन वास्तविक इल्जाम मात्र लापरवाही का लगाया है। इससे मालिक के वकील की कोशिश है कि अदालत में आरोप को और हल्का करा लिया जाए। देश की राजधानी में ही 27 मजदूरों की दुखद मृत्यु के जघन्य अपराध पर कानूनी कार्रवाई की यह हालत है। हर दिन औसत 3 मृत्यु वाले पंजीकृत उद्योगों का यह हाल है तो देश के 90% गैर पंजीकृत उद्योगों वाले श्रमिकों की सुरक्षा के हालात की कल्पना ही की जा सकती है।

उसके बाद कोविड लॉक डाउन के दौरान स्थितियां और भी बदतर हुईं और मजदूरों को श्रम कानूनों में मिलने वाली कानूनी सुरक्षा में बहुत अधिक ढील दी गई है। 44 श्रम कानूनों की जगह अब जो नये 4 लेबर कोड लाए गए हैं उनमें तो अन्य श्रम अधिकारों की तरह सुरक्षा उपायों के क्षेत्र में भी पूंजीपतियों को और छूट दे दी गई है। कानूनी विशेषज्ञों व ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं का मानना है कि 1948 के कानून के मुकाबले 2020 का ऑक्यूपेशनल सेफ़्टी एंड हेल्थ कानून बहुत नरम है। कानून पावर इस्तेमाल करने वाले उद्योगों में 10 से अधिक श्रमिक होने और गैर पावर उद्योगों में 40 से अधिक श्रमिक होने पर ही लागू होगा। ऐसे उद्योग कुल उद्योगों का मात्र 1.4% हैं। इस कानून के मुताबिक खतरनाक उद्योगों में 250 श्रमिकों से अधिक और अन्य में 500 से अधिक श्रमिक होने पर ही सुरक्षा कमेटी बनाने की आवश्यकता होगी। बहुत से प्रावधानों के लिए अब कोई इन्स्पेक्शन किया ही नहीं जाएगा और मालिक पूंजीपति द्वारा खुद ही सर्टिफिकेट जारी किया जाएगा कि सब सुविधाओं का इंतजाम किया गया है और सुरक्षा उपाय पर्याप्त हैं। श्रम विभाग इस सर्टिफिकेट को ही सच्चाई मान लेगा!

इतनी कमजोर कानूनी व्यवस्था एवं कानूनों का उससे भी कमजोर अनुपालन ही पूंजीपतियों को यह मौका देता है कि वह आधुनिक तकनीक द्वारा विकसित व उपलब्ध कराये गये समस्त सुरक्षा उपायों का प्रयोग नहीं करते ताकि उन्हें मजदूरों की सुरक्षा पर खर्च घटाकर अपना मुनाफा बढाने का मौका मिले। इस तरह समस्या सुरक्षा उपायों व तकनीकों की कमी की नहीं है, बल्कि बात यह है कि हत्यारे भारतीय पूंजीपति अपने मुनाफे की हवस पूरा करने के लिए सालाना 45 से 48 हजार मजदूरों को तो सीधे ही बलि चढा देते हैं। मजदूरों में चेतना व संगठन की कमजोरी और पूंजीपतियों के हित में काम करने वाली राज्य व्यवस्था की वजह से वे ऐसा कर पाने में अभी भी समर्थ हैं, यह तथ्य देश के विकास के सारे दावों को खोखला बनाने के लिए अकेले ही काफी है। 

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