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सोनभद्र आदिवासी जनसंहार : कौन है इसका ज़िम्मेदार?

आ रही ख़बरों में अधिकांश मीडिया द्वारा पूरे मामले को दो समुदायों (गुर्जर और आदिवासी) के बीच हिंसक भूमि विवाद से जोड़कर बताया जा रहा है। वहीं कई विपक्षी दल इसे सिर्फ़ राज्य के अपराध मुक्त ना होने से जोड़कर विरोध प्रकट कर रहें हैं।
Against the Sonbhadra massacre

अजीब विडम्बना है... एक ओर राज्यसभा में सरकार के आला मंत्री ऐलान करते हैं कि – “देश की एक-एक इंच ज़मीन से बाहर किए जाएँगे घुसपैठिए" ... लेकिन देश के अंदर प्राचीन काल से रहनेवाले सभी आदिवासियों की ज़मीनें छिने जाने के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहते। इतना ही नहीं सोनभद्र क्षेत्र के आदिवासियों द्वारा अपनी परंपरागत ज़मीनें छीने जाने का विरोध करने पर दबंग स्थानीय प्रधान द्वारा 10 लोगों को सरेआम गोलियों से भून देने के अमानवीय कृत्य पर देश के गृहमंत्री की तरफ़ से कोई बयान तक नहीं आता है। इस अमानवीय–बर्बर कृत्य के दौरान वहाँ उपस्थित पुलिस का तमाशाई बने रहना भी सवाल खड़े करता है कि शासन–क़ानून की नज़र में आदिवासी समाज की अपने ही आज़ाद देश में वास्तविक नागरिक हैसियत क्या है? हालांकि प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा इस जनसंहार कांड की जांच कमिटी बनाने व पीड़ितों के परिजनों को मुआवज़े की घोषणा देने की रस्म निभा दी गयी है। साथ ही सोनभद्र ज़िला अधिकारी को यह रिपोर्ट देने को कहा गया कि इन ग्रामवासियों को अभी तक ज़मीन के पट्टे क्यों नहीं दिये गए।

आ रही ख़बरों में अधिकांश मीडिया द्वारा पूरे मामले को दो समुदायों (गुर्जर और आदिवासी) के बीच हिंसक भूमि विवाद से जोड़कर बताया जा रहा है। वहीं कई विपक्षी दल इसे सिर्फ़ राज्य के अपराध मुक्त ना होने से जोड़कर विरोध प्रकट कर रहें हैं। जबकि तस्वीर का सबसे अहम पहलू है, यहाँ के आदिवासियों को उनकी पारंपरिक–पुश्तैनी ज़मीनों पर सरकारों द्वारा क़ानूनी अधिकार नहीं दिया जाना। जिसे संविधान की पाँचवी अनुसूची के विशेष प्रावधानों और 2006 के वनाधिकार क़ानून के तहत बहुत पहले ही दे दिया जाना चाहिए था। इसका ही भयावह नतीजा है 17 जुलाई का जनसंहार कांड।

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सिर्फ़ आंकड़े में ही नहीं बल्कि कड़वा यथार्थ यह भी है कि आज के समय में जिस रफ़्तार से सरकारों के संरक्षण में निजी व कॉर्पोरेट कंपनियों और ज़मीन माफ़ियाओं के बेलगाम खनिज लूट और प्रकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को ही ‘तेज़ विकास दर‘ का मानक बना दिया गया है। जिसके लिए आदिवासियों को बेदख़ल कर उनके जंगल–ज़मीनों को हड़पने के बढ़ते सिलसिले ने आदिवासी समाज के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा कर दिया है। क्योंकि आम समाज में ज़मीन सिर्फ़ भौतिक वस्तु है जिसकी भरपाई उचित मुआवज़े से हो सकती है। लेकिन आदिवासी समाज के लिए यह उसके सम्पूर्ण अस्तित्व और अस्मिता से जुड़ा हुआ मामला है। इसीलिए सोनभद्र से लेकर पूरे भारत वर्ष और दुनिया भर के आदिवासी जंगल–ज़मीन पर अधिकार के सवाल को ही आज सर्वप्रमुख बनाए हुए हैं। जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी विशेष सामाजिक मान्यता देने के लिए हर वर्ष 10 अगस्त को ‘अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस‘ मनाने की घोषणा कर रखी है।

तमाम तरह के सामाजिक शोध व विश्लेषणों में यह बात मानी गयी है कि आदिवासी हमारे समाज के सबसे मूल निवासियों में से हैं। जिनके पूर्वजों ने ही सबसे पहले जंगलों को साफ़-सुथरा कर मनुष्य के रहवास और जीविका के लिए भूमि तैयार की। इसीलिए जब अंग्रेज़ यहाँ आए और उन्होंने आदिवासियों को उनके जंगल-ज़मीनों से बेदख़ल करना चाहा तो कोल–विद्रोह, संताल–हूल और बिरसा मुंडा के उलगुलान जैसे अनगिनत बहादुराना विद्रोहों से उसका जवाब दिया गया था।

विडम्बना है कि कॉर्पोरेट व निजी कंपनियों को फ़ायदा पहुंचाने के लिए 2006 में बनाए गए ‘केंद्रीय वन अधिकार क़ानून‘ को लागू करने में कोताही कर केंद्र से लेकर सभी राज्य सरकारों ने समस्त आदिवासी समुदायों के साथ छलकपट किया। आंकड़े बताते हैं कि किसी भी प्रदेश में इसे मज़बूती से लागू नहीं किया गया। जिससे हज़ारों हज़ार आदिवासी बरसों बरस से अपने पुरखों की पुश्तैनी ज़मीन के क़ानूनन मालिक नहीं बन पाये। वर्तमान सरकार की तो ‘सुनियोजित लापरवाही‘ के कारण ही आज देश के लाखों आदिवासियों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा अतिक्रमणकारी क़रार देकर, उन पर बेदख़ली की तलवार लटक रही है।

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सोनभद्र उत्तर प्रदेश के सघन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। गोंड सहित अन्य कई आदिवासी समुदायों के लोग अपने पुरखों द्वारा बसाई ज़मीन पर आज़ादी के पहले से ही खेती–बाड़ी करके यहाँ रह रहें हैं। वन विभाग, ज़मीन लुटेरे नौकरशाह और भू माफ़ियाओं की नज़रें हमेशा से इनकी ज़मीनों पर लगी हुई हैं। इस क्षेत्र के आदिवासियों का कहना है कि शायद ही कोई ऐसा आदिवासी बचा होगा जिसे वन विभाग ने अब तक फ़र्ज़ी मुक़दमों में न फँसाया हो। क़ानूनी तिकड़म से 1955 में इस क्षेत्र की काफ़ी आदिवासी ज़मीनों को हड़पने हेतु ‘आदर्श कोपरेटिव सोसाईटी‘ के नाम से फ़र्ज़ी रजिस्ट्री करा ली गयी थी। बाद में एक आईएएस ने इसपर पूरा क़ब्ज़ा कर सारी ज़मीनें पत्नी व पुत्री के नाम कर दीं। इसकी जानकारी होते ही आदिवासी समाज डटकर खड़ा हो गया और ज़मीन दख़ल की सारी कोशिशों को नाकाम करता रहा। 2017 में इन ज़मीनों का बड़ा हिस्सा मूर्तिया पंचायत के दबंग प्रधान ने अवैध ढंग से अपने नाम करा ली। लेकिन स्थानीय आदिवासियों के प्रतिरोध के कारण ज़मीन दख़ल करने में बार-बार असफल होने पर 17 जुलाई को बड़े ही सुनियोजित तैयारी से जनसंहार कांड को अंजाम दिया गया।

18 जुलाई को लखनऊ में भाकपा माले (सीपीआई एमएल) द्वारा इस जनसंहार कांड के ख़िलाफ़ प्रतिवाद प्रदर्शित कर "सोनभद्र जनसंहार का कौन है ज़िम्मेदार?” पूछा जाना मायने रखता है। प्रतिवाद कार्यक्रम द्वारा राज्यपाल महोदय को भेजे गए ज्ञापन में - कांड के सभी दोषियों को कड़ी सज़ा देने और मृतकों के परिजनों को 25–25 लाख व सभी घायलों को 5–5 लाख रुपये मुआवज़ा देने की मांग की गयी। साथ-साथ यह भी मांग की गयी कि- आदिवासियों की पुश्तैनी ज़मीन का विनियमतीकरण उनके पक्ष में करते हुए जल्द से जल्द सभी को ज़मीन का पट्टा दिया जाय तथा बेदख़ली पर रोक लगाई जाए। सनद रहे कि चंद महीने पहले ही वर्तमान प्रधानमंत्री जी ने अपने चुनावी अभियान के दौरे में झारखंड के आदिवासियों को यह कहकर आश्वस्त किया था कि– “जब तक आपका ये चौकीदार है, आपके जंगल–ज़मीन पर कोई पंजा नहीं मार सकेगा!” निस्संदेह, सोनभद्र के आदिवासी भी इसे यथार्थ में अपने यहाँ लागू होता देखना चाहेंगे।

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