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सोनभद्र नरसंहार : आदिवासियों के प्रति अमानवीय होते समाज और शासन की कहानी

जैसे-जैसे इस मामले की परत दर परत खुलकर सामने आ रही है, सियासत से इसका गाढ़ा संबंध और योगी आदित्यनाथ सरकार की लापरवाही सामने आ रही है।
Sonabhadra massacre
Sonabhadra massacre. Image Courtesy: Indian Express

आदिवासी समाज के प्रति हमारे शासन-प्रशासन का क्या नजरिया है यह सोनभद्र नरसंहार से समझा जा सकता है। आदिवासी समाज शासन-सत्ता पर आश्रित होने की बजाय जंगल-जमीन के ही आसरे जीवन यापन करता रहा है। सरकार से बहुत कम उम्मीद रखने के बावजूद जनजातियों के प्रति शासन का व्यवहार अमानवीय रहा है। सोनभद्र के नरसंहार ने हमारे समाज के सामूहिक चरित्र पर सवालिया निशान लगाया है। यकीन नहीं होता कि हम 21वीं सदी में रह रहे हैं। अपने को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहने वाले देश में दिन के उजाले में दस निर्दोष आदिवासियों की हत्या कर दी गई। उत्तर प्रदेश सरकार इस घटना का दोष पूर्व सरकारों के मत्थे मढ़ रही है।  

सोनभद्र नरसंहार के तत्काल बाद ही योगी सरकार सतर्क हो गई थी। विपक्ष इसे प्रदेश सरकार के कामकाज और प्रशासनिक लापरवाही का मुद्दा बनाए, इसके पहले ही प्रदेश सरकार ने इसे विपक्ष के खाते में डाल दिया। योगी सरकार ने विपक्ष को चित्त करने के लिए इस मुद्दे पर राजनीति न करने की सलाह भी दे डाली थी। लेकिन प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस मामले में राजनीति करने का कोई अवसर छोड़ नहीं रहे हैं। कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी के सोनभद्र जाने पर सरकार ने खूब अड़ंगा लगाया और इस घटना के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा दिया था। लेकिन जैसे-जैसे इस मामले की परत दर परत खुलकर सामने आ रही है, सियासत से इसका गाढ़ा संबंध और योगी आदित्यनाथ सरकार की लापरवाही सामने आ रही है। सोनभद्र के दुद्घी क्षेत्र के विधायक ने जिस तरह से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर आरोप लगाया है उससे पूरा मामला साफ हो गया है। योगी सरकार यदि समय रहते मामले में कार्रवाई की होती तो 10 लोगों को अपनी जान से हाथ न धोना पड़ता।

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सही बात तो यह है कि इस पूरे मामले को सियासत से अलग किया ही नहीं जा सकता है। प्रदेश के पूर्व राज्यपाल सीपीएन सिंह के बड़े भाई महेश प्रसाद नारायण सिंह ने सियासत के बल पर ही सदियों से आदिवासियों के उपयोग वाली जमीन को ट्रस्ट के नाम करा लिया था। और सियासत के कारण ही खूनी भिड़ंत की आहट के बावजूद योगी सरकार ने इस मुद्दे को नजरंदाज किया। ऐसा नहीं है कि प्रशासन और जनप्रतिनिधि इस मामले से अनभिज्ञ थे। मामले की पैरवी भी हो रही थी और जमीन पर कब्जा करने से रक्तपात की भी आशंका थी। संभावित खून-खराबे की आहट को भांपते हुए सोनभद्र के दुद्धी के विधायक ने हरिराम चेरो ने 14 जनवरी को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखकर उभ्भा गांव के आदिवासियों की पैतृक भूमि पर कथित रूप से भूमाफिया द्वारा कब्जा करने और उन्हें फर्जी मामले में फंसाकर परेशान करने की जानकारी दी थी। साथ ही उन्होंने 600 बीघा विवादित जमीन और उसे फर्जी सोसायटी बनाकर भूमि हड़पने के मामले की जांच उच्चस्तरीय एजेंसी से कराने की मांग की थी। इसके बावजूद मुख्यमंत्री ने  कोई ठोस कार्रवाई नहीं की।

दुद्धी विधायक हरिराम चेरो कहते हैं, “भूमाफिया के दबाव में पुलिस और पीएसी के जवान आदिवासियों को प्रताड़ित करते हैं। ये मेरे विधानसभा का मामला नहीं है, लेकिन मैं आदिवासियों का नेता हूं, इसलिए वहां जन चौपाल लगाकर आदिवासियों ने अपनी समस्या बताई थी। जनसुनवाई के बाद मैंने आदिवासियों की समस्याओं को सीएम के समक्ष रखा था, लेकिन सीएम ने आदिवासियों की फरियाद को अनदेखा कर दिया था। अगर सीएम इस पर कार्रवाई करते तो ऐसी घटना नहीं घटती।”      

भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर भी उभ्भा गांव पहुंचे। नरसंहार में मारे गए लोगों के परिवार के लोगों से मिलने के बाद उन्होंने इसे प्रशासनिक लापरवाही बताते हुए कहा, “ नरसंहार के बाद गोंड आदिवासी खौफ में जी रहे हैं। उन्हें काफी धमकियां मिल रही हैं। पीडि़तों को सुरक्षा मुहैया कराया जाए। अगर जिला प्रशासन सुरक्षा मुहैया नहीं करा सकता तो यहां के ग्रामीणों को हथियार का लाइसेंस दिया जाए।

उम्भा गांव का यह नरसंहार आदिवासियों पर होने वाले जुल्म की पूरी तस्वीर नहीं है। पूरी तस्वीर बहुत ही भयावह है। अफसोस इस बात का है कि आदिवासियों पर रोज बेइंतहा जुल्म ढाए जा रहे हैं। आज समूचे देश में आदिवासियों के साथ जुल्म-ज्यादती और अन्याय आम बात है। उनकी जमीनों पर जबरन कब्जा करना या उन्हें नक्सली बता कर गोलियों से भून देने का सिलसिला कई दशकों से जारी है। अभी हाल ही में मध्य प्रदेश के सीहोर जिले के बारेला समाज के आदिवासियों को जबरन उनके जमीन से बेदखल करने का प्रयास किया गया। भारी विरोध के बाद सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा। छत्तीसगढ़ और झारखंड तो आदिवासियों के उत्पीड़न का प्रयोगशाला ही बन गया है। यह अजब संयोग है कि आदिवासी समाज की जहां-जहां बसावट है वहां प्रकृति की विशेष अनुकंपा है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और यूपी-बिहार के जिन हिस्सों में आदिवासियों की आबादी है वहां खनिज और वन संपदा पर्याप्त मात्रा में है। आदिवासी वन संपदा के प्राकृतिक रखवाले हैं। लेकिन आज का समूचा विकास मॉडल प्राकृतिक संपदा और खनिजों पर आश्रित है। प्राकृतिक संपदा के अंधाधुंध दोहन में आदिवासी समाज आड़े आ रहा है। आजादी के बाद से ही हमारी सरकारें नौकरशाहों और भूमाफियायों के माध्यम से आदिवासियों को जंगल से बेदखल करके कारपोरेट को जमीन सौंपने का षडयंत्र कर रही है। ताजा घटनाक्रम ने यह साबित कर दिया है कि सदियों से जल- जंगलजमीन के सहारे जीवन यापन करने वाले प्रकृति-पुत्रों को जंगल से बेदखल करने के लिए शासन-प्रशासन किसी हद तक जा सकता है।

अधिकारियों के माध्यम से नियम-कानून को धता बताते हुए आदिवासियों को बेदखल करने का खेल सोनभद्र में लंबे समय से चल रहा है। लेकिन इस खेल को समझने के बाद जब आदिवासी समाज ने सामूहिक एकता का परिचय दिया तो उनके सामूहिक नरसंहार को अंजाम दिया गया। पूरा मामला आदिवासियों के उपयोग में आने वाली जमीन पर अवैध कब्जा का है। इस मामले में भी आदिवासियों की पुश्तैनी कब्जा वाले जमीन पर रक्त की नदी बहाने की पटकथा एक नौकरशाह ने ही लिखी थी। पटकथा को अमलीजामा पहनाने के लिए जरुरत थी मन-मुताबिक सरकार के सत्तारूढ़ होने की। भाजपा सरकार के आने के बाद यह आसान हो गया।              

आदिवासियों के हितों के संरक्षण के लिए संविधान के पांचवी और छठी अनुसूची में विशेष प्रावधान किए गए हैं। इसके साथ ही पी-पेसा कानून-1996 में भी आदिवासी क्षेत्र में स्वशासन का अधिकार दिया गया है। और वनाधिकार अधिनियम-2006 में जंगल के उत्पाद पर आदिवासियों का हक बताया गया है। उक्त तीनों कानूनों को सही तरीके से लागू करके आदिवासियों के हितों की रक्षा की जा सकती है। सोनभद्र की घटना किसी भी सभ्य समाज के माथे पर कलंक के समान है। इस मामले तो दोषियों को सजा मिले ही इसके साथ ही आदिवासियों के लिए बने कानून को सही तरीके से लागू किया जाए। जिससे फिर इस तरह की घटना न घटे। 

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