सूखाग्रस्त महाराष्ट्रः मराठवाड़ा से स्थायी पलायन की वजह बनी कृषि की विफ़लता
इस वर्ष फ़रवरी महीने के मध्य में महाराष्ट्र के रहने वाले अक्षय ताम्बे ने आत्महत्या कर ली। दिल दहलाने वाली इस घटना ने पूरे राज्य को चौंका दिया। इसको लेकर सोशल मीडिया पर काफ़ी चर्चा हुई। 22 वर्षीय ताम्बे को कृषि में भारी नुकसान का सामना करना पड़ा था। इसके चलते ताम्बे ने उस्मानाबाद ज़िले में भौम तहसील के अपने गांव चिंचपुर ढागे में आत्महत्या कर ली। उसका सपना कार ख़रीद कर पुणे में भाड़े की टैक्सी के तौर पर चलाना था जो चकनाचूर हो गया। इस दुखद घटना ने महाराष्ट्र में किसानों के बच्चों की हताशा की ओर ध्यान खींचा जिसका वे सामना कर रहे हैं। साथ ही ये कृषि को हमेशा के लिए अलविदा कहने की एक कहानी है जो एक प्रवृत्ति के तौर पर बढ़ रहा है।
ताम्बे 19 साल की उम्र से पुणे के पेट्रोल पंप पर हेल्पर का काम करता था। उसका सपना कार ख़रीद कर पुणे में टैक्सी ड्राइवर बनना था। मराठवाड़ा में उसके पैतृक गांव से पुणे लगभग 450 किलोमीटर दूर है। उसने अपने सपने को पूरा करने के लिए तीन साल में अपने मासिक वेतन से 80,000 रुपए की बचत की थी जबकि उसे महज़ 11,000 रुपए ही वेतन मिलता था।
लेकिन वह जानता था कि एक नई कार ख़रीदने के लिए कम से कम 1 लाख रुपए से ज़्यादा डाउन पेमेंट करना पड़ता है। इसलिए ताम्बे ने बचाई हुई रक़म को लेकर अपने पैतृक गांव लौटने का फ़ैसला किया। उसने इस रक़म को प्याज़ की खेती में लगाने का सोचा ताकि एक ही फसल में पैसा दोगुना हो जाए और कार ख़रीद कर अपना सपना पूरा कर सके। उसने प्याज़ की फसल के लिए पूरे 80,000 रुपए निवेश कर दिये। लेकिन जल्द ही उसका सपना चूर हो गया क्योंकि प्याज़ की घटती क़ीमतों से उसे मात्र 5,463 रुपए ही मिले। इससे उसे गहरा सदमा लगा। 22 वर्षीय इस युवक ने उसी खेत में आत्महत्या कर ली जहाँ उसने प्याज़ के खेती की थी।
इस क्षेत्र में मराठवाड़ा से प्रवास की कहानी कृषि संकट की पृष्ठभूमि के लगभग समान है। चिंचपुर के सरपंच विशाल ढागे कहते हैं, “हमारे गांव के क़रीब 12 लड़के अब पुणे के होटलों में वेटर या हेल्पर या पेट्रोल पंप पर काम कर रहे हैं। वे गांव वापस नहीं आना चाहते क्योंकि उन्हें पता है कि खेती घाटे का कारोबार है।"
मराठवाड़ा क्षेत्र पिछले सात वर्षों में तीन बार सूखे की मार झेल चुका है। पिछले पांच वर्षों में जल स्तर की तालिका में लगभग आठ मीटर की कमी आई है। इसके चलते मराठवाड़ा से लोग बड़ी संख्या में शहरों की तरफ़ स्थायी तौर पर चले गए। ये लोग महाराष्ट्र में पुणे और तेलंगाना में हैदराबाद की तरफ़ चले गए।
न्यूज़क्लिक ने जब चिंचपुर ढागे ग्राम का दौरा किया तो देखा कि तीन लड़के जिनकी उम्र लगभग 20 वर्ष थी वे पुणे के लिए रवाना हो रहे थे। विशाल सुरावासे (25), रंजीत सुरावासे (26) और हरिदास ढागे (23) पुणे में पेट्रोल पंपों पर काम करते हैं जो पिंपरी चिंचवड़ से सटा है। इन लड़कों का मासिक वेतन 11,000 रुपए है। विशाल कहता है, “हम यहां रहकर क्या करेंगे? खेती से हमें प्रति वर्ष 1 लाख रुपए भी नहीं मिल पाता है। लेकिन पुणे में कोई भी नौकरी करने से इतना तो मिल ही जाता है।”
नासिक ज़िले में निलंगा तहसील के मुगव गांव की कहानी भी कुछ इसी तरह की है। पुणे में हर घर का एक व्यक्ति काम कर रहा है। पांडुरंग कवाले ने कहा, “युवा खेतों में काम करना नहीं चाहते हैं। वे देखते हैं कि उनकी मेहनत पर बहुत कम रिटर्न मिलता है और कई बार तो पूरी तरह से अप्रत्याशित होता है। हमारी आख़िरी पीढ़ी है जिसने खेतों में यहाँ कड़ी मेहनत की। अब पसंद को देखते हुए युवा शहरों की ओर जाएंगे।”
आमतौर पर पलायन दो प्रकार के होते हैं। एक तो वह है जब परिवार शहरों में जाते हैं और सूखे के समय में तीन से चार महीने बिताते हैं। यह तो अस्थायी प्रवास है जो अभी मराठवाड़ा में शुरू हो रहा है। देश के बड़े हिस्से में जब सर्दियों का मौसम आया है पानी की आवश्यकता कम हुई है। लेकिन जैसे ही गर्मी का मौसम आएगा लोग अपने घरों को छोड़ना शुरू कर देंगे।
हालांकि मराठवाड़ा का ये स्थायी पलायन सूखे, कृषि संकट और अवसाद से भरी पूरी तरह से एक अलग कहानी है।
इस तरह के पलायन का दूसरा नज़रिया भी है, जो प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए पुणे जाने वाले युवा लड़कों और लड़कियों का है। वे कृषि से दूर हो कर अधिकारी बनने का सपना देखते हैं। मोटे तौर पर अनुमान लगाया जाता है कि मराठवाड़ा के लगभग एक लाख युवा पुणे में पढ़ाई कर रहे हैं।
सूखाग्रस्त मराठवाड़ा के ऐसे छात्रों की मदद करने के लिए उस्मानाबाद के एक युवा कुलदीप अम्बेकर एक संगठन चलाते हैं। इस संगठन का नाम "स्टूडेंट्स हेल्पिंग हैंड" है। ये संगठन वह अपनी सहयोगी संध्या सोनवाणे के साथ चलाते हैं। ये संगठन मराठवाड़ा के छात्रों की विभिन्न तरीक़ों से मदद करता है, जिनमें छात्रों को किताबें मुहैया करवाना और उन्हें सस्ते मेस और हॉस्टल के लिए संपर्क करवाना शामिल है।
कुलदीप अम्बेकर ने कहा, “यह पलायन के कई आयामों में से एक है। जब हम छात्रों से मिलते हैं, वो हमसे खुल कर बात करते हैं। वे कहते हैं कि खेती उनके लिए कोई विकल्प नहीं है। इसलिए वे मुख्य रूप से सरकारी नौकरी चाहते हैं।"
संध्या ने कहा, “लड़कियाँ भी समझती हैं कि शिक्षा की कमी एक फंदे की तरह है जो इस क्षेत्र में रहने के लिए मजबूर करता है। खेती से उनकी उम्मीदें ख़त्म हो गई हैं। इसलिए वे सभी जो यहाँ आकर पढ़ाई करने के लिए ख़र्च सहन कर सकती हैं वे मौक़ा नहीं चूकती हैं।”
पुणे जाने के लिए नज़दीक के स्टेशन पर ट्रेन पकड़ने जा रहे युवक हरिदास ढागे ने कहा, “जब हम पुणे में काम करते हुए किसानों के आत्महत्या की ख़बर सुनते हैं तो हम परेशान हो जाते हैं। वास्तव में हम ख़ुद को उनकी जगह देखते हैं। सर, अगर हम यहाँ रहते हैं तो हमारा कोई भविष्य नहीं है। आप सोच सकते हैं कि मैं लंबा चौड़ा हांक रहा हूँ लेकिन आप जाइये और किसी भी लड़के से पूछिए। वह आपको यही कहानी सुनाएगा।” 23 साल की उम्र में हरिदास की ये बात पूरी कहानी बयां करती है कि मराठवाड़ा में कृषि के साथ क्या ग़लत हुआ है।
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