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कॉप26 : भारत कर रहा है पर्यावरणीय संकटों का सामना  

विकसित दुनिया कार्बन का मुख्य उत्सर्जक है, इसलिए इसे वैश्विक जलवायु परिवर्तन विरोधी प्रयासों के लिए अवश्य ही धन देना चाहिए। फिर भी, भारत घरेलू पर्यावरण संबंधी चिंताओं को नजरअंदाज नहीं कर सकता है।
COP26
चित्र सौजन्य: ब्लूमबर्ग.कॉम

जैसे ही COP26 ग्लासगो में 31 अक्टूबर 2021 को शुरू होगा, पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर नए जोश के साथ अपना ध्यान देगी। इस मौके पर शरीक हो कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया को बताएंगे कि भारत मौजूदा सबसे बड़ी पर्यावरणीय चुनौती से निपटने के लिए क्या कर रहा है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव जलवायु परिवर्तन पर भारत की स्थिति को स्पष्ट कर रहे हैं। उन्होंने हाल में भी कहा था कि भारत 2030 तक 450 गीगावॉट (जीडब्ल्यू) की अपनी हरित ऊर्जा क्षमता को बढ़ाने की तरफ अग्रसर है। वर्तमान में,  स्थापित क्षमता 100 GW से अधिक है, जो कुल क्षमता का लगभग 25 फीसदी है। भारत की स्थिति पश्चिमी देशों की ओर से कार्बन उत्सर्जन में तेज कटौती करने के दबावों का प्रतिरोध करते हुए जल्द ही राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित कार्बन उत्सर्जन लक्ष्यों को पूरा करने की है। भारत का उस सिद्धांत का समर्थन करना ठीक है कि प्रदूषण फैलाने वाले देशों को इसके दंड स्वरूप भुगतान करना चाहिए। इसका मतलब है कि ऐतिहासिक रूप से और मुख्य रूप से उच्च कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार पश्चिमी देशों को वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि से निपटने के उपायों के लिए धन देना चाहिए। 

अधिकांश भारतीयों के लिए, संयुक्त राष्ट्र की जलवायु बैठकें बड़े लोगों की बात करने वाली एक दुकान से अधिक मायने नहीं रखती है। चरम मौसम की बारम्बरता सुर्खियां बनती रही हैं और इस बारे में लोगों की जागरूकता बढ़ रही है कि वनों की तेजी से कटाई, व्यापक उत्खनन और भूमि के अवैज्ञानिक उपयोग के जरिए पर्यावरण के साथ खिलवाड़ किया जाता है। हालांकि, मौसम में बदलाव की चरम घटनाओं और भारत में ही जलवायु शरणार्थियों की बढ़ती संख्या या भविष्य में स्वास्थ्य और आर्थिक जोखिमों के बीच परस्पर संबंध तथा दुनिया भर में बढ़ते तापमान के बारे में लोगों में अभी भी बहुत कम जागरूकता है। 

फिर भी, भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जो भी कायदा अपनाए, घरेलू मोर्चों पर तेजी से प्राकृतिक संसाधनों की लूट की हवस को उजागर करना महत्त्वपूर्ण है। इसके चलते ही कई सारे भारतीय पर्यावरणीय आपदा से भयानक प्राकृतिक आपदा को न्योतते जा रहे हैं। हालांकि भारत की समस्या केवल जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन की समस्या नहीं है, बल्कि प्राकृतिक वनों, नदियों और मिट्टी की हानि की भी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इन संसाधनों को खो देने का मतलब वैश्विक जलवायु परिवर्तन में अपना योगदान देना है। केवल इसी कारण से, भारत को अपनी पर्यावरण विनियमन नीतियां बदलनी होगी। जलवायु विज्ञानियों ने चेतावनी दी है कि सभी देशों को 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को घटा कर शून्य पर ले जाने के लिए प्रतिबद्ध होना होगा। लेकिन भारत अपनी बढ़ती अर्थव्यवस्था की जरूरतों को पूरा करने के लिए फिलहाल कोयला ऊर्जा पर बहुत अधिक निर्भर है। वह अपनी बढ़ती औद्योगिक और घरेलू बिजली की मांगों को पूरा करने के लिए ऊर्जा उत्पादन में तेजी लाने के लिए कोयला खनन को बढ़ावा दे रहा है। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि भारत जब तक अपने लाखों लोगों को गरीबी से बाहर नहीं निकाल लेता और अधिक स्थिर विकास की गति प्राप्त नहीं कर लेता है, तब तक उसे शून्य कार्बन उत्सर्जन के लिए वैश्विक लक्ष्य हासिल करने की तय समय सीमा 2065-70 के पहले ही इसके प्रति अपनी प्रतिबद्धता नहीं दिखानी चाहिए। विडंबना यह है कि कोयला समृद्ध क्षेत्रों में खनन किए जाने से भारत के कुछ सबसे पुराने जंगल असुरक्षित हो गए हैं। इसके चलते होने वाले व्यापक वायु प्रदूषण के साथ-साथ लोगों के आवास और पानी के स्वच्छ स्रोतों का यह नुकसान देश के पहले से गरीब लाखों लोगों को भयंकर गरीबी में धकेल सकता है। 

इसलिए, ग्लासगो में, भारतीय दल इस बात पर चर्चा नहीं कर सकता है कि मेगा-माइनिंग प्रोजेक्ट्स के लिए वनवासियों को किस कदर उनकी जमीन से खदेड़ा जा रहा है। ओपन-पिट कोयला खदानें उच्च मीथेन उत्सर्जक हैं, और भारत सरकार निष्कर्षण के इस रूप के प्रति पक्षपाती है। अलबत्ता, प्रधानमंत्री को दुनिया को यह आश्वासन तो नहीं देना पड़ सकता है कि उनकी सरकार ऐसी समस्याओं से कैसे निपट रही है। फिर भी, उन्हें भारतीय लोगों को यह बताना होगा-बताना भी चाहिए-कि उनके आसपास का प्राकृतिक वातावरण क्यों बिगड़ रहा है। हाल ही में, भारत ने छत्तीसगढ़ में हसदेव अरन्या के अति सघन वन का 80 फीसदी (14 कोयला खदानें) हिस्सा एक प्रमुख कोयला खनन कंपनी को सौंप दिया है। 

क्षेत्र के आदिवासियों ने 10 साल तक उत्खनन के खिलाफ आंदोलन किया था। पारिस्थितिकीविदों ने चेतावनी दी है कि भारत कोविड-19 के दौरान अपने 14 फीसद वनआच्छादन और 12 फीसदी वर्षावन से हाथ धो बैठा है। केंद्र सरकार ने 2014 में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर से पांच उन महत्त्वपूर्ण कानूनों का उन्मूलन करने के लिए कहा था, जो भारतीय पर्यावरण संरक्षण की रीढ़ माने जाते थे। नतीजतन, भारत सभी पर्यावरणीय मुद्दों के लिए सिर्फ एक नियम के इर्द-गिर्द घूम रहा है। हर परिस्थिति को एक ही कानून से हांकने यह घोर केंद्रीकृत दृष्टिकोण निश्चित रूप से स्थानीय आर्थिक और पारिस्थितिक चिंताओं को दूर करने में विफल रहेगा।

वनों की तेजी से कटाई से पूरे भारत में गर्म हवा की अवधि और तीव्रता में वृद्धि की है। 2019 में चली भीषण लू ने देश के दो-तिहाई हिस्से को झुलसा दिया था। इससे लखनऊ, जयपुर, हैदराबाद, चंडीगढ़ और अन्य शहरों में पारा 45 डिग्री सेल्सियस के पार चला गया था, जबकि एक पहाड़ी शहर, पुणे में तापमान मई में अब तक का सर्वाधिक 43 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया था। इसी तरह, यहां कुछ साल पहले कड़ाके की ठंड पड़ी थी, जो इस क्षेत्र के लिए अभूतपूर्व थी। अप्रैल 2019 में दुनिया के सबसे गर्म शहरों में से 15 शहर तो अकेले मध्य भारत में थे। उनमें से नौ एक ही राज्य महाराष्ट्र में थे। इसके वैज्ञानिक साक्ष्य हैं कि हाल के वर्षों में आई अधिकांश भयंकर बाढ़ के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई और उत्खनन ही जिम्मेदार है। केरल से उत्तराखंड, कर्नाटक से मेघालय तक, प्राकृतिक और विषम मौसम की बढ़ती घटनाएं मानवीय हस्तक्षेप के साथ किया गया खिलवाड़ है, जिसने सैकड़ों लोगों की जान ले ली है। 2013 में आई केदारनाथ आपदा में 3,000 से अधिक लोग मारे गए थे और हिमालय की गोद में बसी बस्तियों को व्यापक नुकसान हुआ था। कई लोग इसमें उन आपदाओं की प्रारंभिक चेतावनी देखी थी, जो आज नियमित रूप से हमारे सामने आती हैं क्योंकि इनको लाने में प्राकृतिक और मानवीय कारक एक साथ काम करते हैं। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि दक्षिण एशिया बाढ़ के प्रति कितना संवेदनशील है, विशेष रूप से तटीय शहर जहां वैश्विक औसत तापमान बढ़ने के साथ समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है। 

तटीय कटाव एक गंभीर समस्या है, और फिर इसके लिए बड़े बंदरगाहों के निर्माण के साथ आसपास के वनों की कटाई मुख्य रूप से दोषी है। पिछले साल, इस उपमहाद्वीप में आई भीषण बाढ़ से 1,000 लोगों की जानें चली गई थीं। बिहार में इस साल आई बाढ़ में सबसे ज्यादा 500 लोगों की मौत हुई है। भारत के दक्षिणी तट के साथ भी चीजें कोई बेहतर रूप में नहीं हैं। डॉ माधव गाडगिल, जिन्होंने पश्चिमी घाट पर एक बेहद शानदार रिपोर्ट लिखी है, लेकिन उनकी सिफारिशों को लागू नहीं की गई। इसमें रिपोर्ट में उन्होंने कहा है कि कोंकण बेल्ट में वनों की कटाई और "अत्यंत अवांछनीय भूमि उपयोग योजना"-नदी के किनारे और क्षेत्र की आर्द्रभूमि के साथ व्यापक अतिक्रमण के लिए एक व्यंजना-को विनाशकारी बाढ़ के लिए कसूरवार है।

इसके अलावा, संसाधन निष्कर्षण (एक्सट्रैक्शन) और अनियोजित विकास पर पूरी तरह केंद्रित आर्थिक मॉडल भी चेन्नई सहित महानगरों में बाढ़ की हुई तबाही की असल वजह है। यहां 2015 के बाद आई बाढ़ को मानव निर्मित आपदा के रूप में जाना जाता है। 

जेएनयू के एक पर्यावरण भौतिक विज्ञानी प्रोफेसर विक्रम सोनी ने चेतावनी दी है कि अगर भारत अपने आर्थिक मॉडल को नहीं बदलता है, तो आपदाओं से निपटने की लागत उस बुनियादी ढांचे-निर्माण मॉडल पर हावी हो जाएगी, जिसका देश लगातार अनुसरण करता आ रहा है। सोनी कहते हैं, "अच्छी हवा, प्राकृतिक खनिज पानी, जैविक मिट्टी और भोजन के मामले में प्राकृतिक बुनियादी ढांचे का नुकसान निर्मित बुनियादी ढांचे से होने वाले लाभ से कहीं अधिक है, जो जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन में वृद्धि कर रहा है।" 

ग्लासगो में, मोदी को इस बात पर चर्चा नहीं करनी पड़ेगी कि कैसे बाढ़ का पानी एक बार जब उतर भी जाता है तो भी देश के नागरिकों को महीनों तक चलने वाले गंभीर सर्दियों के वायु प्रदूषण से निपटने के लिए मजबूर होना पड़ता है। विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट-2020 में भारत को PM2.5 मामले में विश्व का तीसरा सबसे प्रदूषित देश माना गया है। पिछले वर्ष की तुलना में मामूली सुधार के बावजूद, 2021 की  रिपोर्ट में पाया गया कि दुनिया के 30 सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में 22 सबसे खराब शहर अभी भी भारत में हैं। उत्तर प्रदेश का गाजियाबाद दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर है। सभी जानते हैं कि वायु प्रदूषण और बीमारी के बीच सीधा संबंध है। ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी 2017 में पाया गया कि भारत में हर दिन 3,283 लोगों की अकाल मृत्यु, या एक साल में 2.5 लाख मौतों के लिए परिवेशी वायु प्रदूषण जिम्मेदार है। ये मौतें तपेदिक, एचआइवी-एड्स, और मलेरिया की तुलना में लोगों की होने वाली मौतों से कहीं बड़ी हैं और इस मामले में हालात केवल बद से बदतर होते गए हैं।

दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियां वाले देश होने का गौरव भी भारत को ही प्राप्त है। नीति आयोग ने पिछले साल ही 70 फीसद जल स्रोतों के गंभीर रूप से प्रदूषित होने के बारे में केंद्र सरकार को चेताया था। जल सहायता जल गुणवत्ता सूचकांक2021 में शामिल दुनिया के 122 देशों में भारत को 120वां स्थान दिया गया था। गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र और नर्मदा से लेकर कावेरी और कृष्णा तक, इसकी सभी प्रमुख नदी प्रणालियों में बड़ी मात्रा में सीवेज और औद्योगिक प्रदूषक डाले जाते हैं। इन नदियों की साफ-सफाई पर सरकारों ने हजारों करोड़ रुपये खर्च किए हैं, पर इसके परिणाम सिफर रहे हैं।

खुद प्रधानमंत्री मोदी के लोकसभा क्षेत्र, वाराणसी में कथित तौर पर गंगा में 25 फीसदी प्रदूषक डाले जाते हैं। इस अंधकारमय परिदृश्य में, नदियों को आपस में जोड़ने की कवायद नदी के पारिस्थितिक तंत्र के लिए एक नई चुनौती है। मध्य प्रदेश में विश्व जल दिवस 2021 पर सरकार द्वारा बहुत धूमधाम और समारोह के साथ पर केन-बेतवा नदियों को जोड़ने की बहुत खराब तरीके से बनाई गई योजना शुरू की गई हैं। इसके लिए सात लाख पेड़ कटेंगे और देश का एक महत्वपूर्ण वन्यजीव स्थल पन्ना टाइगर रिजर्व का 90 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र डूब में आ जाएगा। इस सरकार की ऐसी ही अधिकांश परियोजनाओं की तरह, वैज्ञानिक समुदाय की सलाह इसके खिलाफ है। फिर भी ये परियोजना चलाई जा रही है। 

सामाजिक और पर्यावरणीय परिणामों की बहुत कम परवाह करते हुए आधे-अधूरे विचार के साथ, तेजी से बनाई जा रही अनियोजित सड़कों और उनके विस्तार के कारण हिमालयी नदियां संकट में हैं। इस काम के लिए पारिस्थितिकी के लिहाज से नाजुक क्षेत्र में डायनामाइट के बार-बार उपयोग, गलत ढलान-काटने और अंधाधुंध कचरा डंपिंग के कारण कई-कई बार भूस्खलन हुए हैं, वे हो ही रहे हैं। इन्हीं वजहों से लगभग हर दिन मिट्टी दरकती है और मलबा निकल रहा है और बाढ़ आ रही है। 

चार धाम परिजोयण के तहत सड़क विस्तार के पारिस्थितिकी पर पड़ने वाले असर की जांच करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से गठित विशेषज्ञ समिति को सौंपी गई फील्ड रिपोर्ट में कहा गया है कि ताजा कटी हुई 174 ढलानों में से 102 ढ़लानों पर भूस्खलन की आशंका है। 

इस समिति के चार वैज्ञानिक सदस्य इस तबाही के पीछे की विशिष्टता बताते हुए कहते हैं कि "...एक के बाद ढलान भरभराते हुए नीचे गिरता गया, 24 मीटर आधिकारिक तौर पर हासिल किये गये रास्ते के मुकाबले अक्सर पहाड़ के किनारे गहराई कहीं अधिक होती है।क्योंकि जल स्रोत दब जाते हैं, इसलिए मिट्टी को मूल्यवान ऊपरी मिट्टी के रूप में बनने में सदियों लग जाते हैं और जिस मिट्टी पर जंगल उगते हैं, उसे काटकर कूड़ा-करकट के रूप में फेंक दिया जाता है।इससे जैसे ही कीमती,जीवित पुराने और नये पेड़ ढह जाते हैं, वैसे ही निष्क्रिय  भूस्खलन फिर से सक्रिय हो जाता है और कई नए भूस्खलन शुरू हो जाते हैं। चूंकि टनों की गन्दगी बेतरतीब ढंग से घाटी की ढलानों पर फेंक दिया जाता है, जिससे नदियों और जलमार्गों का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है।”

स्वच्छ जल, स्वच्छ हवा और जैविक भोजन और मिट्टी अच्छे जीवन के लिए मूलभूत मानदंड हैं। फिर भी हमारी सरकार इन मौलिक आवश्यकताओं की तरफ से अपनी आंखें मूंद लेती है। जाहिर है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ग्लासगो में अपने श्रोताओं-दर्शकों को यह नहीं बता सकते कि भारतीय पर्यावरणीय आपदा से आपदा की ओर बढ़ रहे हैं। 

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं। 

As COP26 Looms, India Faces Pile-Up of Environmental Debacles

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