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स्वच्छता के गुमनाम सेनानियों की कुर्बानी को नजरअंदाज करती सरकार

नए कपड़ों से सुसज्जित, प्रयत्नपूर्वक एकत्रित किए हुए कचरे को आकर्षक नई झाड़ू से साफ करते राजनेता, राज्य पोषित पत्रकारों को दीवाना बना रहे हैं।
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“स्वच्छता ही सेवा” कार्यक्रम राजनेताओं और अधिकारियों के लिए एक नई फोटो अपॉरचुनिटी के रूप में उभरा है। नए कपड़ों से सुसज्जित, प्रयत्नपूर्वक एकत्रित किए हुए कचरे को आकर्षक नई झाड़ू से साफ करते राजनेता, राज्य पोषित पत्रकारों को दीवाना बना रहे हैं। सरकारी दफ्तर में छोटे कर्मचारी परेशान हैं कि अनेक दिखावटी और सजावटी दिवसों और पखवाड़ों की श्रृंखला में एक और कड़ी जुड़ गई है। वे जानते हैं कि हाकिम को स्वच्छता का उत्सव पसंद है इसलिए जी जान से स्वच्छता का पाखंड रचने में लगे हैं। कुछ पुराने सुपरस्टार (जो पता नहीं किस असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हैं) तथा कुछ नए सुपरस्टार (जो सोशल मीडिया की वायरल पोस्टों में प्रचंड देशभक्त के रूप में प्रक्षेपित किये जा रहे हैं) देश की जनता को स्वच्छता  के पाठ सिखा रहे हैं। इनके विज्ञापनों का भाव यह है कि जनता ही गंदगी के लिए उत्तरदायी है या जनता ही गंदगी है।

इधर सीवर सफाई करने वाले कर्मचारियों की मौतों का सिलसिला जारी है। निर्मम समाज और राजनीति को इनकी मृत्यु प्रभावित नहीं करती। संभवतः हम इन्हें मनुष्य की श्रेणी में भी नहीं रखते। मैनहोल में उतरकर गंदगी में आकंठ डूबकर जाम नालियों को चालू करने का कार्य एक ऐसा पेशा है जिसके लिए अघोषित आरक्षण है। यहां पर अपने साथ नौकरियों में हो रहे अन्याय की दुहाई देते नवयुवकों का हुजूम नहीं दिखता। वाल्मीकि समाज के लोग इस कार्य को करने के लिए अभिशप्त हैं। 1993 में 6 राज्यों ने केंद्र सरकार से मैला ढोने की प्रथा पर अंकुश लगाने के लिए कानून का निर्माण करने का अनुरोध किया। तब द एम्प्लॉयमेंट ऑफ मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड कंस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैट्रिन्स (प्रोहिबिशन) एक्ट 1993 नरसिम्हा राव सरकार द्वारा पारित किया गया। इस एक्ट के बनने के बाद से 1800 सफाई कर्मियों की सीवर सफाई के दौरान जहरीली गैसों के कारण हुई मौत के मामले मैग्सेसे पुरस्कार विजेता और सफाई कर्मचारी आंदोलन के समन्वयक बेजवाड़ा विल्सन और उनके साथियों के पास सूचीबद्ध हैं। विल्सन के अनुसार यह संख्या केवल उन मामलों की है जिनके विषय में दस्तावेजी सबूत मौजूद हैं। वास्तविक संख्या तो इससे कई गुना अधिक है क्योंकि इस तरह की अधिकांश मौतों के मामले दबा दिए जाते हैं। मृतक के परिजन अशिक्षा और निर्धनता के कारण न्याय के लिए संघर्ष करने की स्थिति में नहीं होते। मृत्यु के लिए जिम्मेदार ठेकेदार और अधिकारी अपने रसूख के बल पर मामले को रफा दफा कर देते हैं। यह मौतें प्रायः सेप्टिक टैंक के भीतर मौजूद मीथेन,  कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड आदि जहरीली गैसों के कारण होती हैं।

डॉ. आशीष मित्तल (जो जाने माने कामगार स्वास्थ्य विशेषज्ञ हैं तथा इस विषय होल टू हेल तथा डाउन द ड्रेन जैसी चर्चित पुस्तकों के लेखक हैं) बताते हैं कि सीवर सफाई से जुड़े अस्सी प्रतिशत सफाई कर्मी रिटायरमेंट की आयु तक जीवित नहीं रह पाते और श्वसन तंत्र के गंभीर रोगों तथा अन्य संक्रमणों के कारण इनकी अकाल मृत्यु हो जाती है।

नियमानुसार पहले तो किसी व्यक्ति का सीवर सफाई के लिए मैनहोल में उतरना ही प्रतिबंधित है। किंतु यदि किसी आपात स्थिति में किसी व्यक्ति को सीवर में प्रवेश करना आवश्यक हो जाता है तो लगभग 25 प्रकार के सुरक्षा प्रबंधों की एक चेक लिस्ट है जिसका पालन सुनिश्चित करना होता है। सर्वप्रथम तो यह जांच करनी होती है कि अंदर जहरीली गैसों का जमावड़ा तो नहीं है। एक विशेषज्ञ इंजीनियर की उपस्थिति अनिवार्य होती है। एम्बुलेंस की मौजूदगी और डॉक्टर की उपलब्धता आवश्यक होती है। सीवेज टैंक में उतरने वाले श्रमिक को गैस मास्क, हेलमेट, गम बूट, ग्लव्स, सेफ्टी बेल्ट आदि से सुसज्जित पोशाक उपलब्ध कराई जानी होती है। तदुपरांत मौके पर उपस्थित किसी जिम्मेदार अधिकारी द्वारा यह प्रमाणित करने पर कि सभी सुरक्षा नियमों का शतप्रतिशत पालन कर लिया गया है श्रमिक सीवर में उतर सकता है।

तमाम कानूनी प्रावधानों के बाद भी सीवर सफाई के दौरान होने वाली मौतें थमने का नाम नहीं ले रही। सितंबर 2013 में सरकार ने इस संबंध में नया कानून बनाया। दिसंबर 2013 में सरकार द्वारा प्रोहिबिशन ऑफ एम्प्लॉयमेंट एज मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड देयर रिहैबिलिटेशन रूल्स 2013 को लागू किया गया। इन्हें एम एस रूल्स के नाम से जाना जाता है। सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने 2014 में निर्णय दिया- जहां तक सीवर सफाई के दौरान मृत्यु का संबंध है आपात स्थितियों में भी बिना सुरक्षा उपकरणों के सीवर लाइन्स में प्रवेश अपराध की श्रेणी में आएगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि मृत्यु के ऐसे प्रत्येक मामले में 10 लाख रुपये का मुआवजा दिया जाए। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि भारतीय रेल के यात्री डिब्बों के शौचालय हाथ से मैला सफाई का सबसे बड़ा कारण हैं, सर्वोच्च न्यायालय ने रेल विभाग को निर्देश दिया कि रेल पटरियों पर से मैला उठाने की अमानवीय स्थिति का अंत करने के लिए वह एक समयबद्ध कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत करे। रेल मंत्रालय ने सन 2022 तक सारे रेल कोचों में बायो टॉयलेट लगाने का आश्वासन दिया।

यह जानना अत्यंत दुःखद है कि इतने स्पष्ट कानूनी प्रावधानों के बावजूद सीवर लाइन की सफाई के दौरान हुई मौतों के लिए दोषी व्यक्तियों पर एफआईआर दर्ज होने का इक्का दुक्का उदाहरण भी कठिनाई से उपलब्ध है। इन दोषियों को दंड मिलने की बात तो वर्तमान भ्रष्ट और असंवेदनशील तंत्र में असंभव जान पड़ती है। प्रायः होता यह है कि सफाई कार्य करा रहे ठेकेदार बिना किसी सुरक्षा उपकरण के 200-250 रुपये की दिहाड़ी पर कार्य कर रहे इन मजदूरों को रस्से के सहारे मैनहोल से नीचे उतार देते हैं। जहरीली गैसों की जांच के लिए इनके पास माचिस की तीली जलाकर देखना और जीवित कॉकरोच डालकर परीक्षण जैसे आदिम तरीके ही होते हैं। इन सीवर लाइन्स में संचित जहरीली गैसों के प्रभाव से यह मजदूर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं या गंभीर अवस्था में बाहर निकाले जाते हैं। चूंकि बाहर एम्बुलेंस, डॉक्टर या अन्य कोई आपात चिकित्सा व्यवस्था उपलब्ध नहीं होती इसलिए इनकी मृत्यु अवश्यम्भावी होती है। इसके बाद शुरू होता है मामले को रफा दफा करने का खेल। पुलिस, अधिकारी और ठेकेदार का गठजोड़ मृत्यु के कारण को बदलने का कार्य करता है। एक नाम मात्र की राशि मृतक के परिजनों को ठेकेदार द्वारा दे दी जाती है। यद्यपि ये सरकारी कार्य कर रहे होते हैं लेकिन सरकारें इन्हें अपना कर्मचारी मानने से इनकार कर देती हैं। इन्हें मुआवजे से वंचित कर दिया जाता है। 

सीवर लाइन साफ करने वाले इन कर्मचारियों का जीवन नारकीय परिस्थितियों में बीतता है। इस कार्य को इतना घृणित माना जाता है कि ऐसे अधिकांश श्रमिक अपने परिवार तक से यह तथ्य छिपा कर रखते हैं कि वे सीवर सफाई का कार्य करते हैं। ऐसे में कई बार सीवर सफाई के दौरान इनकी मौत की खबर इनके परिजनों को भी हतप्रभ और चकित छोड़ जाती है। इस पेशे को त्यागना भी आसान नहीं है।

द गार्डियन की 4 मार्च 2018 की एक रिपोर्ट आगरा के निकट स्थित रसूलपुर ग्राम की लाड़कुंवर के संघर्ष की मार्मिक कथा को समेटे है। लाड़कुंवर ने सर्वप्रथम स्वयं मैला उठाने का कार्य छोड़ा फिर अपने ग्राम की अन्य महिलाओं को इसके लिए तैयार किया। अब भी वे रोजगार के लिए जूझ रही हैं। सरकारी तंत्र से उन्हें कोई मदद भी नहीं मिली है। इसके बावजूद भी वे इस कार्य में वापस लौटने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने जो अर्जित किया है वह आत्म सम्मान का भाव है जिसे वे गंवाना नहीं चाहतीं।

इन मैला सफाई करने वाले श्रमिकों के प्रति प्रशासन तंत्र की उदासीनता चिंतित करने वाली है। सरकार ने मैला सफाई करने वाले श्रमिकों की संख्या और उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति के संबंध में कोई भी सर्वेक्षण नहीं कराया है।

लोकसभा में 4 अगस्त 2015 को एक अतारांकित प्रश्न के उत्तर में सरकार द्वारा यह जानकारी दी गई कि 2011 की जनगणना के आंकड़े यह बताते हैं कि देश के ग्रामीण इलाकों में 1,80,657 परिवार मैला सफाई का कार्य कर रहे थे। इनमें से सर्वाधिक 63,713 परिवार महाराष्ट्र में थे। इसके बाद मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, त्रिपुरा तथा कर्नाटक का नंबर आता है। यह संख्या इन परिवारों द्वारा दी गई जानकारी पर आधारित है।

2011 की जनगणना के अनुसार देश में हाथ से मैला सफाई के 7,94,000 मामले सामने आए हैं। सीवर लाइन सफाई के दौरान होने वाली मौतों के विषय में राज्य सरकारें केंद्र को कोई सूचना नहीं देतीं।

2017 में 6 राज्यों ने केवल 268 मौतों की जानकारी केंद्र के साथ साझा की।

एक सरकारी सर्वे के अनुसार तो 13 राज्यों में केवल 13657 सफाई कर्मी हैं। सफाई कर्मचारी आंदोलन ने इस चौंकाने वाले तथ्य की ओर ध्यानाकर्षण किया है कि मैनुअल सफाई व्यवस्था को समाप्त करने के लिए वर्ष 2014-15 में 570 करोड़ का बजट था जो 2017-18 में सिर्फ 5 करोड़ रह गया। जबकि स्वच्छ भारत अभियान का बजट 2014-15 में 4541 करोड़ था, जो 2017-18 में बढ़कर 16248 करोड़ हो गया है। स्वच्छ भारत अभियान के तहत बनाए जा रहे करोड़ों शौचालयों के लिए सेफ्टी टैंक भी बनाए जा रहे हैं। सरकार द्वारा सन 2019 तक 21 करोड़ शौचालय निर्माण का लक्ष्य है। किन्तु सरकार ने सीवेज सिस्टम के सुधार के लिए कोई खास प्रयत्न नहीं किए हैं। स्वच्छ भारत अभियान शुरू होने के पूर्व ही शहरी इलाकों में एक तिहाई शौचालय सीवर लाइन्स से जुड़े नहीं थे। सरकारी दावे यह बताते हैं कि 2017 के अंत तक ग्रामीण इलाकों में 6 करोड़ नए शौचालय बन चुके थे। इन परिस्थितियों में इनकी मैनुअल सफाई की घटनाएं भी बढ़ेंगी। सीवर लाइन की सफाई के दौरान होने वाली दुर्घटनाएं अब तक महानगरों तक ही सीमित थीं इनका विस्तार अब छोटे कस्बों और ग्रामीण इलाकों में होगा।

केरल सरकार स्टार्टअप फर्म जेनोरोबोटिक्स द्वारा विकसित रोबोट, बैंडीकूट का इस्तेमाल सीवर की सफाई के लिए करने जा रही है। केरल के चार युवा इंजीनियरों के एक समूह द्वारा इस रोबोट को विकसित किया गया है। इन युवा इंजीनियरों का यह सपना है कि वे मैनहोल को रोबोहोल में बदल देंगे। यह तभी होगा जब देश में सीवर सफाई पूर्णतः मानव रहित हो जाएगी।

आज पूरा देश स्वच्छता ही सेवा कार्यक्रम की प्रदर्शनप्रियता में डूबा है। क्या यह आशा की जा सकती है कि हमें स्वच्छ भारत प्रदान करने वाले इन गुमनाम सैनिकों की कुर्बानी का सम्मान सरकार द्वारा किया जाएगा और इनकी मृत्यु के दोषियों को दंडित किया जाएगा? क्या हम यह आशा कर सकते हैं कि विश्व गुरु बनने का सपना देख रहे भारत में यह क्रूर और अमानवीय प्रथा समाप्त कभी समाप्त होगी? स्वच्छता का जश्न मनाती सरकार अब तक तो इन स्वच्छता सेनानियों की करुण पुकार को अनसुना ही करती रही है।

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