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सोनभद्र के ग्रामीणों को बीमार, अपंग बनाते पीने के पानी में मिले दूषित पदार्थ  

फ़्लोरोसिस, सिलिकोसिस, कैंसर, टीबी आदि जैसी बीमारियों से पीड़ित इन ग्रामीणों का आरोप है कि सोनभद्र और सिंगरौली में स्थित थर्मल प्लांट से रसायनों का ख़तरनाक़ मिश्रण भू-जल और मिट्टी में रिस रहा है।
Sonbhadra Water Crisis

सोनभद्र (उत्तर प्रदेश): खनन से सोनभद्र उत्तर प्रदेश के ख़ज़ाने में सालाना 21,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा का योगदान देता है। यह देश की विकास गाथा में एक अहम भूमिका निभाता है। लेकिन, सवाल है कि बदले में सोनभद्र को क्या मिलता है? इस क्षेत्र की महिलाओं में फ़्लोरोसिस, सिलिकोसिस, कैंसर, टीबी, फेफड़ों की गड़बड़ियां और गर्भपात जैसी बीमारियां आम हैं।

यहां का पानी फ़्लोराइड, मरकरी, सिलिका, कैडमियम, आयरन, निकेल और एल्युमीनियम का विनाशकारी अपमिश्रण है। सोनभद्र के नौ कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्रों से निकलने वाली फ़्लाई ऐश (फ़्लोराइड, आर्सेनिक और फ़ॉस्फोरस मिश्रित पदार्थ) ने 269 गांवों में पानी, हवा और मिट्टी को बेहद ख़तरनाक़ हद तक दूषित कर दिया है। ये गांव लखीमपुर खीरी के बाद क्षेत्रफल के हिसाब से राज्य के दूसरे सबसे बड़े ज़िले के चार विकास खंडों (चोपन, बभनी, दुद्धी और म्योरपुर) में फैले हुए हैं।

एक सामाजिक कार्यकर्ता जगत विश्वकर्मा ने न्यूज़क्लिक को बताया, “यहां के निवासी इसी ज़हरीले पानी को पीने के लिए मजबूर हैं। इनके पास पीने के पानी का कोई दूसरा ज़रिया ही नहीं है। इन गांवों का हर दूसरा शख़्स फ़्लोरोसिस से पीड़ित है। सबसे बड़ी बात है कि यह कोई नयी समस्या भी नहीं है। यह समस्या तीन दशकों से भी ज़्यादा समय से बनी हुई है।”

उन्होंने कहा कि फ़्लाई ऐश ने रिहंद बांध (जिसे गोविंद बल्लभ पंत सागर के रूप में भी जाना जाता है - सोनभद्र पिपरी में भारत की सबसे बड़ी कृत्रिम झील के रूप में भी जाना जाता है) के पानी को दूषित कर दिया है, क्योंकि यह भू-जल और मिट्टी में रिसता रहता है।

जगत विश्वकर्मा का आरोप है, "जल निगम ने 60 से ज़्यादा गांवों में फ़्लोराइड हटाने वाले जो संयंत्र लगाये है,उनमें से ज़्यादातर संयंत्र काम ही नहीं कर रहे हैं।"

निष्क्रिय पड़ा हुआ फ़्लोराइड हटाने वाला संयंत्र

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए विश्वकर्मा ने बताया कि सोनभद्र यूपी के 22 गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्रों में से एक है।

उन्होंने आगे कहा, "जल प्रदूषण के अलावा, मरकरी यहां की आबो-हवा में मिल जाती है। क़रीब 40 किलोमीटर के इस इलाक़े में रहने वाले तक़रीबन 20 लाख लोग मरकरी मिश्रित हवा में सांस ले रहे हैं। इससे महिलाओं में गर्भपात, रक्तचाप और एनीमिया जैसी स्वास्थ्य से जुड़ी समस्यायें पैदा हो रही हैं। मिट्टी तेज़ी से बंज़र होता जा रही है और बग़ीचों में कोई फल नहीं लग पा रहा है।”

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित इस सिंगरौली इलाक़े के सोनभद्र में उत्तर प्रदेश सरकार के स्वामित्व वाले थर्मल पावर प्लांट, सार्वजनिक क्षेत्र के एनटीपीसी और सिंगरौली बेल्ट में निजी कंपनी एस्सार हर दिन 21,270 मेगावाट बिजली पैदा करने के लिए औसतन 3.26 लाख टन कोयले की खपत करते हैं।

जानकारों का मानना है कि सोनभद्र और सिंगरौली के इन बिजली संयंत्रों के इतनी बड़ी मात्रा में कोयले की खपत से हर दिन एक लाख टन से ज़्यादा के फ़्लाई ऐश का उत्पादन होता है,लेकिन इसका उचित निपटान नहीं हो पाता है। नतीजतन, यह हवा, पानी और मिट्टी में जमा होता जाता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक़, पानी में फ़्लोराइड का स्तर 1.5 पीपीएम या मिलीग्राम/लीटर (पार्ट्स पर मिलियन या मिलीग्राम प्रति लीटर) से ज़्यादा नहीं होना चाहिए। लेकिन, सोनभद्र के कई गांवों में यह स्तर 4 पीपीएम से ऊपर पाया गया है।

शारीरिक विकलांगता, दांतों की सड़न, मानसिक बीमारी – हर जगह की यही कहानी

चोपन प्रखंड की पडराछ पंचायत (ग्राम परिषद) के पटेल नगर की रहने वाली पार्वती देवी को 2003 से कमर (रीढ़ की हड्डी में टेढ़ापन) की समस्या थी, लेकिन वह ख़ुद ही चलकर अपने रोज़-ब-रोज़ का घरेलू काम निपटाती थीं। उन्हें धीरे-धीरे जोड़ों में अकड़न होने लगी और पिछले तीन सालों से बिस्तर पर पड़ी हुई हैं। उनके अंग अब नहीं हिलते-डुलते। 36 साल की पार्वती लगभग एक ज़िंदा लाश बनकर रह गयी हैं, हर चीज़ के लिए वह पूरी तरह से दूसरों पर निर्भर हो गयी हैं।

पार्वती देवी

देवी के पति भी फ़्लोरोसिस से पीड़ित हैं।वह 70% तक विकलांग हैं, लेकिन उनका मामला बिस्तर तक सीमित रहने तक ही नहीं हैं। दिहाड़ी मज़दूरों के इस परिवार के पास 10 बीघा (6.19 एकड़) की काफ़ी कम उपजाऊ वाली ज़मीन है, अब तक उनके इलाज पर 3 लाख रुपये ख़र्च हो चुके हैं, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ है।

उनके मेडिकल रिकॉर्ड से पता चलता है कि वह पानी से होने वाली बीमारियों से पीड़ित है। अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) से जुड़ी जाति-कुर्मी से आने वाला यह परिवार बेहद ग़रीबी का सामना कर रहा है,लेकिन इस परिवार के पास बहुप्रचारित उस आयुष्मान भारत योजना का कार्ड भी नहीं है, जो प्रति परिवार 5 लाख रुपये का चिकित्सा बीमा देता है।

पड़ोस के गांव के 30 साल के रोहन की पांच साल पहले दोनों हाथों और पैरों में विकृति के चलते मौत हो गयी थी। उनके अंग कंगारू की तरह उनकी कोहनी और घुटनों से मुड़े हुए थे। वह 10 साल तक उसी स्थिति में ज़िंदा रहे। उनका बेटा राम प्रताप स्वस्थ और निरोगी था। लेकिन, जैसे ही वह 10 साल का हुआ, उसे भी उसी तरह की परेशानियां पैदा होने लगीं और दो साल पहले उसकी मौत हो गयी। शादी के पांच साल बाद ही रोहन की पत्नी मनकुवर भी उसी स्थिति का शिकार हो गयीं। वह भी बिस्तर पर पड़ी हुई हैं।

21 साल की आरती नौवीं कक्षा तक एकदम दुरुस्त थीं। लेकिन उन्हें धीरे-धीरे दिमाग़ी कमज़ोरी का अहसास होने लगा और वह 10वीं की बोर्ड परीक्षा में बैठ पाने की स्थिति में नहीं थीं। वह अब पूरी तरह से मानसिक बीमारी की चपेट में है।

आरती

दुद्धी के खुरदरे और पथरीले इलाक़े कुसुमाहा की रहने वाली आरती चुप-चाप रहती हैं, और अगर कोई उनसे बातचीत करना भी चाहता है, तो वह किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पातीं।

38 साल की आरती के पिता तेज प्रताप को जोड़ों में तेज़ दर्द और पैरों और हाथों में अकड़न है। उन्होंने कहा, "जब मैं बैठता हूं, तो मेरे लिए उठ पाना मुश्किल हो जाता है।" उन्होंने आगे बताया कि वह उस पानी में मिले फ़्लोराइड के चलते रोगी बन गये हैं, जिसे वे लंबे समय से पी रहे हैं। उन्होंने कहा कि गांव में नल का पानी है, लेकिन यह नियमित नहीं है। उनकी शिकायत है,"हमें यह हफ़्ते में एक या दो बार दो-तीन घंटे के लिए मिलता है।"

प्रताप की 60 साल की मां बसंती देवी पिछले 30 साल से विकलांग हैं। वह किसी तरह दो लोगों और एक छड़ी की मदद से खड़ी हो पाती हैं, लेकिन खड़ी होते हुए हर वह बार दर्द से रो पड़ती हैं।

तेज प्रताप और उनकी मां बसंती देवी

प्रताप तीन भाई हैं और उनके पास 16 बीघे (9.91 एकड़) ज़मीन है। वह कहते हैं,“उपज बहुत कम होती है, क्योंकि यहां की ज़मीन काफ़ी हद तक बंज़र है और इसकी सिंचाई करना एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि यह इलाक़ा पानी की कमी से जूझ रहा है। हमें बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। हमें अच्छी चिकित्सा सेवा की ज़रूरत है, लेकिन ज़िले के सरकारी अस्पताल में कोई सुविधा ही नहीं है। हमारी ज़्यादातर आबादी या तो ओबीसी या अनुसूचित जनजाति की है, लेकिन हमारे पास कोई स्वास्थ्य कार्ड तक नहीं है। पीढ़ी दर पीढ़ी फ़ल्रोरोसिस से प्रभावित होती रही है, लेकिन सरकार को इसकी कोई परवाह नहीं है। मुफ़्त राशन के अलावा, हमें सरकार से कोई राहत नहीं मिलती।”

56 साल के विजय कुमार शर्मा शारीरिक रूप से ठीक थे और कुछ साल पहले तक उनका शरीर हृष्ट-पुष्ट था। लेकिन, पड़वा कुदरी गांव का यह निवासी अब अपने बिस्तर के पास छत से लटकी छड़ी या रस्सी के सहारे की ज़रूरत है,वह अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं हो पाते हैं। उनकी मांसपेशियां और हड्डियां अकड़ गयी हैं। उन्हें दो-तीन लोगों की मदद से उठाया जाता है, फिर उन्हें एक अस्थायी कुर्सी जैसे चबूतरे पर बिठा दिया जाता है। यहां उन्हें आराम मिलता है।

विजय कुमार शर्मा

उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया, “2015 में मुझे अपने दाहिने हाथ में दर्द महसूस होने लगा था। सोनभद्र की सीमा से लगने वाले झारखंड में मेरा इलाज हुआ था। लेकिन,जब आराम नहीं मिला, तो मैं वाराणसी के एक निजी अस्पताल चला गया। वहां के डॉक्टरों ने मुझे बीएचयू (बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के सर सुंदरलाल अस्पताल) में रेफ़र कर दिया। मुझे बताया गया कि पानी के ज़रिये फ़्लोराइड के बहुत ज़्यादा इस्तेमाल से यह स्थिति हो गयी है। पहली बार दर्द महसूस करने के तीन महीने बाद ही मैं लकवाग्रस्त हो गया और तब से बिस्तर तक सीमित हो गया हूं।

नल के पानी की आपूर्ति के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि गांव के सभी घरों में पानी का कनेक्शन तो है, लेकिन किसी को भी एक बूंद तक नहीं मिलती।

उन्होंने आरोप लगाया, "सरकार की तरफ़ से सिर्फ़ काग़ज़ी मानवता है।"

शर्मा के भाई भी आंशिक रूप से लकवाग्रस्त हैं। साल 2018 में उनका दाहिना पैर सुन्न हो गया। हालांकि, उनका दाहिना पैर काम तो कर रहा है, लेकिन यह सूज गया है। वह एक छड़ी की मदद से चल पाते हैं और कहते हैं कि जब वह बैठने या खड़े होने की कोशिश करते है, तो उन्हें बेहद मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।

वह पांच संतानों के पिता हैं और पांच भाइयों के बीच उनके पास 14 बीघा (8.67 एकड़) ज़मीन  है और इसी ज़मीन की कृषि उपज पर सबके सब निर्भर हैं।

उसकी पत्नी भी 2018 से ही विकलांग है। वह ज़मीन पर घुटनों के बल चलती हैं और अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पातीं। उनका आरोप है, "जीवन से बढ़कर और क्या चीज़ है, लेकिन सरकार को कोई मतलब ही नहीं है।"

सामाजिक प्रभाव

पानी में फ़्लोराइड का यह ख़तरनाक़ मिश्रण सामाजिक समस्या भी पैदा कर रहा है।

इस इलाक़े में रहने वाले लोगों का कहना है कि दूसरे गांवों के लोग फ़्लोराइड प्रभावित इन गांवों में अपनी बेटियों की शादी नहीं करना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि उनकी बेटियों को भी यही दूषित पानी पीना होगा, जो आख़िरकार उनकी सेहत को प्रभावित करेगा।

स्थानीय निवासी पार्वती कुमार ने बताया, “मेरे ससुराल वालों ने अपने निवास स्थान के बारे में झूठ बोला। मुझे बताया गया कि मेरी शादी शक्तिनगर के एक परिवार में हो रही है, लेकिन बाद में यह सोनभद्र निकला।”

पटेल नगर में एक निजी इंटर कॉलेज (दशांचल मान शारदा इंटर कॉलेज) चलाने वाले एक कार्यकर्ता और शिक्षाविद् राम आधार पटेल कहते हैं, “हम पहले ही इस पीढ़ी को घातक बीमारियों के हवाले कर चुके हैं। अगर सरकार अगली पीढ़ी को सुरक्षित करना चाहती है, तो उसे पीने के पानी पर काम करना चाहिए।”

उनका कहना है कि सरकार को अपनी ‘हर घर नल’ योजना को प्रभावी बनाना चाहिए, ताकि ज़िले के सभी प्रभावित गांवों में हर घर में सुरक्षित और स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति हो सके।

उन्होंने कहा कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHC) और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (CHC) में विशेषज्ञ डॉक्टरों की तैनाती की जानी चाहिए, ताकि बीमार लोगों का स्थानीय स्तर पर इलाज किया जा सके।

पटेल नगर का निकटतम पीएचसी इस गांव से 19 किमी दूर स्थित है, जबकि चोपन स्थित पीएचसी गांव से 35 किमी दूर है। दुद्धी स्थित पीएचसी गांव से 70 किमी दक्षिण में है। रॉबर्ट्सगंज का ज़िला अस्पताल पहाड़ी गांव से 70 किमी दूर है।

यह पूछे जाने पर कि हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में ज़िले की बहुसंख्यक आबादी को प्रभावित करने वाला यह मुद्दा चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बन पाया, उन्होंने कहा कि दुर्भाग्य से यह कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया।

उन्होंने कहा, 'राजनीतिक दल चांद तोड़ लाने का वादा करते हैं। लेकिन,जैसे ही चुनाव ख़त्म हो जाते हैं,फिर तो कुछ होता नहीं।"

डॉक्टर मानते हैं कि समस्या तो है, मगर वे बेबस हैं

रॉबर्ट्सगंज के ज़िला अस्पताल के एक डॉक्टर ने इस समस्या को माना और इस बात की पुष्टि करते हुए कहा कि पानी में फ़्लोराइड की मात्रा बहुत ज़्यादा है और यह इस ज़िले में बड़े पैमाने पर विकृति और पक्षाघात का कारण बन रहा है।

उन्होंने नाम नहीं छापे जाने की सख़्त शर्त पर बताया, "पीने के पानी में फ़्लोराइड का होना इसलिए नुक़सानदेह है, क्योंकि यह धीरे-धीरे हड्डियों में जमा होता चला जाता है, नतीजतन हडिड्यों और दांतों में फ़्लोरोसिस होना शुरू हो जाता है। डेंटल फ्लोरोसिस का नतीजा शरीर के फीके पड़ जाने और दांतों की विकृति रूप में सामने आता है। जो लोग स्केलेटल फ्लोरोसिस से पीड़ित होते हैं, उन्हें जोड़ों में तेज़ दर्द होता है और अकड़न होती है।

उन्होंने बताया, “फ़्लोरोसिस मनोवैज्ञानिक विकारों का भी कारण बनता है। इसलिए, हम लोगों को भू-जल नहीं पीने की सलाह देते हैं।"

उन्होंने कहा कि यह दूषित पानी बच्चों के विकास को भी प्रभावित करता है और वह यह आरोप भी लगाते हैं कि "सरकार पिछले कई दशकों से यहां चल रही इस आपदा के बारे में अच्छी तरह से जानती है, लेकिन इसे हल करने की दिशा में बहुत कम काम किया गया है।"  

सोनभद्र के जिलाधिकारी (DM) टीके शिबू और मुख्य चिकित्सा अधिकारी (CMO) डॉ नेम सिंह ने इस सवाल को टाल दिया कि इस बीमारी को ख़त्म करने के लिए प्रशासन ने अब तक क्या-क्या ठोस क़दम उठाये हैं।

जहां डीएम ने इस समस्या की गंभीरता को माना और कहा कि ज़िला प्रशासन "स्थिति का कामयाबी के साथ मुक़ाबला करेगा", वहीं सीएमओ ने इस बात का दावा किया कि ज़िले का सरकारी स्वास्थ्य बुनियादी ढांचा इस बीमारी के इलाज के लिए "अच्छी तरह से सुसज्जित" है और "इस समस्या के हल के लिए सभी संभव क़दम उठाये जा रहे हैं।"

फ़्लाई ऐश के निपटान में कोई समस्या नहीं : अधिकारी

बिजली संयंत्रों से निकलने वाले फ़्लाई ऐश के निपटान के लिए कई तालाब खोदे गये हैं।,फ़्लाई ऐश को तरल रूप में पाइपलाइनों के ज़रिये इन तालाबों तक लाया जाता है। इन तालाबों के भर जाने के बाद बहने वाला पानी और पाइपलाइनों से होने वाले रिसाव के ज़रिये ये घातक प्रदूषक रिहंद बांध में चले जाते हैं।

सोनभद्र के लोगों के लिए रिहंद ही पानी का एकलौता स्रोत है। फ़्लाई ऐश न सिर्फ़ नदी के पानी को ज़हरीला बना रही है, बल्कि भू-जल की गुणवत्ता को भी प्रभावित कर रही है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) और उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (UPPCB) की ओर से कई दिशानिर्देशों को जारी किये जाने और लगाये गये जुर्माना लगाये जाने के बावजूद रिहंद में प्रदूषक का निपटान बंद नहीं हुआ है।

पानी के साथ मिश्रित फ्लाई ऐश को तालाबों तक लाने वाली पाइपलाइनों में अक्सर रिसाव हो जाता है, जिसके चलते यह आसपास के इलाक़ों में फैल जाती है। स्थानीय लोगों का आरोप है कि "ऐसा सालों से हो रहा है।"

लेकिन,सम्बन्धित अधिकारी इससे इंकार कर रहे हैं। सोनभद्र स्थित यूपीपीसीबी के क्षेत्रीय अधिकारी टीएन सिंह ने बताया, “इन पाइपलाइनों में कोई रिसाव नहीं है। हमारे निरीक्षण में अनपरा के पास एक पाइपलाइन में कुछ रिसाव का पता ज़रूर चला था,लेकिन इसे जल्द ही ठीक भी कर लिया गया था। इस समय बिना ऐश वाले तालाब का पानी ही रिहंद में जा रहा है।”

अवशेष जमा होने वाले तालाब

जब उन्हें यह बताया गया कि उनकी यह बात रिहंद के पानी में फ़्लोराइड के संदूषण को दिखाने वाले कई निष्कर्षों के उलट है, तो उन्होंने कहा कि ऐसे मामले सिर्फ़ ओबरा से ही सामने आये हैं, जहां रीसर्क्युलेशन सिस्टम में रिसाव के कारण फ़्लाई ऐश रेणु नदी में चली जाती है।

उन्होंने कहा, “हमने सरकार संचालित बिजली उत्पादक के ख़िलाफ़ 1.36 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया है। इसका रीसर्क्युलेशन सिस्टम ठीक से काम नहीं कर रहा है; और इसलिए, फ़्लाई ऐश आंशिक रूप से नदी में निस्तारित हो जाती है।”

बीमार, मुश्किल से चल पाने और बोल पाने में सक्षम और परेशान यहां के स्थानीय लोग अब राज्य की नव निर्वाचित सरकार से उम्मीदें लगा रहे हैं। मगर,सवाल है कि क्या यह सरकार उनकी इस दुर्दशा और  इस संकट को गंभीरता से लेगी और कुछ सार्थक करने की दिशा में काम करेगी?

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Sick, Barely Able to Walk –Contaminants in Drinking Water Maiming Villagers of Sonbhadra

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