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इतवार की कविता : 'टीवी में भी हम जीते हैं, दुश्मन हारा...'

पाकिस्तान के पेशावर में मस्जिद पर हमला, यूक्रेन में भारतीय छात्र की मौत को ध्यान में रखते हुए पढ़िये अजमल सिद्दीक़ी की यह नज़्म...
इतवार की कविता : 'टीवी में भी हम जीते हैं, दुश्मन हारा...'

गिनती सीखो

पाँच मरे हैं इस टोली के आठ मरे हैं दुशमन के

यानी तीन से आगे है अब हमारी टोली

 

बीस मकान गिरे हैं अपने

पंद्रह घर ही दुश्मन के हम ढा पाये हैं

पाँच घर अब भी पीछे हैं हम

छह घर और गिराने हैं बस फिर हम जीते

 

इक बुढ़िया है, इक बच्चा है, इक पत्नि है, इक महबूबा

पागल हैं यह, इनको गिनती तक नहीं आती

एक मरा है सिर्फ़, मगर मातम तो देखो

कहते हैं कि दुनिया उजड़ी

इनको मैंने समझाया भी, दुशमन की लाशें ज़्यादा हैं

यह नहीं समझे,

मूरखों को अब क्या समझायें

झुकी कमर को पता नहीं है

यतीम बच्चा गिन नहीं पाया

राह को तकती मुर्दा आँखें गणित न समझीं

टी वी में भी हम जीते हैं दुश्मन हारा

मूरखों को पर क्या समझायें

"एक" का मरना कुछ भी नहीं है

"एक" का मतलब "सब" नहीं होता

एक के मरने से दुनिया नहीं उजड़ा करती

"एक" कभी दुनिया नहीं होता

काश इन्हें भी हम जैसी ही गिनती आती

तो यह भी रोने के बजाये ताली बजाते! हँसते रहते

 

गिनती सीखो ! हँसना है तो गिनती सीखो!

 

- अजमल सिद्दीक़ी

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