Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

क्या नए मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना सुप्रीम कोर्ट की साख को दोबारा स्थापित कर पाएंगे?

मानवाधिकार कार्यकर्ता और वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह लिखती हैं कि अब हम अपना ध्यान सुप्रीम कोर्ट के नए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन वी रमना पर केंद्रित कर रहे हैं। अच्छी बात यह रही कि इस नियुक्ति में सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया और अब तक चले आ रहे व्यवहार का पालन हुआ। लेकिन आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा उनके ख़िलाफ़ की गई शिकायत पर जो प्रक्रिया अपनाई गई थी, उसमें पारदर्शिता की कमी निराशाजनक है।
क्या नए मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना सुप्रीम कोर्ट की साख को दोबारा स्थापित कर पाएंगे?

भारतीय क़ानून के इतिहास में पहली बार एक ऐसा शख़्स मुख्य न्यायाधीश बनने जा रहा है, जो कानून की दुनिया में आने से पहले पत्रकार हुआ करता था। एक पत्रकार की ज़मीनी मुद्दों पर ज़्यादा नज़र होती है, तो हम उम्मीद कर सकते हैं कि नए मुख्य न्यायाधीश आम लोगों से जुड़े सवालों के ज़्यादा क़रीब रहेंगे। 

मुख्य न्यायाधीश की पारिवारिक पृष्ठभूमि खेती-किसानी से जुड़ी है। ऐसे में निश्चित तौर पर जस्टिस रमनाइस बात की समझ रखते होंगे कि अगर कृषि उत्पादों की आपूर्ति श्रंखला पर कॉरपोरेट घरानों का क़ब्ज़ा हो जाए, तो उसके मायने क्या होंगे। 

चुनौतियां

लेकिन उनके सामने कई चुनौतियां हैं। जस्टिस मोहन शांतनागौदर के गुजरने के बाद सुप्रीम कोर्ट में 6 पद खाली हैं। इस समय सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन इन पदों पर बार से नियुक्तियां करवाने की मंशा रखता है, इन नियुक्तियों में पुरुष और महिलाएं, दोनों ही शामिल हैं। देखते हैं इस मुद्दे पर कैसे बात आगे बढ़ती है। 

सबसे बड़ी चुनौती यहां सुप्रीम कोर्ट की साख को दोबारा स्थापित करने की है। 

मैं सोचती हूं कि क्या शायद हमारे जिंदा रहने के दौरान ऐसा हो पाएगा। अनुभूति शब्द का इस्तेमाल कई बार बहुत गलत ढंग से किया जाता रहा है। लेकिन यह बहुत मायने रखता है। भविष्य के इतिहासकार मूल्यांकन करेंगे कि हम ऐसे बिंदु पर कैसे पहुंच गए, जहां आम भारतीय, यहां तक कि वकील और पूर्व न्यायाधीश भी कोर्ट के फ़ैसलों का सम्मान नहीं करते। जब वक़्त पर दिखाई गई सक्रियता-निष्क्रियता को तस्वीर में शामिल किया जाता है, तो अनुभूतियां जल्दी ही तथ्यों में बदल जाती हैं।

सैद्धांतिक तौर पर न्यायापालिका का काम सरकारी मनमानियों से सुरक्षा देना है। लेकिन अब हम जान चुके हैं कि जब लोकतंत्र असफल होता है, तो उसके साथ न्यायपालिका भी असफल होती है। 

हम भारत में इसके गवाह बन रहे हैं। न्यायपालिका की वैधानिकता में आई गिरावट को देखते हुए, सबसे बड़ी चुनौती 'न्यायापलिका को मौलिक अधिकारों के संरक्षक होने' के विश्वास को फिर से स्थापित करना है। यह मौका तब आया है, जब कोरोना महामारी दुनियाभर में, खासतौर पर भारत में कहर बरपा रही है। 

डॉ ज़रीर उदवाडिया फेफड़ों से संबंधित रोगों के जाने-माने विशेषज्ञ (पलमोनॉजिस्ट) और शोधार्थी हैं। वे महाराष्ट्र सरकार की कोरोना पर बनाई टास्कफोर्स में भी शामिल हैं। 23 अप्रैल, 2021 को टाइम्स ऑफ़ इंडिया में डॉ ज़रीर उदवाडिया का एक लेख प्रकाशित हुआ था। लेख में डॉ उदवाडिया कोरोना के कहर को अतीत में असावधान होने का मूल्य बताते हैं। इस लेख में उन्होंने कोरोना के इस भयावह के लिए जिम्मेदार वज़ह बताई हैं, वह संक्षिप्त में इस तरह हैं;

हमारे नेताओं ने खुद से ही कोरोना पर जीत की घोषणा में आत्म-संतोष लिया।

वायरस के अलग प्रकार के लिए राष्ट्र के तौर पर हमारी तैयारी नहीं थी, क्योंकि हमें इसके जीनोटाइप का कोई भान ही नहीं था। ऐसा इसलिए था क्योंकि हमने जीन-अनुक्रमण (जीन सीक्वेंसिंग), जितनी की जानी थी, उतनी नहीं की। 

वैक्सीन महाशक्ति कहे जाने के बावजूद टीकाकरण धीमा रहा। 

गलत राजनीतिक आंकलन : इस आंकलन के तहत बड़े चुनावी आयोजनों और कुंभ मेले को करवाए जाने की अनुमति दी गई। 

अगर मौजूदा दुख और मजबूरी का आधार बने इन चार कारणों का कोई विश्लेषण करे, तो इस नतीज़े पर पहुंचेगा कि इनमें से हर किसी का अनुमान लगाया जा सकता था और प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करने वाले आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा इनका निवारण किया जा सकता था।

कोर्ट ही हैं आख़िरी रास्ता

वह वक़्त बहुत दूर नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट से उन वज़हों की जांच करने की अपील की जाए, जिनके चलते ऑक्सीजन की कमी बनी रही या ऑक्सीजन का उत्पादन ही नहीं किया गया, जबकि सब जानते थे कि यह श्वसन संबंधी रोग है। या कोर्ट से मांग हो सकती है कि वह जांच करे कि क्यों ऊचित मात्रा में वैक्सीन उपलब्ध नहीं करवाई जा सकी या देश का स्वास्थ्य ढांचा कैसे ढह गया, जिसके चलते देश में कई लोगों को जान गंवानी पड़ी। कोर्ट इस बहस के लिए सही फोरम हैं या नहीं, उस पर तर्क-वितर्क हो सकते हैं। लेकिन जवाबदेही अलग-अलग तरह से तय की जानी होगी जिसमें राजनीतिक, वैधानिक, आपराधिक और नागरिक जवाबदेही शामिल हैं। 

अगर मौजूदा दुख और मजबूरी का आधार बने इन चार कारणों का कोई विश्लेषण करे, तो इस नतीज़े पर पहुंचेगा कि इनमें से हर किसी का अनुमान लगाया जा सकता था और प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करने वाली आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा इनका निवारण किया जा सकता था।

व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि भविष्य के संघर्ष कोर्ट में होंगे। क्या हम इसके लिए तैयार हैं?

जस्टिस रमन्ना की नियुक्ति और उनसे संबंधित विवाद 

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगमोहन रेड्डी द्वारा जस्टिस रमना के ख़िलाफ़ जिस ढंग से शिकायत की गई थी, उसके संवैधानिक तौर पर गलत होने के बारे में मैंने खुद लिखा था। बहुत छोटी सी बात के लिए प्रशांत भूषण पर कोर्ट की अवमानना का मुक़दमा चला दिया गया था, जबकि रेड्डी ने इतना कुछ कहा और उन्हें छोड़ दिया गया। बल्कि जस्टिस बोबडे ने शिकायत पर सुनवाई भी की और जस्टिस रमना से स्पष्टीकरण भी मांगा। हालांकि बाद में उन्होंने इसे खारिज़ कर दिया। लेकिन जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया। हम बस इतना जानते हैं कि निर्वतमान मुख्य न्यायाधीश बोबडे ने जस्टिस रमनाके नाम की सिफ़ारिश की थी। इस संबंध में उठने वाले हमारे तमाम सवालों और चिंताओं का समाधान जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक कर किया जा सकता है। 

शुरूआती दिनों में सामाजिक मुद्दों पर एक्टिविज़्म

इससे इतर, यह जाना माना तथ्य है कि आपातकाल के दौरान जस्टिस रमना एक छात्र एक्टिविस्ट थे। उस दौरान गिरफ़्तारी से बचने के लिए उन्हें फरार भी रहना पड़ा। उन पर वामपंथी अराजकतावादी होने का शक था। जब तक आपातकाल नहीं हट गया, वे फरार ही रहे। निश्चित तौर पर इस पूरी प्रक्रिया ने उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव दिया होगा कि नागरिक और राजनीतिक अधिकारों का हनन देश के आम लोगों के लिए क्या मायने रखता है। मैं सिर्फ़ इतनी उम्मीद रखती हूं कि फरार होने और सही चीजों में विश्वास रखने की उन पुरानी यादों का भविष्य में उनके न्यायशास्त्र पर प्रभाव पड़ेगा। 

नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की रक्षा

यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि हम अपने सामाजिक और आर्थिक अधिकारों के साथ-साथ वंचित तबके के अधिकारों की रक्षा, अपने नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की तेज-तर्रार सुरक्षा के बिना नहीं कर सकते। 

अतीत में मुझे विश्वास दिलाया गया कि एक लोकतंत्र में सिर्फ़ सामाजिक और आर्थिक अधिकार ही मायने रखते हैं। लेकिन आज मेरा सोचना अलग है। 

हमारे नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के बिना, आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की सुरक्षा नहीं हो सकती। इन नागरिक और राजनीतिक अधिकारों को धीरे-धीरे छीना जा रहा है। हमारे पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है, सिवाए अपनी आवाज़ के। और इस आवाज के अलावा अपनी रक्षा करने के लिए हमारे पास कोई दूसरा हथियार भी नहीं है। राजद्रोह के नाम पर इस अधिकार को छीनना, न्यायापालिका के बारे में अच्छी राय नहीं बनाता। वह भी तब जब सुप्रीम कोर्ट चुपचाप सबकुछ देखता रहा। 

यह लेख लिखते वक़्त ख़बर मिली है कि पत्रकार सिद्दीकी कप्पन को कोरोना संक्रमण के चलते अस्पताल में भर्ती करवाया गया है। उस दौरान भी उनके बिस्तर के साथ हथकड़ियां लगाई गईं। रिपोर्टों के मुताबिक़ दिल्ली पुलिस ने कोर्ट से पेशी के दौरान अभियुक्त को हथकड़ियां लगाने की अनुमति मांगी है। ज़ाहिर तौर पर यह अनुमति कोरोना से बचाव के लिए मांगी गई है। हिरासत से संबंधित तारीख़ों पर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए इसका आसान समाधान निकाला जा सकता था।

हमारे नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के बिना, आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की सुरक्षा नहीं हो सकती। इन नागरिक और राजनीतिक अधिकारों को धीरे-धीरे छीना जा रहा है। हमारे पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है, सिवाए अपनी आवाज़ के। और इस आवाज के अलावा अपनी रक्षा करने के लिए हमारे पास कोई दूसरा हथियार भी नहीं है। राजद्रोह के नाम पर इस अधिकार को छीनना, न्यायापालिका के बारे में अच्छी राय नहीं बनाता। वह भी तब जब सुप्रीम कोर्ट चुपचाप सबकुछ देखता रहा। 

हम सिर्फ़ स्वास्थ्य ही नहीं, बल्कि अन्तरात्मा के आपातकाल से भी गुजर रहे हैं। एक ऐसा आपातकाल जिसमें हमने संविधान का ही मान नहीं रखा। यह तो केवल वक़्त ही बताएगा कि जस्टिस रमना के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट अपना संवैधानिक कर्तव्य कैसे निभाता है।

मुख्य न्यायाधीश आते-जाते रहते हैं। लेकिन जरूरी बात यह है कि हमारी प्रतिरोध की आवाज़ सुप्रीम कोर्ट के गलियारों में गूंजती रहनी चाहिए, हमें यह तय करना चाहिए कि हर मुख्य न्यायाधीश को हमारी आवाज़ साफ़ सुनाई देती रहे। जस्टिस रमना का मूल्यांकन नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की रक्षा करने की क्षमता के आधार पर किया जाएगा, बिल्कुल वैसे ही जैसे उन्होंने 1975 में अपने अधिकारों की सुरक्षा की थी। 

(इंदिरा जयसिंह मानवाधिकार कार्यकर्ता और सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं। वे द लीफ़लेट की सह-संस्थापक भी हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

यह लेख मूलत: द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Will CJI N V Ramana Restore the Credibility of the Supreme Court?

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest